Saturday, 12 December 2015

रहस्य भाव 64

>वेदाऽपहार गुरुपातक दैत्यपीड़ाद्यापद्विमोचन महिष्ठफल प्रदानैः ।
कोऽन्यः प्रजा पशुपतिः परिपाति कस्य पादोदकेन स शिवः स्वशिरोधृतेन ।।
भावार्थ - वेदोँ को चुराने व ब्रह्महत्यारुप महापातकीदैत्योँसे उत्पन्न पीड़ादिक आपत्तियोँ को हरने एवं यथेष्ठ श्रेष्ठ फलोँ कोप्रदान करने वाला आपके अतिरिक्त दूसरा कौन है जो ब्रह्माजी एवं शिवजी की रक्षा और पालन करता है ? शिवजी भी अपने मस्तक पर आपके चरण प्रक्षालित जल को धारण करके विशुद्ध मंगलमय को प्राप्त हुए है । अर्थात् एकमेव नारायण ही परमतत्व हैँ ।।
वेदापहार > वेदोँ को चुरानेवाले मधु एवं कैटभ दैत्यो का संहार करके नारायण ने वेद लाकर ब्रह्माजी को देकरउन्हे संकट से बचाया ।
गुरुपातक > पहले ब्रह्माजी एवं शिवजी दोनोँ पंचमुखी थे। शिवजी ने अपने नख से ब्रह्माजी का एक सिर काट लिया जिससे शिवजी को ब्रह्महत्या लग गयी तथा पिताजी का शिरःकपाल शिवजी के हाथ से चिपक गया छूटे नही । तब देवर्षियोँ ने कहाकि आप इस कपाल को मे भीख माँगिये , जब यह भर जायेगा तब स्वयं ही गिर जायेगा । तब शिवजी उस कपाल को लेकर भ्रमण करते रहे किन्तु न तोभरा और न ही गिरा । तब दुःखीशिवजी घूमते बदरीधाम पहुँचे और वहाँ पर नारायण को सारा वृत्तान्त सुनाया तब भगवान नारायण ने उस कपालको भर दिया जिससे कपाल वहीँपर गिर पड़ा जिसका एक अंश आज भी वहाँ पर विद्यमान है जिसपर लोग अपने पितरो को पिण्डदान करते हैँ । इस प्रकार "गुरुपातक" शब्द गुरु अर्थात् पिता व आचार्यके प्रति किये गये पाप का संकेतक है ।
दैत्यपीड़ा > प्रसिद्ध है किशिवजी ने वृकासुर को बरदान दिया कि जिससे सिर पर हाथ रख देगा वह भस्म हो जायेगा । जिससे शिवजी संकट मे पड़ गये थे तब भगवान नारायण ने शिवजी को इस संकट से उबारा ।
> एक बार शिवजी का अन्धक नामक असुर से युद्ध हुआ । शिवजी के शस्त्रो के आघात से अन्धक के शरीर से गिरने वाले रक्त बिन्दुओँ से असंख्य असुर उत्पन्न हो गयेऔर रणभूमि इन असुरोँ से आच्छादित हो गया । शिव नारायण की शरण मेँ गये । तब नारायण ने शुष्क रेवती नामकएक देवता को भेज दिया जिसनेअन्धकोँ के शरीर निकलने वाले रक्त बिन्दुओँ को पी लिया जिससे असुरोँ की सृष्टि बन्द हो गयी और अन्धक का बध आसानी से हो गया ।।
लक्ष्मीनारायण भगवान की जय !!

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