Thursday, 3 December 2015

यज्ञोपवीत

षोडशसंस्काराः (यज्ञोपवीतम्) खंड ११०~ हिन्दूजातिका सनातन इतिहास "शिखा" और "सूत्र" का इतिहास हैं | सभ्यताके संघर्षकालमें हिन्दूजाति और संस्कृति इन्हीं पावन प्रतीकोंके साथ पली-बढी | विधर्मियोंने सर्वदा अपने आक्रमणोंका लक्ष्य शिखा-सूत्रको ही बनाया; किंतु प्राणोंका भी उत्सर्ग कर हिन्दूजातिने इसे नहीं छोडा़ और दृढतासे बचाये रखा |
यज्ञोपवीतसंस्कार षोडशसंस्कारके अन्तर्गत दशवाँ संस्कार हैं और वेदोक्त वर्णाश्रमव्यवस्था और वैदिक सनातनधर्म की आधारशिला हैं | वेद विश्वका अति प्राचिन एवं आत्मविषयक गूढ़ रहस्योंसे भरा अपौरुषेय ग्रन्थ हैं | महातपा ऋषियोंने अपने पवित्रतम हृदयमें वेदमन्त्रोंका दर्शन किया था | अतः वे मन्त्रदृष्टा ऋषि हुए" ऋषयो मन्त्रदृष्टारः"| वेदोंमें वर्णाश्रम स्पष्टरूपमें वर्णित है | पुरुषसूक्तमें चार वर्ण- ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्रकी उत्पत्ति विराट् पुरुषके विभिन्न अङ्गोसे होनेका उल्लेख हैं | वेदाध्ययन करने के लिए उपनयन अनिवार्य है । उपनयन किसका वेदसम्मत है? –यह निर्णीत होते ही वेदाध्ययन के अधिकारी का भी निर्णय हो जायेगा । वेदाध्ययनविधायक वाक्य है"स्वाध्यायोऽध्येतव्यः||तैत्तिरीय आरण्यक –२/१५|| "स्वाध्याय –स्वश्चासौ अध्यायः ,स्वस्य अध्यायः"–इस प्रकार कर्मधारय या षष्ठीतत्पुरुष करके स्वाध्याय का अर्थ हुआ "वेद,"अध्येतव्यः" पढ़ना चाहिए ।लिड़्,लेट् ,लोट्, तव्यत् आदि विधान के लिए हैं। प्रकृत वाक्य से वेदाध्ययन का विधान किया गया है।ध्यातव्य है कि स्वशाखा वेद ही है ।यह अध्ययन किस किस को कैसी योग्यता उपलब्ध होने पर करना चाहिए?| इस शंका को निर्मूल करने के लिए शतपथ ब्राह्मण का वचन है- "अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत" तमध्यापयेत्","एकादशवर्षं राजन्यं " "द्वादशवर्षं वैश्यम् "| आठ वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन करे और उसे पढ़ाये । इसी प्रकार ११वर्ष के क्षत्रियऔर १२वर्ष के वैश्य का उपनयन करके उन्हें पढ़ाये | किसका उपनयन कब हो? –इसे भी बताया गया है –मीमांसा के प्रौढविद्वान् शास्त्रदीपिकाकार ” पार्थसारथि मिश्र सप्रमाण लिखते हैं–"वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं शरदि वैश्यम् इति द्वितीयानिर्देशादुपनयनसंस्कृतास्त्रैवर्णिकाः||अध्याय१पाद१,अधिकरण१सूत्र१"||वसन्त काल में ब्राह्मण का उपनयन करे,ग्रीष्म में क्षत्रिय और शरद् ऋतु में वैश्य का ।भगवान् वेद के इन वचनों में सर्वत्र,"ब्राह्मणम्,राजन्यं, वैश्यम्  इस प्रकार द्वितीयान्त पुल्लिंग का ही प्रयोग हुआ है, शुद्र और स्त्रीलिंग का नही । अतः  उपनयन  पुरुषों का ही होगा ,स्त्रियों का नहीं |यह बात सामान्य व्याकरण– अध्येता को भी ज्ञात है कि पुंस्त्व की विवक्षा मेंपुल्लिंग और स्त्रीत्व की विवक्षा होने पर टाप् ,ड़ीप् आदि प्रत्यय होकर टाबन्त ड़ीबन्त अजा,ब्राह्मणी,क्षत्रिया,वैश्या आदि शब्दों का प्रयोग होता है ।जब घोड़ा मगाना होगा तब "अश्वमानय "ही बोला जायेगा । और घोड़ी मगाना होगा तो "अश्वामानय" ही बोलेंगे ।इन तथ्यों को ध्यान में रखकर देखें कि उपनयन श्रौतवचनों से किसका कहा जा रहा है ? पुरुष का या स्त्री का ? "पशुना यजेत इत्यादि स्थलों में पुंस्त्वआदि की विवक्षा है ;क्योंकि महर्षि पाणिनि जैसे सूत्रकार ने"तस्माच्छसो नः पुंसि ,स्त्रियाम्,अजाद्यतस्टाप्,स्वमोर्नपुंसकात् "जैसे सूत्रों द्वारा पुल्लिंग में अकारान्त शब्दों से परे शस् के स् को न् ,स्त्रीत्व की विवक्षा में टाप् आदि तथा नपुंसक  लिंग में अदन्तभिन्न शब्दों से परे सु और अम् विभक्ति का लोपकहा है । अतः इन तथ्यों को मानकर ही अर्थ करना चाहिए | तथा लिंगम्"पूर्वमीमांसा–४/१/८/१६,सूत्र से महर्षि जैमिनिने पाँचहजार वर्ष पूर्व ही इस तथ्य की पुष्टि कर दी थी । महर्षि पाणिनि के पहले भी शाकटायन, आदि अनेक वैयाकरण हो चुके हैं|  वेदों की आनुपूर्वी में प्रवाहनित्यता मानें या और कुछ, उसमें परिवर्तन ईश्वर भीनही करता । तात्पर्य यह कि समयानुसार वेद नही बदलते हैं |वेद से भिन्न जो स्मृतियां हैं उनका प्रामाण्य वेदमलकत्वेन ही है ,वेदविरुद्धहोने पर वे अप्रमाण की कोटि में चली जाती हैं-ये दोनो सिद्धान्त क्रमशः"स्मृत्यधिकरण१/३/१/२"विरोधाधिकरण१/३/१/३-४|  पूर्वमीमांसासे सर्वमान्य हैं ।" विरोधे त्वनपेक्ष्यं स्यादसति ह्यनुमानम् ” १/३/१/३सूत्र तो इस विषय में अति प्रसिद्ध है ।अतः अपौरुषेय वेद–वसन्ते ब्राह्मणमपनयीत,ग्रीष्मे राजन्यं , शरदि वैश्यम् ” से विरुद्ध "पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते|| यम स्मृति ||सर्वथाअप्रामाणिक है । इससे वेदप्रतिपादित सिद्धान्त को सञ्कुचित नही किया जा सकता । मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते | वेदार्थोपनिबद्धत्वात्  प्राधान्यो हि मनोः स्मृतेः||मनुःस्मृति भूमिका पृष्ठ ६|| मनुस्मृतिके विपरीत धर्मादि का प्रतिपादन करनेंवाली स्मृति श्रेष्ठ नहीं हैं क्योंकि वेदार्थ के अनुसार रचित होनेके कारण मनुस्मृति की ही प्रधान्यता हैं | यद् वै किंच मनुरवदत् तद् भेषजम्|| तै०सं०२/२/१०२|| मनुर्वै यत् किंचावदत् तत् भैषाज्यायै||ता०ब्रा०२३/१६/१७|| तैतरीय संहिता एवं तांड्य महाब्राह्मण के अनुसार मनुने जो कुछ कहा हैं,यह सब औषध हैं|"मानव्यो हि प्रजाः" मनुसे पैदा होनेके कारण हम मानव कहलातें हैं| मनु और शतरूपाकी कथा विश्रुत ही हैं| ऋग्वेदके प्रथम मण्डल के ८० वे सूक्तमें-"यामथर्वा मनुष्पिता दध्यङ् धियमत्नतः| तस्मिन् ब्रह्माणि पूर्वथेन्द्र उक्था समग्मतार्चन्ननु स्वराज्यम्||ऋग्वेद१/८०/१५|| यह प्रार्थना हैं कि हम मनुके मार्गसे  कहीं गिर न जाएँ | फिर वहाँ यह भी कहा गया हैं कि  भारतवर्ष में सबसे पहले मनुने ही यज्ञ किया |अतः मनुस्मृतिका सर्वतो प्राबल्य हैं | अमन्त्रिका तु कार्येयं स्त्रीणामावृदशेषतः| संस्कारार्थे शरीरस्य यथाकालं यथाक्रमम्|| मनुः२/६६|| शरीर संस्कार हेतु प्रसंगक्रमसे प्राप्त और क्रमसे स्त्रियोंके सब संस्कार बिना मन्त्र के ही करना चाहिये |  फिर इस श्लोक के आगे मनुजी कहतें हैं कि- वैवाहिको विधिःस्त्रीणां संस्कारो वैदिकःस्मृतः| पतिसेवा गुरौ वासो गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया || मनुः २/६८|| स्त्रियोंका विवाह संस्कार ही वैदिकसंस्कार(यज्ञोपवीत),पतिसेवा ही गुरुकुलवास(वेदाध्ययनरूप), और गृहकीर्य ही अग्निहोत्रकर्म बताया गया हैं| अतः मनुस्मृतिके प्रबल प्रमाणोंसे  स्त्रियों का उपनयन किसी भी कल्प में नही होता है । और सभी कल्पों में पुंस्त्वविशिष्टों का ही उपनयन वैदिक सिद्धात है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब उनका उपनयन ही नही तब वेदाधिकार न होने से वेदमन्त्रसाध्य यज्ञादि कर्मों के आचार्यत्व का वे निर्वहन भी नही कर सकतीं । हां पति के साथ वे प्रत्येक कार्य का सम्पादन करेंगी । पत्नी के विना पति किसी यज्ञादि कर्म का अनुष्ठान नही कर सकता ;क्योंकि आज्यावेक्षणजैसे कर्म यदि नही हुए तो अंगवैकल्य से कर्म फलप्रद नही हो सकता यह तथ्य पूर्वमीमांसा में –६/१/४/८से २० वें सूत्र तक विस्तार से वर्णित है ।ऋषिकाएं –अपाला आदि अनेक ऋषिकाएं हैं जिन्हे वेदमन्त्रों का साक्षात्कारहुआ है –यह वेद से ही सिद्ध है । अतः इनका वेदाध्ययन में अधिकार था या नही ?|समाधान अपाला आदि ऋषिकाओं का वेदमन्त्रद्रष्टृत्व जैसे वेदबोध्य है| वैसे ही स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन के अंग उपनयन का अभाव भी वेदबोध्यही है । यह तथ्य पूर्व में निर्णीत हो चुका है ।अतः अपाला जैसी महनीय नारियों के भी वेदाध्ययन की कल्पना वेदविरुद्धहै । रही मन्त्रसाक्षात्कार की बात, तो वह प्रकृष्ट तपःशक्ति से ही सम्भव है । जब ५ वर्ष के तपःसंलग्न ध्रुव में भगवत्कृपा से सरस्वती प्रकट हो सकती हैं तो अपाला जैसी नारियों में क्यों नहीं ? तप अनेक प्रकार के होते हैं जिनमे स्त्रियों का अधिकार है तभी तो भगवान् श्रीराम ने शबरी जी से पूंछा था कि आपका तप बढ़ रहा है न? –क्वचित्ते वर्धते तपः||वाल्मीकि रामायण -अरण्यकाण्ड-७४/८||आज भी कर्मकाणड में देवताओं को यज्ञोपवीत चढ़ाया जाता है देवियों– गौरी आदिको नहीं –इसका मूल नारियों के उपनयन का अभाव ही है ।भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी है। उनकी कृपा से मूढ भी चारोंवेदों का ज्ञाता हो सकता है । किन्तु इससे सरस्वती जी के वेदाध्ययन और उपनयन की कल्पना तो नही की जा सकती । मारीच जैसा राक्षस भी रावण से बात करते हुए जिनके पति श्रीराम को विग्रहवान् धर्म कहता है । धर्मशिक्षणहेतु अवतरित उन भगवान् श्रीराम से अभिन्न उनकी प्रियतमा पराम्बा जानकी जी के लिए हम वेदविरुद्ध उपनयन और वेदाध्ययन की कल्पना नहीं कर सकते |

ॐस्वस्ति

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