भजन ... भजन का वास्तविक स्वरूप -- सेवा , त्याग और प्रेम ! भजन करने की विधि और उपाय है -- प्रभु में आस्था , श्रद्धा , विश्वास और आत्मीयता का होना | चार बातों को मान लेने पर भजन स्वत: हो जाता है | यानी प्रभु है , सर्वश्रेष्ठ हैं , सुख और सौन्दर्य के भण्डार हैं और मेरे हैं -- यें चार बात मान लेने पर ही वास्तविक भजन होता है | भगवान में अपनत्व मानना अनिवार्य है , प्रेम जब तक होगा नहीं , जब तक अपनापन ना हो | अपने में प्रीति स्वत: होती है और जिससे प्रीति होती है , उसकी स्मृति भी स्वत: होती है | अत: स्वत: स्मृति का होना ही सच्चा भजन है | जब तक ममता , कामना और आसक्ति का त्याग नहीं करोगे, भजन होगा ही नहीँ । इनका त्याग किये बिना प्रभु में पूर्ण आस्था कैसे होगी । इनके त्याग से ही सेवा , प्रेम , और त्याग की प्राप्ति होती है । सेवा हेतु ही देह आदि को सेवा में लगाना है । सभी वस्तुएं प्रभु की ही है , अपना मानकर भजन -प्रेम कैसे होगा । जिस वस्तु का सहज मन से त्याग ना हो वो भी एक समय तत्व में विलीन होनी है । देह आदि उनकी वस्तु है , ये जान कर स्व को उनके हेतु , उनमें ही पाना है । एक अबोध बालक सहज स्वीकार करता है , कि अपने माता-पिता का हूँ । जब बोलना भी नहीँ जानता तब स्वयं को अपनी माँ की वस्तु ही मानता है । अपने को माता-पिता का और माता-पिता को अपना मानता है । यहीँ अपनत्व है , और यही से प्रीत की डोर बंधती है । इस अपनत्व में तीन बात हुई पर एक ही कारण से , एक त्याग । स्व से मुक्ति हो प्रभु को अपना मानने पर स्व से सम्बन्ध का त्याग हुआ । अपने लिए किये श्रम , चाह , आसक्ति , आदि विकार की तरह काँटों की तरह बढ़ते है और यहाँ अपने हेतु किये समस्त आयोजनों में जीव उलझ जाता है । वहीँ श्रम-कर्म अपने प्रियतम् (भगवन्) के लिए हो तो सेवा हो जाते है और उनकी चाह-आसक्ति अनुराग और प्रेम हो जाती है ।
सेवा में सर्वस्व को अन्य की सेवा में लगाना होता है , पर(दूसरे) में जब तक परमात्मा ना दिखे , प्रेम का रंग ना खिलेगा । क्योंकि प्रेम में प्रियतम् के अतिरिक्त कुछ दिखता ही नहीँ , अतः प्रेमी स्वतः परम् प्राप्तियों से भी ऊपर होता है । सर्वस्व प्रियतम् की भावना से लालायित । ज्ञानी जिस दशा को वसुदेवसर्वम् कह कर विचार करते है । प्रेमी उन ही स्थितियों को जीने लगता है । चहूँ और प्रियतम् ही दिखाई देवे । तब जो भी अपना है वही सेवा में सर्वत्र प्रभु को मान स्वतः लग जावें । कहीँ भी वैमनस्य ना हो , घृणा ना हो । सर्वत्र समान रूप सब स्थितियों में प्रेमवर्षा का अनुभव हो । जहाँ कथित प्रेम तो हो परन्तु कहीँ सेवा की भावना ना बन सके तो प्रेम की कलि खिल ना सकेगी ।
त्याग के लिए कुछ अपना भी चाहिए यहाँ स्वत्व की भावना का ही त्याग है । संसार में जो कुछ है मेरा नहीँ है , मेरे लिए नहीँ है , मुझे कुछ नहीँ चाहिए - यें त्याग है । त्याग से अहंकार का मर्दन होने से समस्त भजन हो जाता है । सेवा से समस्त जगत प्रसन्न होता है । त्याग से अपने भीतर प्रसन्नता होती है और प्रेम से प्रभु प्रसन्न होते है ।
सेवा और त्याग के बिना प्रेम का प्रादुर्भाव नहीँ होता है । सत्यजीत "तृषित"
Tuesday, 29 December 2015
भजन
Saturday, 26 December 2015
मूक सत्संग से कैसे आगे तक का पथ बनता है ।
आत्म-मंथन (मूक-सत्संग)
शब्द - भाषा की कुछ कठिनाई हो सकती है । परन्तु यें लेख कई भावनाओं का स्वतः उत्तर है । मनन के लिए ।
सत्संग परम् आवश्यक है । अध्यात्म की मूल इकाई है । या कहे कि प्रथम नींव ही है । वास्तव में सत्संग से प्राप्त क्या वस्तु है , जो उसे अनिवार्य करती है । वो वस्तु है , विवेक । सत्संग से विवेक होता है । परन्तु सत्संग से सीधे विवेक नहीँ होता । ऐसा होता तो सामूहिक सत्संग का समूह पर एक ही असर दिखाई देता । यहाँ सत्संग कुछ और घटा , जो विवेक तक गया । जिसे कह सकते है , आत्म-मंथन या चिंतन । जिससे विवेक पर से कालिख हटी और सामने आया । विवेक में भेद नही , विवेक में भेद हुआ तो सत्संग की धारा किन्हीं उथली पोखरों में चली गई । परन्तु वहाँ भी सत्संग की धारा असर दिखाएगी । और जिस भी भाव दीक्षा में घूमेंगी , लाभमय होगी । परन्तु विवेक के सागर में जाना परम् रस है ।
सत्संग और विवेक के बीच जो घटा वहीँ औषधि परम् सन्त शरणानन्द जी और अन्य ने "मूक सत्संग" कहा । मूक सत्संग यानि प्राप्त सत्संग से विवेक तक जाती नदी (आत्म-चिंतन) ही वास्तविक सत्संग है । विचार-विनिमय आदि का प्रयास वास्तविक सत्संग का सहयोगी अंग है , अर्थात् विचार-विनिमय से मूक सत्संग की समर्थता आती है । इस कारण मूक-सत्संग के साथ-साथ अपने ही द्वारा अपने सम्बन्ध में विचार-विनिमय अनिवार्य है । अहम् की निवृति होते ही मंगलमय विधान से स्वतः नित्ययोग की अभिव्यक्ति होती है । परम् प्रियतम से नित्य योग होना परम् लक्ष्य का पूर्ण कृपाप्रसाद है । यह रहस्य जब साधक निज विवेक के प्रकाश में अपने लक्ष्य के सम्बन्ध में विकल्प रहित होता है । जब तक विकल्प है , आवश्यकता अनिवार्यता ना बनेगी । लक्ष्य का निर्णय वास्तविक सर्वप्रथम प्रयास है । आज समाज तो बहुत है परन्तु लक्ष्य नहीँ , अथवा लक्ष्य को समुदाय बना लिया जबकि आध्यात्मिकता समुदाय के विपरीत धरातल पर घटती है । अतः निज लक्ष्य हो , लक्ष्य की ललक ही स्वतन्त्र सत्य पथ देती है । अतः लक्ष्य हो , पथ हो , ललक हो ।
मूक सत्संग को अभ्यास नही , समस्त साधनो की भूमि कहा गया है । मूक सत्संग किया नही जाता , आवश्यक कार्य के अंत में स्वतः होता है । जो स्वतः होता है , उसमें अपनी आस्था , श्रद्धा और विश्वास हो , तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक साधन की अभिव्यक्ति तथा असाधन का नाश हो जाता है । किया हुआ साधन साधक के अहंभाव को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखता है और यहीं आज सभी पथिक अटक जाते है । कारण साधन रूपी अहम् । जो एकरूप ना करा भेद और भिन्नता का प्रतीक है । सभी पथ परम् से अभेद और अभिन्नता पर रसमय होते है , जहाँ भेद हो और भिन्नता हो , वहाँ किये साधन के अहम् से स्व शेष रहता है और परम् की अनुभूति नहीँ हो पाती । इस स्थिति में सद्गुरु संग हो तो साधन होकर असाधन भाव से आगे बढ़ा जाए । अहम् ने ही नित्य प्राप्त परम् रस से विमुख किया है और साधको को गुण और दोष के अभिमान में बाँध दिया है । गुणों के अभिमान से दोष पोषित होते है । और स्वदोषों पर दृष्टि जाने से गुण , सत्संग यहीँ कारगर उपाय करता है । और स्व में नाना प्रकार के दोष दिखते है । और मैल को हटाने के लिये अन्तः चित् स्नान के लिए व्याकुल होता है ।
जब साधक अपने में कोई विशेषता नहीँ पाता , तब अधीर हो , वास्तविकता के लिए परम् व्याकुल होता है । और व्याकुलता की अग्नि समस्त दोषों को भस्मीभूत करने में सर्वदा समर्थ है । व्याकुलता की जागृति प्राकृतिक विकास क्रम है । क्योंकि प्यास से जल की सिद्धि है , जल हो प्यास नहीँ तो जल के होने पर भी जल के होने का महत्व नहीँ । प्यास की गहराई जल की आवश्यकता और स्वाद दोनों को बढ़ाती है । व्याकुलता सहज , स्वभाविक रूप से साधक को सतपथ पर अग्रसर करती है । व्याकुलता के बिना कभी किसी का विकास नहीँ हुआ । वास्तविकता से निराश न होने पर अर्थात् जगत स्वप्न है और भगवत् लालसा सच , यें वास्तविकता है (जड़ रूपी देह संसार से निवृति और नित्य चेतन ईश्वर की तीव्र लालसा आत्मीयता से ) । इस वास्तविकता से निराश न होने पर व्याकुलता स्वतः जाग्रत होती है । क्योंकि चेतना जब स्वयं को जड़ संसार का ना मान अपने परम् चेतनत्व की चाह करती है तो यहाँ जाल में फंसे जीव् सी स्थिति अनुभव होती है और व्याकुलता बढ़ती है। यहाँ की चार दीवारी में दम घुटता है तब ही प्रियतम् के घर से अपना पन होने से व्याकुलता तीव्र होती है । व्याकुलता मिटाई भी नहीँ जा सकती अपितु लक्ष्य से अभिन्न होने पर स्वतः अगाध प्रियता में परिणत होती है । व्याकुलता प्रियतम् से मिल प्रेम हो जाती है , परन्तु स्व का अभाव ही अब इस प्रेम रूपी व्याकुलता को नित्य बढ़ाता है । नित्यवर्धमानं करता है । यहाँ अब बहुत से प्रेमी और साधना के पथ से पहुँचे सिद्ध तृप्त दिखाई देते है । प्रेम में नित्य रसपान है परन्तु तृप्ति नहीँ क्योंकि प्रेम अभेद -अभिन्नता में घटा जो कि अहम् शून्यता पर आई । तृप्ति में एक से दो होना है , और स्व की घोषणा भी । स्व नही है तभी तो रस भी है पीया भी जा रहा है , आनन्द-रस भी मिल रहा है । पर स्व ना होने से और स्व के स्व में अभाव से रस की लालसा बढ़ने लगती है । इसलिए ही रसपान में मूकता घटती है । क्योंकि अनुभूति में शरण की भावना है और अनुभव में स्व की घोषणा । इस दृष्टि में व्याकुलता सफलता की कुञ्जी है और यें ही नित्य 'तृषित' होने का रहस्य भी है । पीकर भी प्यास जहाँ नित्य है । ज्यों ज्यों साधक में नित नव उत्साह और उत्कंठा सबल होती जाती है , त्यों-त्यों व्याकुलता स्वतः तीव्र होती जाती है । व्याकुलता अहंकार के नाश में समर्थ है । अहंकार ने ही साधक को रसमय आनन्द प्राप्ति से अलग कर बाँध दिया है । इस परिच्छिन्नता से ही भेद और भिन्नता पोषित होती है । अर्थात् जब तक तुम हो , ईश्वर नही । जब ईश्वर तो तुम नहीँ । और जब तुम भी हो , ईश्वर भी हो तब प्रेम लीला मिलन होगा जिसके लिए कोई शब्द ना जुटेंगे । क्योंकि तब या तो ईश्वर प्राकृत होंगे जो अन्य के लिये सहज विश्वास की बात ना होगी । या जीव अप्राकृत सुख रस में होगा और वहां की स्थिति को शब्द देने की भाषा सही मायने में उपलब्ध नहीँ होगी । शब्द जुटे भी तो किंचित् स्मृतियों की भगवत्कृपा प्रसादी से । सत्यजीत "तृषित" ।यहाँ तक मनन करें तब ही भावरस से आगे भी चर्चा जारी रहे ,इस भाव से जय जय श्यामाश्याम ।
Friday, 25 December 2015
रहस्य भाव 73
>> संग का रंग मन
को लगता ही है । ज्ञान
सदाचार , भक्ति ,
वैराग्य , आदि मेँ
जो महापुरुष हमसे बढकर
होँ , उन्हीँ का आदर्श
अपनी दृष्टि के समक्ष
रखना चाहिए ।नित्य
इच्छा करेँ कि भगवान
शंकराचार्य
जी जैसा ज्ञान , महाप्रभु
चैतन्य जी जैसी भक्ति और
शुकदेव जी जैसा वैराग्य
मुझे भी मिलेँ ।
प्रातः काल मेँ
ऋषियोँ को याद करने से
उनके सद्गुण हमारे जीवन
मेँ उतरते हैँ । अपने अपने
गोत्र के ऋषि को भी याद
करना चाहिए । आज
तो लोँगो को अपने गोत्र
का भी नाम मालूम नहीँ है
।
नित्य गोत्रोच्चारण
करो । नित्य
पूर्वजोँ का वंदन करो ।
हमेशा सोचते रहो कि मुझे
ऋषि जैसा जीवन
जीना है , ऋषि होना है ,
विलासी नहीँ होना है ।
Wednesday, 23 December 2015
रहस्य भाव 72
>सच्चा सुख आनन्द <
एक बार माता देवहूति ने
भगवान कपिल से प्रश्न
किया - जगत मेँ सच्चा सुख
आनन्द कहाँ है और उसे पाने
का साधन क्या है ?
कपिल भगवान ने कहा --
माता, किसी जड वस्तु मे
आनन्द नहीँ रह सकता ।
आनन्द
तो आत्मा का स्वरुप है ।
अज्ञानवश जीव जड वस्तु
मे आनन्द खोजता है ।
संसारिक विषय सुख
तो देते है किन्तु आनन्द
नही देते । जो तुम्हेँ सुख
देगा वह दुःख
भी देगा किन्तु भगवान
हमेशा आनन्द ही देते है ,
आनन्द
परमात्मा का स्वरुप है ।
मित्रो सांसारिक सुख
तो शरीर
की खुजली जैसा है कि जब
तक आप खुजलाते रहेगे तब
अच्छा लगेगा । किन्तु
खुजाने से नाखून के जहर के
कारण खुजली का रोग
बढता जाता है ।
सर्वोत्तम मिठाई
का स्वाद भी जिह्वा तक
ही रहता है ।
जगत के पदार्थो मेँ आनन्द
नही है ,
उसका आभासमात्र है ।यह
जगत दुःख रुप
है .,..,...गीता के अनुसार
"अनित्यं असुखं लोकं इमं
प्राप्य भजस्व माम् ।"
हे अर्जुन ! क्षणभंगुर और
सुखरहित इस जगत को और
मनुष्य शरीर प्राप्त करके
तू मेरा ही भजन कर ।
आरम्भ मे तोजड वस्तु मे
भी सुख का अनुभव होता है
किन्तु वह विषमय ही है -
" विषयेन्द्रियसंय
ोगाद्यत्तदग्रेऽ
मृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं
राजसम् स्मृतम् ।"
गीता 18/ 38 ।
विषयो और इन्द्रियो के
संयोग से जो सुख उत्पन्न
होता है , वह आरम्भ मेँ
(भोगकाल मे)तो अमृत
जैसा लगता है किन्तु
परिणाम की दृष्टि से
विष के समान ही है । इसे
राजस सुख कहा गया है ।
Tuesday, 22 December 2015
रहस्य भाव 71
>अस्तित्व <
यदि मनुष्य किसी वस्तु के
अस्तित्व को नकारने
का प्रयास भी करता है
तो वह गलत है ।
क्योँकि किसी के सम्पूर्ण
नकार
की कल्पना नहीँ की जा सकती ......
ईश्वर के नकारात्मक
विशेषण अनादि , अखण्ड ,
अभेद , अनन्त , अगम ,
आदि ईश्वर
की महानता एवं
विराटता को प्रस्तुत
करते है ......
इसी भाँति किसी वस्तु
को समग्रतः नकारने पर
उसका स्वरुप
ही अति विराट
हो जाता है जो मानव
की समझ से परे है ....
इस नकार की हम
कल्पना तक नहीँ कर सकते
है ....
क्योँकि वह अनिर्वचनीय
एवं अकल्पनीय है ।
अस्तु सम्पूर्ण नकार
की कल्पना की बात
मिथ्या है , इसका वर्णन
नहीँ किया जा सकता ,
इसकी कल्पना भी नहीँ की जा सकती है
।
शरणागति
शरणागति ।
यहाँ क्या चाहिए , कैसी स्थिति चाहिए ? सच में तो यहाँ कुछ प्रयास नहीँ । यहाँ अपनी प्यास और सच्ची असमर्थता चाहिए । जो उनसे होगा , वो हमसे नहीं । अपने दर पर किसी को यूँ आये क्या मैंने सम्भाला । कौन हूँ मैं , कितनी सूक्ष्मतायें है ? क्या अपने घर के कीट-मच्छर आदि , चींटियों से मेरा कोई परिचय है ? क्या कभी अपने से लघुतर जीवों पर मेरी दृष्टि गई ? क्या कभी अपने तन पर चढ़ती चींटी की मैंने सहायता की ? या उसे जाने अन्जाने मार डाला ? जब मुझे किन्हीं सूक्ष्म दिखते जीवों से कोई सम्बन्ध नहीँ तो कैसे कोई मुझसे परम् मेरा सम्बन्धी हो ? जब मुझमेँ प्रभुता तो है अपने से छोटे जीवों के प्रति पर करुणा और प्रेम नही ।
कितने परम् ईश्वर की करोड़ों सृष्टियों में असंख्य जीवों में कोई एक जीव । बस यें हूँ उनके आगे ।
क्या किसी दस पाँच फेक्टरी वाले धनी को अपने सभी कर्मचारियों से अपनत्व होता है । या पता भी होता है सबका , तो यहाँ तो सृष्टियों की संख्या भी अज्ञात है । जीवों की क्या कहीँ जाएं ?
कैसा साधन हो असीमित व्यापक परम् के समक्ष , उनकी प्राप्ति का । विचार करिये । बूँद रेगिस्तान में जो गिरी हो कैसी उछाल लगाएं कि सागर में मिल जाएं ।
यहाँ सबसे अधिक महत्व है तो उनकी "कृपा" का । उनके दर पर यूँ ही गिरे कि वें सज़दा समझ दौड़े आये । या किसी भी सच्ची -झूठी साधन पर वें मुस्कुरा दिए अपने हो गए । तो उनकी कृपा -उनकी करुणा । उनका प्रेम । उनकी पुकार और उनका साधन । अतः शरणागति में पहले तो कृपा क्या है ? और हम कितना प्रयास कर सकते है । कितना हमारी उछाली गेंद उछल सकती है क्या वो उन तक जा सकती है ? कितनी तडप हमारी पुकार में है ? कितनी भी हो उनका सुनना , उनकी ही कृपा । पूर्णकृपा ।
शरणागति तीन बात और कहती है - एक , केवल वें ही सर्वस्व रह जाये । शरणागत होने पर पुनः स्वामी नहीँ बदले जाते । कभी इधर कभी उधर द्वार नहीं खटखटाया जाता । और यें होता है आज कल । अपने स्वामी की स्मृति छूटती ही नहीं । एक की ही शरण में सर्वस्व हो । कहीँ और कुछ चाह नहीं । यहाँ सिद्धि के लिए गीता जी में उनका कथन देखिये -- भजतेमामनन्य भाक् । दूसरे को हिस्सा ना दे । उनके अतिरिक्त कोई शरण देने वाला भी नहीँ । जीवन में भौतिक सुखो की पूर्ति के लिए गुरु या अध्यात्म नहीं ना ही ईश्वर । आज समय ऐसा ही है । संसार के दुःख दर्द को जो मिटा दे वो श्रेष्ठ गुरु और ईश्वर । और बेहतर सुख सुविधा मिल जाएं । संसार के कीचड़ में ना सत् गुरु अपने प्रिय शिष्य को डालते है ना भगवान । आज जो आपको साईकल से मर्सिडीज में लें जाएं वो ही गुरु या ईश्वर । कथित धार्मिक चैनल पर ऐसे ही प्रसारण होते है । साधारण बुद्धि की बात है , भक्ति-अध्यात्म भगवत् सुख के वर्धन के लिए ही है । ना कि संसार में दो दुनी चार के लिए । ये हुआ तो आपने अपनी ही आत्मा को ठगा दिया । आप महल भी खड़े करोगें कल खण्डहर ही होंगे और तब मलबा भर रह जाएंगे । कल के महल आज खण्डहर है और कल मलबा परसों कुछ ना होंगे । सो इस भाव से भजन साधना सही दिशा में ना गई । आसक्ति -भौतिक कामना ना रहे तब ही शरणागति का रस है , यें इसलिये कहा कि अब बहुत सुनने को मिलता है , मैं तो शरणागत हूँ , समर्पित हूँ । और कुछ नए रूप में सरेण्डर हूँ भगवान के आगे । वहाँ कथित शरणागति में कारण है । भौतिक सुख वृद्धि ।
दूसरी बात भगवान में पूर्ण विश्वास हो । शरणागति के बाद कोई भी चिंता रह ही नहीँ जाती । अगर यें भाव हो कि शरण तो हो जाते है पर कुछ तो करना तो होगा ही , जैसा कि कई बार लोग मिलते है कि शरण तो हूँ पर संसार में रहना है तो कुछ तो आज सा होना होगा । ऐसी दशा में शरणागत अपने अनीति के कर्म भी करता रहता है । भ्रष्ट रह कर कैसी शरणागति । कुछ संसार की भ्रष्टता छोड़ी नहीँ जाती तो कैसी शरणागति । अतः शरणागत हो कर पूर्ण विश्वास रहें कि अब और कुछ क़दम चलना ही नहीँ । यहाँ तो रस है , जीवन को नई दृष्टि मिलती है ।
और तीसरी बात शरणागत जहाँ शरण है वहाँ चाह , कोई मांग नहीँ कर सकता । बिलकुल भी कोई भी मांग ना रहे ।
एक और भाव होता है । कि जैसा तैसा हम हुए , भले कितने ही मैले , तो सन्मुख और शरण पा कर पवित्र हो ही जाते उनकी कृपा से विशुद्धि सम्भव ही है । पवित्रता आनी ही है । तब भी हमें यथा सामर्थ्य निर्मलता को पा कर अपनी कलुषता को दूर करना चाहिए क्योंकि प्रेम में उन्हें अपने मैले हृदय पर बैठाने की चेष्ठा कुछ असह्य ही है । उनकी सन्निधि में कोमल होना ही है तब भी हमारे काँटों का ख़याल हमें रहे । अन्तः शुद्धि की चेष्टा हो ।
जो भी पाप - दुराचार - बुराई हमसे होती है उनके कारण है , भोग - कामना - भोग आदि में श्रद्धा , आश्रय । भोगों की शरण्यता में विश्वास ।
जब शरणागति हो जाती है तो शरण्यता में भोगों में आसक्ति ना होने से अन्तः करण निर्मल होने लगता है । शेष आगे । श्यामाश्याम । सत्यजीत तृषित ।
geeta tatv 10
अर्जुन का प्रश्न - 8 ...भाग- 1
अर्जुन पूछते हैं [ गीता-श्लोक ..8-1 , 8.2 ] ---हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है?, अध्यात्म क्या है?, कर्म क्या है? अधिभूत क्या है?, अधिदैव क्या है?, अधियज्ञ कौन है?और वह शरीर में किस तरह है ? तथा अंत समय में आप को कैसे स्मरण करना चाहिए ?
ऐसा प्रश्न वह भी उस समय जब युद्ध के बादल हर पल सघन हो रहेहों , कुछ असामयीक लगता है । इस प्रश्न के सम्बन्ध में हमें गीता के 76 श्लोकों को देखना है [ गीता- 8.3 से 10.16 तक ] । अर्जुन के प्रश्न- 2 एवं 5 में कर्म, कर्म-योग , कर्म-संन्यास तथा ज्ञ्यान की बातें बताई गयी हैं लेकिन कर्म की परिभाषा यहाँ दी जा रही है , क्या यहबात आप को उचित लगती है? अब आप प्रश्न का उत्तर देखिये -------परम कहते हैं ............
परम अक्षर - ब्रह्म है [ अक्षर का अर्थ है सनातन ] , मनुष्य का स्वभाव -अध्यात्म है , जिसके करनें से
भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है , टाइम स्पेस में स्थित सभी सूचनाएं अधिभूत हैं, ब्रह्मा अधिदैव हैं और विकार सहित देह में स्थित आत्मा रूप में विकार रहित परमात्मा अधियज्ञ हैं , अब प्रश्न की आखिरी बात को समझना है जिसको हम अगले अंक में लेंगे ।
सत्यजीत तृषित ।।
====ॐ======
अर्जुन का प्रश्न- 8 , भाग- 2
अर्जुन के प्रश्न - 8 का उत्तर तो प्रथम भाग में मिल चुका है लेकिन प्रश्न एवं उत्तर के रूप में हम यहाँ पूरी गीता देखनें जा रहे हैं अतः इस प्रश्न से सम्बंधित 76 श्लोकों [ श्लोक 8.3---10.16 तक ] को देखेंगे ।
यहाँ इस अंक में हम श्लोक 8.6--8.15 तक को ले रहे हैं । गीता के इन दस श्लोकों में दो बातें प्रमुख हैं ; आत्मा का नया शरीर धारण करना एवं प्राण छोड़ते समय की ध्यान-विधि ।
श्लोक 8.6 , 15.8 : ये दो श्लोक कहते हैं ---आत्मा जब शरीर छोड़ कर गमन करता है तब इसके संग मन भी रहता है और मन में संग्रह की गयी सभी अतृप्त कामनाएं आत्मा को वैसा शरीर धारण करनें के लिए
विवश करती हैं जैसा शरीर उनको चाहिए । गीता कहता है ......आखिरी श्वाश भरनें से पहले अपनें मन कोपूरी तरह से रिक्त करदो जिस से मोक्ष मिल सके । रिक्त मन-बुद्धि का दूसरा नाम चेतना है जिसका सीधा सम्बन्ध ब्रह्म से होता है ।
श्लोक 8.12--8.13 : इन दो सूत्रों के माध्यम से गीता उस ध्यान-विधि को बता रहा है जीसको स्थिर बुद्धि
वाला योगी अंत समय में करता है । जो यहाँ ध्यान-विधि दी जा रही है वैसा ध्यान जैन परम्परा में
भी है तथा तिबत में इसको बार्दो-ध्यान कहते हैं । यह विधि इशावत्स्य उपनिषद में भी देखा जा सकता है।
श्री कृष्ण यहाँ कहते हैं ----मन को ह्रदय में स्थापित करो , प्राण-ऊर्जा को धीरे-धीरे तीसरी आँख पर सरकाओ और ॐ ध्वनी को ऐसे गुनगुनाओ की शरीर के कण-कण से ॐ ध्वनी गूंजनें लगे । ध्यान रखनें की बात यहाँ यह है की यह ध्यान - विधि स्थूल विधि नहीं है , यह भावना आधारित है अतः जबतक भावात्मक रूप से ॐ के माध्यम से प्रभू मय नही हुआ जा
सकता तबतक यह ध्यान फलित नही हो सकता ।
====ॐ======
अर्जुन का प्रश्न - 8 भाग - 3
अर्जुन के प्रश्न - 8 में हम गीता के 76 श्लोकों में से यहाँ सात श्लोकों [ गीता सूत्र 8.16--8.22 तक ] को देखनें जा रहे हैं जिसमें दो अति महत्वपूर्ण बातें आप को मिलेंगी ; पहली बात आज के कोस्मोलोजी [ cosmology ] से है और दूसरी बात वह है जो कल का विज्ञान बन सकता है , इस बात की कल्पना प्रोफेसर आइंस्टाइन एवं हाकिंग भी करते रहें हैं ।
पहली बात
आज की कोस्मोलोजी आइंस्टाइन के उन विचारों पर आधारित है जिसको उन्होंनें 1916-1917 AD में सोचा था ।
गीता की कोस्मोलोजी जो गीता के अध्याय - 8 में है उसके सम्बन्ध में हमें तीन और श्लोकों [ 3.22,13.33,15.6]को भी देखना चाहिए ।
गीता पूरे ब्रह्माण्ड को तीन लोकों में देखते हुए कहता है ---मृत्यु-लोक, देव-लोक तथा ब्रह्म-लोक में ऊर्जा का माध्यम सूर्य है लेकिन इन तीनों लोकों से परे परम धाम है जो स्व प्रकाशित है । परम धाम को छोड़ कर अन्य तीन लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात ये जन्म-जीवन - मृत्यु से प्रभावि़त हैं । आज ये लोक हैं जो धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं और कहीं और बन भी रहें हैं। आज विज्ञान नयी पृथ्वी की तलाश में शनि के चन्द्रमा टाइटन तक जा पहुँची है। वैज्ञानिक देव-लोक एवं ब्रह्म-लोक को यदि तलाशना चाहते हैं तो उनको उस क्षेत्र में देखना चाहिए जहाँ तक सूर्य का प्रकाश फैला है ।
दूसरी बात
गीता कहता है ----मनुष्य एवं अन्य जीवों - वनस्पतियों को ऊर्जा में बदला जा सकता है और उन्हें पुनः
उनके पूर्व स्वरूपों में वापस लाया जा सकता है । हिंदू पौराणिक कथाओं में तो ऎसी अनेक घटनाएँ मिलती हैं पर वैज्ञानिक प्रमाण नही मिलता ।
गीता कोस्मोलोजी के सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण बात कहता है----
वेदों में सृष्टि की अवधि को 4.32 million वर्ष बतायी गयी है और इस अवधि को गीता चारों युगों की अवधि से हजार गुना ज्यादा मानता है । चार योगों में तो मनुष्य के होनें की बात समझा जा सकता है लेकिन चार युगों की अवधि से हजार गुना अवधि में भूत रहते हैं अर्थात किसी न किसी रूप में जीव होते हैं --गीता की यह बात वैज्ञानिक नजरिये से समझना चाहिए जिसमें जीव विकास का राज मिल सकता है ।
विज्ञान कहता है ---पहले एक कोशिकीय जीव बने और उनके विकास के फलस्वरूप मनुष्य का होना हुआ ।
गीता जींव्- विकास का समय 999x चार युगों की अवधि को कहता है इस अवधि में जीव तो होते हैं पर
मनुष्य नहीं होते , यदि आप वैज्ञानिक हैं तो गीता की इस बात को गहराई से देख सकते हैं ।
सत्यजीत "तृषित" ।
=====ॐ=======