Monday, 28 November 2016

4 बातें अवश्य जानने योग्य जो , कृपालु जी महाराज जी

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साधक को चार बातें अवश्य जाननी चाहिए :-

1 - अपना स्वरूप :- मैं ईश्वर का अंश हूँ , देहादि नहीं हूँ।
2 - ध्येय का स्वरूप :- मेरे इष्टदेव (श्री राधा कृष्ण) सच्चिदानन्दस्वरूप हैं।
3 - साधन का फल :- इष्टदेव के प्रति आत्यंतिक अनुराग ही साधन का प्रधान फल है।
4 - साधन का विघ्न :- इष्टदेव के सिवा और सम्पूर्ण प्रपञ्च ही विघ्न है।

संसार में सुख नहीं है। यदि कोई कहीं सुखी दिखाई भी पड़ता है तो वह भी भ्रान्तिमात्र है, क्योंकि सांसारिक सुख अनित्य, सीमित एवं परिणामी होता है। अतः साधक को सांसारिक सुखों का त्याग करना चाहिए।

.....जगद्गुरू श्री कृपालुजी महाराज।
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Sunday, 27 November 2016

अत्रि

अत्रि > ,निरूक्त में अत्रि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है ---"अत्रैव -अत्र एव इति अत्रि: "    अर्थात् जो यहीं रहता है उसका नाम अत्रि है.! संसार मे सम्प्रदाय चलाने वाले जो आचार्य होते है वे दूसरे सम्प्रदाय वाले से लड़ते और उनका दोष भी दिखाते है ,उनमे पूर्णता नहीं होती, पूर्णता होगी भी तो उनकी अन्तरात्मा मे, बाहर मे अपने सम्प्रदाय का ही पोषण होगा.!  किन्तु जो अवधूत होता है, वह किसी संप्रदाय में बंधा हुआ नहीं होता वह अत्रि होता है त्रिगुणातीत होता है -- न त्रि ! सत , रज , तम , इन तीनोँ गुणोँ का जो नाश करे और निर्गुणी बने वही अत्रि है । सत,रज,तम, इन तीनोँ गुणोँ मेँ जीव मिल गया है ।
तर्जनी उंगली जीव भाव बताती है अभिमान बताती है। जीव मे अभिमान प्रधान है। पाँचवी उंगुली सत्वगुण है अँगूठा ब्रह्मा है , इसीलिए पुष्टि सम्प्रदाय मेँ प्रभू को तिलक अँगूठे से लगाया जाता है । जीव और ब्रह्मा का सम्बन्ध सतत् होना चाहिए ।
तीन गुणोँ मे जीव मिलता है , और इन तीन गुणो को त्यागकर जीव ब्रह्म सम्बन्ध करता है । जो त्रिगुणातीत ब्रह्मस्वरुप को प्राप्त हुआ है , वही अत्रि है ।
शरीर मेँ विद्यमान तमोगुण को रजोगुण से दूर करना है , रजोगुण को सतोगुण से मारना चाहिए । रजोगुण काम एवं क्रोध का जनक है । सत्कर्म से सत्वगुण बढ़ता है किन्तु सत्वगुण भी बंधनकारक है इसमे भी थोड़ा अहंभाव रह जाता है । अतः अंत मेँ सत्वगुण का भी त्याग करके निर्गुणी बनना चाहिए ।
  अत्रि की पत्नी का नाम था अनसूया  अर्थात् जिसको किसी में दोष न दिखे ।  अनुसूया शब्द का अर्थ है  अनुसूते  अनुपूर्वक षू धातु   । यदि जीव अत्रि हो तो उसकी बुद्धि अनसूया हो । असूया रहित बुद्धि ही अनसूया है । बुद्धि मेँ सबसे बड़ा दोष असूया मत्सर है । दूसरोँ भला देखकर ईर्ष्या करना , जलना यही असूया या मत्सर है ।
साधुओ की दो  कोटि होती है एक ईश्वर कोटि की दूसरी ब्रह्म कोटि की  । जो किसी संप्रदाय मे होते हैं वेईश्वर कोटि के होते हैं । नियन्ता होते है.!  जो संप्रदाय मे रहकर भी उससे मुक्त हो जाते है वे अवधूत कोटि के ब्रह्म कोटि के हो जाते  है । न किसी संप्रदाय को बढ़ाते है न किसी संप्रदाय की निंदा करते है । दूसरो के दोषो का विचार श्रीकृष्ण दर्शन मेँ बाधक है । बुद्धि मेँ जब तक असूया मत्सर होगा तब तक ईश्वर का चिँतन नहीँ कर सकेगेँ । भगवान का दर्शन सब मेँ करना है । यदि जीव सबमेँ ईश्वर दर्शन करे । तो वह कृतार्थ होता है । जिसकी बुद्धि असूयारहित होती है वही अत्रि बनता है । तत्पश्चात दत्तात्रेय पधारते हैँ । जीव तीन गुणो का त्याग करके निर्गुणी बने और बुद्धि असूयारहित बने तब ईश्वर प्रकट होते हैँ ।।. अत्रि ब्रह्म -कोटि के महात्मा बाद, और उनकी पत्नी अनसूया किसी में दोष नहीं देखती. इसलिए उनके यहाँ ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय. ,एवं महादेव के अंश से दुर्वासा पुत्र रूप मे पधारे.!!!!!

अत्रि

अत्रि > ,निरूक्त में अत्रि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है ---"अत्रैव -अत्र एव इति अत्रि: "    अर्थात् जो यहीं रहता है उसका नाम अत्रि है.! संसार मे सम्प्रदाय चलाने वाले जो आचार्य होते है वे दूसरे सम्प्रदाय वाले से लड़ते और उनका दोष भी दिखाते है ,उनमे पूर्णता नहीं होती, पूर्णता होगी भी तो उनकी अन्तरात्मा मे, बाहर मे अपने सम्प्रदाय का ही पोषण होगा.!  किन्तु जो अवधूत होता है, वह किसी संप्रदाय में बंधा हुआ नहीं होता वह अत्रि होता है त्रिगुणातीत होता है -- न त्रि ! सत , रज , तम , इन तीनोँ गुणोँ का जो नाश करे और निर्गुणी बने वही अत्रि है । सत,रज,तम, इन तीनोँ गुणोँ मेँ जीव मिल गया है ।
तर्जनी उंगली जीव भाव बताती है अभिमान बताती है। जीव मे अभिमान प्रधान है। पाँचवी उंगुली सत्वगुण है अँगूठा ब्रह्मा है , इसीलिए पुष्टि सम्प्रदाय मेँ प्रभू को तिलक अँगूठे से लगाया जाता है । जीव और ब्रह्मा का सम्बन्ध सतत् होना चाहिए ।
तीन गुणोँ मे जीव मिलता है , और इन तीन गुणो को त्यागकर जीव ब्रह्म सम्बन्ध करता है । जो त्रिगुणातीत ब्रह्मस्वरुप को प्राप्त हुआ है , वही अत्रि है ।
शरीर मेँ विद्यमान तमोगुण को रजोगुण से दूर करना है , रजोगुण को सतोगुण से मारना चाहिए । रजोगुण काम एवं क्रोध का जनक है । सत्कर्म से सत्वगुण बढ़ता है किन्तु सत्वगुण भी बंधनकारक है इसमे भी थोड़ा अहंभाव रह जाता है । अतः अंत मेँ सत्वगुण का भी त्याग करके निर्गुणी बनना चाहिए ।
  अत्रि की पत्नी का नाम था अनसूया  अर्थात् जिसको किसी में दोष न दिखे ।  अनुसूया शब्द का अर्थ है  अनुसूते  अनुपूर्वक षू धातु   । यदि जीव अत्रि हो तो उसकी बुद्धि अनसूया हो । असूया रहित बुद्धि ही अनसूया है । बुद्धि मेँ सबसे बड़ा दोष असूया मत्सर है । दूसरोँ भला देखकर ईर्ष्या करना , जलना यही असूया या मत्सर है ।
साधुओ की दो  कोटि होती है एक ईश्वर कोटि की दूसरी ब्रह्म कोटि की  । जो किसी संप्रदाय मे होते हैं वेईश्वर कोटि के होते हैं । नियन्ता होते है.!  जो संप्रदाय मे रहकर भी उससे मुक्त हो जाते है वे अवधूत कोटि के ब्रह्म कोटि के हो जाते  है । न किसी संप्रदाय को बढ़ाते है न किसी संप्रदाय की निंदा करते है । दूसरो के दोषो का विचार श्रीकृष्ण दर्शन मेँ बाधक है । बुद्धि मेँ जब तक असूया मत्सर होगा तब तक ईश्वर का चिँतन नहीँ कर सकेगेँ । भगवान का दर्शन सब मेँ करना है । यदि जीव सबमेँ ईश्वर दर्शन करे । तो वह कृतार्थ होता है । जिसकी बुद्धि असूयारहित होती है वही अत्रि बनता है । तत्पश्चात दत्तात्रेय पधारते हैँ । जीव तीन गुणो का त्याग करके निर्गुणी बने और बुद्धि असूयारहित बने तब ईश्वर प्रकट होते हैँ ।।. अत्रि ब्रह्म -कोटि के महात्मा बाद, और उनकी पत्नी अनसूया किसी में दोष नहीं देखती. इसलिए उनके यहाँ ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय. ,एवं महादेव के अंश से दुर्वासा पुत्र रूप मे पधारे.!!!!!

Saturday, 26 November 2016

गुरुजन आदर से कर्म शक्ति की प्राप्ति

उर्ध्व प्राणा उत्क्रामन्ति यून: स्थविर आयति.!
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते.!!
***********************************
यदि कोई बड़ा -बूढ़ा "गुरूजन ".सामने आ जाता है तो. हम उसके लिए चाहे उठे या न उठे किन्तु हमारे प्राण उसका स्वागत करने के लिए बाहर निकल जाते हैं और यदि हम उठकर प्रत्युत्थान करें, प्रणाम करें तो हमारे प्राण लौटकर आ जाते हैं.!?
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तात्पर्य ------ यदि हम अपने गुरूजनों का आदर नहीं करेंगे, तो हमारी कर्म -शक्ति का लोप हो जायेगा.!
…………………………………………………………………"………………………………………………………"
यदि हम अपने बड़े -बूढों को देखकर खड़े नहीं हो सकते, तो हम कितने आलसी है., उनको प्रणाम नही कर सकते तो हम कितने अभिमानी है.! आलस और अभिमान के कारण क्रिया -शक्ति कहॉ रह सकती है.?  हमारी प्राण -शक्ति तो अपने आप ही लुप्त हो जायेगी.!!
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अत:  हम सभी को अपने गुरूजनों "बड़े -बूढ़ो ".का सम्मान करना ही चाहिए.!!!!!
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निराकार स्वरूप , आभास

जैसे अग्नि निराकार है फिर भी जब लकडी जलती है , तो लकडी जैसा ही आकार अग्नि का भी आभास होता है । उपाधि के कारण आकार का आभास होता है , वैसे ही परमात्मा का वास्तविक स्वरुप निराकार एवं आनन्दस्वरुप है । ( आचार्य शंकर

भावना

>>> भावना <<<
महत्त्व वस्तु का नही ,
भावना का है ।
सद्भावपूर्वक सेवा करने से
ही सेवा सफल होगी ।
सेवा करते समय रोंगटे खड़े
हो जायँ आँखो से
अश्रुधारा बहने लगे ,
तो उसी को सच्ची सेवा समझना चाहिए।
सेवा मात्र क्रियात्मक
ही नहीँ , भावात्मक
भी होनी चाहिए ।
सेवा करते हुए आनन्द मिले,
वही सेवा है । जो भी करेँ ,
प्रेम से करेँ । भगवान के
लिए भोजन
बनाना चाहिए । भगवान
को अर्पित करने के बाद
ही भोजन करना चाहिए।
साथ मे
प्रार्थना करना चाहिए
कि हे नाथ ! आप
तो विश्वंभर हैँ ,सब के
स्वामी हैँ ।आपको कौन
खिला सकता है?
तो भी यह पदार्थ मै
आपको मन से अर्पण
करता हूँ ।
जो ईश्वर का है वही उन्हेँ
समर्पित करना है
" तेरा तुझको अर्पण
क्या लागे मेरा "
यह जीव दूसरा कुछ कहाँ से
लायेगा ? केवल
भावना का मूल्य ।
परमात्मा तो परिपूर्ण
हैँ ,उन्हेँ कोई
अपेक्षा नहीँ है । उन्हे
किसी भी वस्तु
की क्षुधा नहीँ है ।वे
तो मात्र भाव के भूखे हैँ ।
उन्हे जो भाव से अर्पित
किया जायेगा ,वे
उसका कई गुना अधिक
बनाकर ही वापस करेँगे ।
भक्तिमार्ग मेँ भाव के
बिना सिद्धि प्राप्त
नहीँ होगी ।ज्ञान मार्ग
मेँ त्याग और वैराग्य
आवश्यक है ।
सेवा करने से सेवक को सुख
होता है । भगवान
को तो क्या सुख मिलेगा ?
वे तो परमानन्द स्वरुप हैँ
। जीव को देने
वाला तो ईश्वर ही है ,
किन्तु मनुष्य के निवेदन से
वे प्रसन्न होते हैँ ।
"सेवा और पूजा मेँ भेद -
जहाँ प्रेम का प्राधान्य
है , वह सेवा है और
जहाँ वेदमन्त्र
की प्रधानता है वह
पूजा है ।"
पूजा तो प्रेम से
करनी चाहिए ,
अन्यथा स्नेहादि का समर्पण
व्यर्थ ही रहेगा ।
कहीँ हमारे वस्त्र न गंदे
हो जायँ इस डर से हम
मन्दिर मे साष्टांग दंडवत्
-प्रणाम भी नही करते -->
"नर कपड़न को डरत हैँ ,
नरक पड़न को नाहि !!!
!! जय श्रीमन्नारायण !!

कर्म से द्वन्द

मनुष्य कर्म करता है कुछ चाहकर , फल की आशा रखकर और चिरकाल तक तरह तरह की इच्छाओँ से प्रेरित होकर कर्म करता रहता है । कभी कभी जब इच्छाएँ पूरी होने मेँ बाधा पड़ने से और संघर्ष की विकट दशाएँ आ जाने से अथवा मन के अनुकूल फल न मिल पाने पर वह ऊबता है तो कर्म से बिमुख होकर सन्यास ले लेता है या ले लेना चाहता है ।
जब कभी तो वह कर्म करना चाहता है और कभी कर्म से हार मान लेता है । यह है द्वन्द्व जो मनुष्य को थका मारने और पीड़ित करने का कारण । इस दशा मेँ उसके लिए हितकारी होगा कि वह सामने उपस्थित परिस्थितियाँ तथा कर्त्तव्य कर्मो को स्वीकार कर क्रियाशील बना रहे ।।

सुभाषित वाणी

कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी ;कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति ।
शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां धेनुं धीरा: सूनृतां वाचमाहु: ।।

_________________________________________________

धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं  प्रिय  (सुभाषित) वाणी को शुद्ध ,शान्त एवं  मंङ्गलों की माता रूपी गाय की संज्ञा दी है , जो इच्छाओं  को दुहती अर्थात् पूर्ण करती  है , दरिद्रता को हरती है ,कीर्ति (यश) को जन्म देती है एवं पाप का नाश करती है । इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली बताया गया है !!

Friday, 25 November 2016

नित्य कृतज्ञता प्रकट हो , योगानन्द जी

प्रत्येक दिन जीवन के उपहारों के लिये कृतज्ञता प्रकट करने का दिन होना चाहिये : सूर्य का प्रकाश, जल, तथा रसीले फल एवं सब्जियाँ, जो उस परम दाता के परोक्ष उपहार हैं। ईश्वर हमसे काम करवाते हैं, ताकि हम उन उपहारों को प्राप्त करने के अधिकारी बनें। उन सर्वेश्वर को हमारी कृतज्ञता की आवश्यकता नहीं होती, चाहे वह हृदय की कितनी ही गहराई से आये, परन्तु जब हम उनके प्रति कृतज्ञता का अनुभव करते हैं, तब हमारा मन समग्र निधि के उस परम स्रोत पर एकाग्र हो जाता है। इसमें हमारा अपना ही कल्याण है।
-----------श्री श्री परमहंस योगानन्द

संतवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज

वाणीसे कटु मत बोलो, सेवा हो गई । अहितकर नहीं बोलोगे, तो हितकर बोलोगे । अनावश्यक न बोलोगे, तो आवश्यक बोलना, कहना, समझना, सब शरीरके द्वारा ही होगा । पर इस तरह शरीरका उपयोग दूसरोंके अहितमें नहीं होगा ।

अहितमें कब होगा ? अपने सुखके लिए शरीरको काममें लेनेसे । अर्थ यह है कि शरीरका उपयोग अपने सुख-भोगमें नहीं करना है । शरीरकी सेवा क्या है ? आहार-विहारका संयम, सदाचार व मर्यादापूर्वक चलना ।

*विचार कीजिये...🤔*
*_जब हमारा जन्म हमारी मर्जी से नहीं होता और मरण भी हमारी मर्जी से नहीं होता, तो इस जन्म-मरण के बीच में होने वाली सारी व्यवस्थाएं हमारी मर्जी से कैसे हो सकती हैं_ ???*
✍🏻.........

कान्हा, मेरे  मन की  सी मत करियो।
जो लागे तोहे हित मेरे,सो तू करियो।।
कान्हा मेरे मन---------
मन छलिया, ना माने तनिक ये मेरी।
भरोसा यापे कभी, मत  तू करियो।।
कान्हा मेरे मन---------
बीती उमरिया, कल कल करते याकी।
मन कहवे, तनिक तू धीरज धरियो।।
कान्हा मेरे मन---------
श्यामा श्याम रसायन, दोउ हितकारी।
ठूंस ठूंस सो मन भीतर तू भरियो।।
कान्हा मेरे मन-------
जो लागे तोहे--------
🙏🏼🙏🏼🙏🏼

प्रभु में विश्वास रखिये , योगानन्द जी

आप सोचते हैं कि आपके पास यह या वह वस्तु होना ही चाहिये और तभी आप सुखी होंगे। परन्तु आपकी चाहे जितनी भी इच्छायें क्यों न पूर्ण हो जायें, आप उनके द्वारा कभी सुखी नहीं होंगे। आपके पास जितना अधिक होगा, उतने ही अधिक की आपको चाह होगी। सादगी से जीना सीखिये। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है : “उसका मन सदा तृप्त रहता है जिसकी इच्छायें सदा अन्तर्मुखी होती हैं। वह मनुष्य एक अपरिवर्तनशील सागर के समान है जो निरन्तर उसमें मिलती जलधाराओं से लबालब भरा रहता है। जो अपनी शान्ति के जलाशय में इच्छाओं के छिद्र कर शान्ति के जल को बाहर बह जाने देता है, वह मुनि नहीं है।”

प्रभु से यह कहना कि हमें कुछ चाहिये अनुचित नहीं है; किन्तु यह और अधिक विश्वास दर्शाता है यदि हम केवल इतना ही कहें : “परमपिता! मैं जानता हूँ कि आपको मेरी हर आवश्यकता का पहले से ही पता है। अपनी इच्छानुसार आप मेरा निर्वाह करें।”

प्रत्येक वस्तु का अपना स्थान होता है, परन्तु जब आप अपने सच्चे सुख की उपेक्षा कर समय गंवाते हैं तो यह अच्छा नहीं। मैंने प्रत्येक अनावश्यक कार्य को छोड़ दिया ताकि मैं ध्यान करके ईश्वर को जान सकूँ; ताकि मैं दिन और रात उनके दिव्य चैतन्य में मग्न रह सकूँ।

ईश्वर के साथ समरस होना और उनमें पूर्ण विश्वास रखना, जहाँ भी वे आपको रखें और आपके साथ जो भी करें उसी में सन्तुष्ट रहना, सब कुछ नम्रता एवं भक्ति से स्वीकार करना, अत्यंत अद्भुत होता है।

भक्ति विकसित करो। जीसस के शब्दों को याद रखो : “हे परमपिता, आपने इन सब बातों को ज्ञानियों और बुद्धिमानों से छिपा कर रखा, तथा अबोध बच्चों पर प्रकट किया है।”

याद रखिये, आपकी इच्छा में ईश्वर की इच्छा समाहित है। अपने हृदय में आपको ईश्वर से अधिक और किसी भी वस्तु से प्रेम नहीं करना चाहिये। प्रभु “ईष्र्यालु” हैं। यदि आप ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपके पास उन्हें पाने की इच्छा के सिवा अन्य सब इच्छाओं को निकाल फेंकने की इच्छा - शक्ति होनी चाहिये।

प्रभु कहते हैं : “जो शरीर, मन और आत्मा में मुझे सर्वव्यापी नित्य - नवीन आनन्द — ध्यान के नित्य बढ़ते परमानन्द — के रूप में जानने के लिये संघर्ष, प्रार्थना, एवं ध्यान करता है, मेरे उस पुत्र की भक्तिमय पुकार का मैं मौन एवं गहन रूप से प्रत्युत्तर देता हूँ।”
--------- श्री श्री परमहंस योगानन्द

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।

🙏🏼 *||ॐ||* 🙏🏼

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये।।
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनहिं दई है।।
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं।।
करम-कपीस बालि -बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं।।
महा मोह-रावन बिभीसन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं।।

_________
भावार्थ---
_________

  हे कृपासागर! किसी भी तरह मेरी ओर देखो। मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है, एक तुम्हारा ही पक्का आसरा है। मेरी बुद्धि हजार शिलाओं से भी अधिक जड़ हो गयी है। अब मैं उसे चैतन्य करने के लिए किससे कहूँ? तुम्हारे सिवा जड़ पत्थरों को किसने मुक्त किया है?

जिस प्रकार महर्षि विश्वामित्र ने तुम्हारी देख-रेख में निर्विघ्न यज्ञ किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे चरणों में प्रेमरूपी एक यज्ञ करना चाहता हूँ। किन्तु कलि के पापरूपी दुष्टों को देखकर मैं बहुत ही भयभीत हो रहा हूँ।

  कुटिल कर्मरूपी बन्दरों के बलवान राजा बालि से मैं बहुत डर रहा हूँ, सो हे अनाथों के नाथ! जैसे तुमने बालि को मारकर सुरत रूपी सुग्रीव को निष्कंटक कर दिया था, उसी प्रकार मैं भी आपकी छत्रछाया में बसना चाहता हूँ। इन कठिन कर्मों से बचाकर आप मुझे अपना लीजिये।

जैसे मोहरूपी रावण ने जीवरूपी विभीषण पर प्रहार किया था , उसी प्रकार मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है; हे स्वामी ! मैं संसार के तीनों तापों से जला जा रहा हूँ, मेरी रक्षा करो! रक्षा करो!!

*||ॐ श्री परमात्मने नमः||*
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भक्ति-पावनत्व भागवत धर्म सार , तृषित

भक्ति-पावनत्व

1. मय्यर्पितात्मनः सभ्य ! निरपेक्षस्य सर्वतः।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम्।।
अर्थः
हे साधो उद्धव ! सर्वथा निष्काम बने और मुझे आत्मसमर्पण कर मुझसे आत्मस्वरूप हुए पुरुषों को जो सुख मिलता है, वह विषयों में डूबे मनुष्यों को कहाँ मिल सकेगा?

2. अकिंचनस्य दांतस्य शांतस्य समचेतसः।
मया संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः।।
अर्थः
पूर्ण अपरिग्रही, इंद्रियजयी, शांत, समदर्शी और मेरी प्राप्ति से संतुष्ट-चित्त मेरे भक्त के लिए दसों दिशाएँ सुखमय होती हैं।

3. न पारमेष्ठयं न महेंद्र-धिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योग-सिद्धीर् अपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छिति मदुविनान्यत्।।
अर्थः
मुझे आत्मसमर्पण करने वाला मेरा अनन्य भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मलोक, महेंद्रपद, सार्वभौमत्व, पाताल का आधिपत्य, अनेक योग सिद्धियाँ या मोक्ष तक- किसी की भी अभिलाषा नहीं रखता।

4. निरपेक्षं मुनि शांतं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः।।
अर्थः
निष्काम, शांत, निर्वैर और समदृष्टि मुनि की चरण-धूलि से मैं पवित्र होऊँ, इसलिए (उनके कदम पर कदम रखते हुए) सदैव उनके पीछे-पीछे चलता रहता हूँ।

5. निष्किंचना मय्यनुरक्त चेतसः
शांता महांतोऽखिल-जीव-वत्सलाः।
कामैरनालब्ध-धियो जुषन्ति यत्
तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम॥
अर्थः
किसी भी उपाधि अर्थात संग्रह से रहित, मुझमें अनुरक्त-चित्त, शांत, विशाल हृदय, सब प्राणियों पर प्रेम करने वाले, किसी भी प्रकार की वासना से अस्पृष्ट-बुद्धि मेरे भक्त जिस निरपेक्ष सुख का अनुभव करते हैं, वह दूसरों की समझ में नहीं आ सकता।

6. बाध्यमानोऽपि मद्भक्तो विषयैरजितेंद्रियः।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर् नाभिभूयते॥
अर्थः
मेरा जो भक्त इंद्रियों पर विजय नहीं पा सका है और इसी कारण विषय जिसे बार-बार परेशान करते हैं, (उसकी) मुझमें दृढ़ भक्ति होने पर साधारणत: विषय उसे नहीं सताते।

7. भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि संभवात्॥
अर्थः
सज्जनों का अत्यंत प्रिय और उनकी एकमात्र आत्मा में केवल श्रद्धापूर्ण एकनिष्ठ भक्ति से ही वश होता हूँ। मेरी अनन्यभक्ति चांडालों को भी उनके हीन जन्म-कुल से पावन कर देती है।

8. कथ विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनंदाश्रु-कलया शुद्धयेद् भक्त्या विनाऽऽशयः॥
अर्थः
जब तक शरीर पुलकित नहीं हो उठता, हृदय गद्गद नहीं हो जाता, नेत्रों से आनंदत के अश्रु छलकने नहीं लगते, भक्ति नहीं होती, तब तक (मलिन) हृदय शुद्ध कैसे होगा?

9. वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचित् च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्ति-युक्तो भुवनं पुनाति॥
अर्थः
प्रेम से जिसकी वाणी गद्गद हो गयी है, चित्त प्रेमार्द्र हो गया है, प्रेम के अतिरेक से जो लगातार आँसू बहाता है, कभी हँसता है, तो कभी लाज छोड़कर ज़ोर-ज़ोर से गाता-नाचता है, ऐसा मेरा भक्त सारे जगत को पवित्र करता है।

10. यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम्।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद्भक्ति-योगेन भजत्यथो माम्॥
अर्थः
जैसे आग में डालकर तपाया हुआ सोना अपना मैल त्यागकर पुनः अपना असली निखरा रूप प्राप्त कर लेता है, वैसे ही मेरे भक्त की आत्मा मेरे भक्तियोग से कर्म वासना (यानि चित्त का मैल) धुल जाने पर तत्काल मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।

11. यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथा-श्रवणाभिधानैः।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर् यथैवांजन-संप्रयुक्तम्॥
अर्थः
मेरी पुण्य-गाथाओं के श्रवण और कीर्तन से ज्यों-ज्यों आत्मा निर्मल होती जाती है, त्यों-त्यों अंजन डालने पर आँखों को जिस तरह गुप्त बातें दीखने लगती हैं, उस तरह मेरे भक्त को सूक्ष्म यानि इंद्रियों से अगोचर परमात्म-वस्तुएँ दिखाई पड़ने लगती हैं।

12. विषयान् ध्यायतश् चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश् चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥
अर्थः
विषयों का ध्यान करने वाला चित्त विषयों मे आसक्त हो जाता है। इस तरह दिन रात मेरा चिन्तन करने वाले का चित्त मुझमें ही लीन हो जाता है।
13. तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्न-मनोरथम्।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद्भाव-भावितम्॥
अर्थः
इसलिए स्वप्न-मनोरथों की तरह रहने वाली मिथ्याभूत असत वस्तुओं का चिन्तन छोड़कर श्रद्धायुक्त भक्ति से भरा अपना चित्त मुझमें सुस्थिर कर दो।
"तृषित"