Friday, 10 June 2016

मैं कौन हूँ , ओशो

आकाश बनो। निर्विचार बनो
    
एक ही प्रश्न है सार्थक पूछने जैसा—मैं कौन हूं?

पूछे जाओ, पूछे जाओ, पूछे जाओ...

तीर की तरह चुभने दो इस प्रश्न
को—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

और बहुत उत्तर राह में आयेंगे, कोई उत्तर स्वीकार न करना। एक किनारे से कुरान बोलेगा कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप! एक तरफ से गीता बोलेगी कि तुम कौन हो। कह देना कि चुप। एक तरफ से वेद बोलेंगे, धम्मपद बोलेगा। कह देना, चुप। सुनना ही मत शास्त्रों की।

और ऐसा नहीं कि शास्त्र गलत कहते हैं। शास्त्र बिलकुल सही कहते हैं। मगर तुम शास्त्र की सुनना मत; अन्यथा तुम अपनी सुनने से वंचित रह जाओगे।

तुम तो चले जाना भीतर और भीतर... और इंकार करते जाना थोथे ज्ञान को, जो तुमने सीख लिया बाहर से—पंडित से, मौलवी से, पुरोहित से। कह देना नहीं, मुझे जानना है। मुझे स्वयं ही जानना है। मैं अपना ही जानूंगा तो मानूंगा, अन्यथा कुछ न मानूंगा।

हटा देना सब शास्त्र। चले जाना भीतर। हो जाना बिना शास्त्र के, बिना विचार के। एक ऐसी घड़ी आयेगी, प्रश्न ही गूंजता रह जायेगा, कोई उत्तर न उठेगा। मैं कौन हूं?...

और कोई उत्तर न आयेगा। समझना, आधी यात्रा पूरी हो गयी, अब सब उत्तर गिर गए। बासे, सिखाए गए पढ़ाए गए, तोतों की तरह रटे गये... ग्रामोफोन रिकार्ड सब छूट गए पीछे। अब सिर्फ तुम्हारा प्रश्न बचा है—मैं कौन हूं?

यह आधी यात्रा। एक कदम पूरा हो गया—और बड़ा कदम पूरा हो गया! असली कदम पूरा हो गया। दूसरा कदम तो बहुत आसान है।

अब पूछते जाना. मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?

और तुम चकित हो जाओगे, एक घड़ी आयेगी, प्रश्न भी छूट जायेगा। ऐसा सन्नाटा खिचेगा कि प्रश्न भी बनाये न बनेगा। चाहोगे भी पूछना, तो न पूछ सकोगे।

पहले उत्तर गिर जायेगे—बासे, सिखाये, शास्त्रों से पढे। फिर प्रश्न गिर जायेगा। और जहां न प्रश्न है न उत्तर है, वहीं उत्तर है!

अब प्रश्न भी नहीं कि मैं कौन हूं! लेकिन तुम जागोगे और देखोगे। तीर जगा गया। तीर छिद गया हृदय में। उसकी पीड़ा तुम्हें चौंका गयी, उठा गयी, तोड़ गई तंद्रा, छूट गयी नींद, हो गयी सुबह। और तब तुम आंख खोल कर देखना।

तब तुम चकित हो जाओगे; यह जगत उसी का जगत है! इसके पत्ते—पत्ते पर उसी की छाप है! इसके कण—कण पर उसी का हस्ताक्षर है! और फिर गीता पढ़ना। फिर कुरान गुनगुनाना। और तुम हैरान हो जाओगे, जो तुमने जाना है, वही कुरान है। जो तुमने जाना है वही गीता है। अब गीता और कुरान और धम्मपद और बाइबिल, सब तुम्हारे गवाह हो गये।

मेरी ये बातें पंडितों को, मौलवियों को बड़ा कष्ट दे जाती हैं। और मैं यह कह रहा हूं कि तुम असली कुरान कैसे पाओ, तुम्हारे भीतर असली कुरान की आयत कैसे उठे। मैं तुम्हें असली कुरान खोजने की कुंजी दे रहा हूं।

मगर जो कुरान रटकर बैठा है उसे तो अड़चन लगेगी। वह तो कहेगा कि मैंने कहा, कुरान की आवाज आये तो मत सुनना; कह देना चुप रहो। यह तो अपमान हो गया कुरान का। समझोगे या नहीं समझोगे?

मुझ से ज्यादा किसी ने प्रेम किया होगा कुरान को, उपनिषद को, गीता को, बाइबिल को? मुझसे ज्यादा किसी ने स्मरण किया है मुहम्मद का, महावीर का, बुद्ध का, क्या का, क्राइस्ट का?

लेकिन फिर भी मैं तुम से कहता हूं : राह पर जब तुम्हें बुद्ध और कृष्ण और क्राइस्ट और मुहम्मद मिलें, हटा देना, कहना, हट जाओ मार्ग से; रास्ता दो। मुझे जाने दो। मुझे रोको मत, मुझे अटकाओ मत। मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंच जाने दो।

मैं तुम्हें भी तभी जान पाऊंगा जब मैं अपने पर पहुंच गया हूं। उसके पहले तुम बासे हो, उधार हो। उसके पहले मैं तुम्हें खाक समझूंगा! तुम कुछ कहोगे, मैं कुछ और समझूंगा। तुम सत्य कहोगे, मैं शब्द पकड लूंगा। जब तक तुम्हारी जैसी ही भाव—दशा मेरी न हो जाये।

जैसे मुहम्मद के निर्जन निवास में पहाड़ पर एक दिन कुरान उतरी..। जैसी दशा मुहम्मद की उस दिन थी जिसमें कुरान उतरी, जब तक तुम्हारी न हो जाये, तब तक तुम कुरान को न जान पाओगे। गीता को जानना हो, तो कृष्ण जैसा चित्त चाहिए।

अर्जुन भी हो गये, तो भी न जान पाओगे। अर्जुन, देखो कितना विवाद कर रहा है कृष्ण से; नहीं समझ पा रहा है। अर्जुन इतने निकट है, इतना मित्र, संगी—साथी है बचपन का। एक—दूसरे के साथ खेले हैं। एक—दूसरे के साथ मिले—जुले हैं, मैत्री है; मगर फिर भी अर्जुन नहीं समझ पा रहा है।

कृष्ण कुछ कहते हैं, अर्जुन कुछ पूछे चला जाता है।
तुम कैसे समझोगे—तुम जो इतने दूर हो? हजारों सालों का फासला है तुम्हारे और कृष्ण के बीच—भाषा का, भाव का, विचार का, संस्कार का, संस्कृति का, समाज का, इतना लंबा फासला..।

अर्जुन नहीं समझ पा रहा है, तुम कैसे समझ पाओगे? नहीं, तुम कुछ का कुछ समझ लोगे।
कृष्ण—चेतना तुम्हारे भीतर पैदा हो, तो ही तुम गीता समझ पाओगे। और मुहम्मद जैसा भाव तुम्हारे भीतर हो, तो तुम्हारे भीतर भी कुरान उतरेगी।

कोई मुहम्मद पर ही परमात्मा की विशेष कृपा थोड़े ही है। परमात्मा किसी पर विशेष कृपा नहीं करता; उसकी अनुकंपा समान है। सब पर एक जैसी बरस रही है। जो खाली हैं वे भर जाते हैं, जो भरे हैं वे खाली रह जाते हैं—बस इतना ही खयाल रखना।

वर्षा होती है पहाड़ों पर भी, लेकिन पहाड़ —खाली रह जाते हैं, क्योंकि भरे हैं। झीलों में भी वर्षा होती है, लेकिन झीलें भर जाती हैं, क्योंकि खाली हैं।
शून्य हो जाओ पहले तो भर जाओगे। मगर तुम्हारा कुरान, तुम्हारी गीता, तुम्हारी बाइबिल, तुम्हारे वेद भरे हैं। तुम पहाड़ बने बैठे हो—ज्ञान के पहाड़! उसी से तुम अज्ञानी हो। हटाओ इन पहाड़ों को। इन पहाड़ों की ओट में अपने अज्ञान को छिपाओ मत। अपने अज्ञान को नग्न करो, निर्वस्त्र करो। खोल दो उसके सामने अपने सारे घावों को। खाली हो तो खाली सही; जैसे भी हो उसके हो। सूने हो, शून्य हो, शून्य सही; जैसे भी हो उसके हो। अपने शून्य पात्र को उसके सामने कर दो।

और तुम तत्‍क्षण भर जाओगे उसकी रोशनी से। और वही रोशनी प्रमाण बन जायेगी सारे शास्त्रों का। उसी रोशनी में तुम्हारे भीतर शास्त्र का जन्म शुरू हो जायेगा।

शास्त्र तो रोज पैदा होते हैं; जब भी कोई ध्यान को उपलब्ध होता है तभी शास्त्र पैदा हो जाते हैं। जैसे गंगोत्री से गंगा निकलती है, ऐसे समाधि से शास्त्र निकलते हैं,

!! ओशो !!

[ मरो है जोगि मरो.प्रवचन-15 ]

2 comments:

  1. इस प्रश्न को पूछने के दौरान अंदर अंधेरा महसूस होता शरीर का अहसास खत्म होने लगता है बड़ी घबराहट महसूस होती जिससे मैं तुरंत आंख खोलकर वास्तविक जगत में आ जाता हूं । इसमें आगे कैसे बढ़ा जाये?

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