ईश्वर ने एक ही कृति ऐसी की जिसके जीवन पथ पर सादा सड़क नहीँ , कई चौराहे है ।।
और यह स्वतन्त्रता भी की किस पथ पर जाना ।
इसे विवेक कहते है । चौराहे पर सही चुनाव ।
विवेक का सदुपयोग आवश्यक पथ पर ले जाता है , दुरपयोग अन्य पथो पर ।
एहसास तो हो जाता है , मैंने गलत चुनाव किया , अब इस गलत चुनाव की भावना से व्याकुलता हो अपने सच्चे पथ की , तब आप ही के चुने पथों पर फिर चौराहे आते , फिर विवेक के लिये अवसर आते । यह कितनी दिव्य घटना है । हम कीचड़ में गिरे विवेक के दुरपयोग से फिर भी व्याकुलता के कारण अवसर मिला विवेक का ।
जब विवेक का सदुपयोग होने लगे, तब स्वतः भगवत् शरणागति का पथ खुल जाता ।
मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीव भगवान पर निर्भर और शरणागत है । पर बोध और विवेक के अभाव में भगवत्कृपा को अनुभूत् नहीँ कर पाते । वरन् वास्तविक रस में है ।
भगवत् विधान पर ही जी है । और यही मानव को करना है पर उसके साथ बुद्धि जुड़ गई , और उसका होना स्वतः होता इससे भाव हट करने से होगा इस पर आ गया ।
मनुष्य के अतिरिक्त सब होने पर निर्भर मनुष्य करने से सिद्धि समझता ।
मनुष्य के लिये करने का अर्थ परिस्थिति में विवेक का सदुपयोग करने से है , उसी में उसका हित है , शेष होने दिया जावें ।
मनुष्य भगवान के होने को होने देता नहीँ , और उनके विधान से विपरीत ही प्रार्थना बना कर बार बार करता और अपनी व्यर्थ पतन की इच्छा पूर्ति को ही भक्ति भी समझता है ।
जबकि भगवान से अधिक हमारा हित और कल्याण कौन समझता है । हित - कल्याण भगवान के ही नाम तो है और मंगल ही उनका विधान । अमंगल्यता या तो है ही नहीँ केवल भ्रम हमारा , अथवा हमने स्वयं भगवत् इच्छा में अपनी अनावश्यक कामनाओं की माला बना कर भगवान को ही पहना दी और भगवान के कई संकेतों बाद भी अपने मन की करी ना कि आत्मा से निकलते विवेक के स्वर को सुना ।
अहम् की पुष्टि को भक्ति नहीँ कहते । -- सत्यजीत तृषित
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