यह चेतन का वृत्त्यारूढ़ होना क्या है? यह एक कल्पित स्थिति है। जैसे स्वप्न का रोग स्वप्न की ही औषधि से मिटता है, वैसे ही सृष्टि की कल्पना के कारण जो अन्त:करण की कल्पना करके उससे कल्पित रूप से तादात्म्यापन्न हो गया है, वह उस कल्पित अन्त:करण की कल्पित वृत्ति में कल्पित ब्रह्म की कल्पना करके इस तादात्म्य से मुक्त होता है। ब्रह्म कल्पना का विषय कभी बनता ही नहीं, अत: वृत्ति में आया ब्रह्म कल्पित ही होता है; किन्तु यह कल्पित ब्रह्माकार वृत्ति सकल अनर्थ की निवर्तिका है।
श्रुति-शास्त्र-सन्तवाणी मात्र सप्रयोजन हैं। यह प्रयोजन सृष्टि में-संसार में है और सप्राण मानव के लिए- शरीरधारी के लिए है। इस स्तर पर सृष्टि, शरीर, संसार- इस सबको सत्य मानकर ही साधक को चलना पड़ता है। अन्यथा प्रयोजन-पूर्ति के पश्चात तो जैसे शरीर तथा संसार का बोध होता है, शास्त्र का भी बोध हो जाता है।
इस शरीर एवं संसार को सत्य मानकर ही हम अनन्तकाल से व्यवहार कर रहे हैं। इसी में जन्म-मरण है। इसी में सुख-दु:ख हैं और इसी के सुख-दु:ख, जन्म-मरण के बंधन से छुटकारे का साधन शास्त्र बतलाते हैं। अब सामान्य चेतन को छोड़ दें तो इस संसार में दो चेतन और स्पष्ट हैं। एक शरीर में-अन्त:करण में अभिमान करने वाला जीव चेतन। यही जन्म-मरण के बंधन में पड़ा है। यही सुख-दु:ख का भोक्ता है और इसी को साधन करके मुक्त होना है।
'कार्यकरणकर्त्तृत्त्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
पुरुष: प्रकृतस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर:।।'
इस सृष्टि का संचालक एक चेतन है। वह सृष्टि में व्यापक रहता भी इससे परे है और इस शरीर में- अन्त:करण में ही वह अन्तर्यामी रूप से स्थित है। वह महेश्वर उपद्रष्टा है, अनुमन्ता है। वस्तुत: वही भर्ता और भोक्ता भी है। वह अन्तर्यामी अन्त:करण में होकर भी केवल उपद्रष्टा है। वह अन्त:करण का मुख्य द्रष्टा नहीं है और अन्त:रण में तादात्म्यापन्न होकर कर्त्ता भी नहीं बना है। कर्त्ता तो है प्रकृति। अन्त:करण और बहि:करण दोनों प्रकृति के कार्य हैं। अत: इन्द्रियों से या मन से जो कुछ होता है, सब कार्य प्रकृति के गुणों से ही होता है।
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