Thursday, 2 June 2016

भक्ति के भेद और प्रेमाभक्ति के पाँच स्तर

भक्ति के भेद और प्रेमाभक्ति के पाँच स्तर
भक्ति के कई भेद हैं - सामान्य भक्ति, श्रीकृष्ण में कर्मार्पणादिरूप आरोपसिद्धा भक्ति, कर्ममिश्रा-ज्ञानमिश्रा आदि संगसिद्धा भक्ति, अकिंचना या केवला स्वरूपसिद्धा भक्ति आदि। इनके प्रकार बहुत-से हैं - नवधा, एकादशधा, शतधा, सहस्त्रधा आदि। जो लोग कर्म, ज्ञान तथा योग आदि की भाँति भक्ति को साधन का अंग मानते हैं, वे अपने-अपने स्तर के भावानुसार मोक्ष तक को प्राप्त हो सकते हैं, परंतु उन्हें पञ्चम पर पुरुषार्थरूप ‘भगवत्प्रेम’ की प्राप्ति नहीं होती। उनकी वह साधन-भक्ति सकाम होने पर भोगप्रदायिनी और निष्काम होने पर अन्तःकरण की शुद्धि के द्वारा मोक्षप्रदायिनी होती है।
प्रेमरूपा भक्ति के पाँच स्तर हैं - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। आनन्दस्वरूप निर्विशेष ब्रह्म में शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है, परमात्मा में शक्ति का आंशिक विकास होने के कारण वहाँ ह्लादिनी चित-शक्ति का भी अस्तित्व किंचित प्रकट है। अएतव ‘शान्त’ भक्त भगवान में ममतायुक्त न होने पर भी सामान्य रूप से माधुर्य का अनुभव करता है, पर उसकी यह साधारण माधुर्य की अनुभूति भगवान के ऐश्वर्यज्ञान को ढक नहीं सकती - यहाँ तक कि श्रीवैकुण्ठ का जो माधुर्यानुभव है, उसमें भी ऐश्वर्य की अनुभूति प्रत्यक्ष प्रकट रहती है। माधुर्यभाव के साधन से ही उत्पन्न प्रेमविशेष ही वास्तविक माधुर्य का अनुभव है। यही सर्वोत्तम रसास्वादन है। इस माधुर्य-रसास्वादन में ऐश्वर्यादि का अनुभव सर्वदा अदृश्य हो जाता है। श्रीवैकुण्ठ से लेकर द्वारका तक सभी धामों में माधुर्य के साथ ऐश्वर्य का पूर्ण प्रकाश है। यद्यपि उसमें कुछ तारतम्य है और इसी ऐश्वर्यशून्य माधुर्य के विकास की दृष्टि से ही प्रेमीजन द्वारका में श्रीकृष्ण को पूर्ण, मथुरा में पूर्णतर और व्रज-गोकुल में पूर्णतम कहते हैं।

कृष्णस्य र्पूणतमता व्यक्ताभूद् गोकुलान्तरे।
पूर्णता पूर्णतरता द्वारकामथुरादिषु।।[1]
इसका कारण यह है कि व्रज की लीला में श्रीकृष्ण के माधुर्य का पूर्ण प्रकाश है। यहाँ भगवान ‘देव’ नहीं हैं, ‘नर-मनुष्य’ हैं, अखिलब्रह्माण्डाधिपति परमेश्वर नहीं है - ‘निजजन’ हैं। भगवान यहाँ ‘नरवपु’ में नरलीला करते हैं। अवश्य ही यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि भगवान की यह ‘नरलीला’ प्राकृत नर-लीला - कर्मजनित पाञ्चभौतिक जडदेहसम्पन्न जीव के कर्मविशेष नहीं है। यह नराकृति नित्य सत्य सच्चिदानन्द-परमब्रह्म की स्वरूप लीला हैं। यहाँ जड माया का राज्य नहीं है, भगवत्स्वरूपा चिच्छक्ति योगमाया का साम्राज्य है - विशुद्ध प्रेम, अनन्य प्रीति, एकमात्र शुद्ध माधुर्य का राज्य है। वैसे तत्त्वतः भगवत्स्वरूप में पूर्ण, पूर्णतर और पूर्णतम का कोई भेद नहीं है। उनका कोई भी स्वरूप खण्ड, अपूर्ण, जड वस्तुओं की भाँति परस्पर भिन्न या प्रतियोगी नहीं है। वे नित्य ही सम रूप से पूर्ण हैं। श्रुति में कहा है -

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
माधुर्यादि गुणसमूह के प्रकाश के तारतम्य की दृष्टि से ही उन्हें पूर्णतम, पूर्णतर और पूर्ण कहा गया है, जो लीला-साम्राज्य में सार्थक और यथार्थ है।

जयजय श्यामाश्याम ।।

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