Thursday, 16 June 2016

भगवत् कृपा और भगवान की मर्ज़ी

भगवत् कृपा -- यह शब्द नहीँ , भगवान के अन्तरंग प्रेमियों का जीवन है । जीवन ओषधि है । और मर्म है , सार है उनकी श्वांस - श्वांस का ।
कृपा से जो सब हो सो हो यह बात जीवंत होना अर्थात् कृपा का दर्शन हो गया ।
कृपा क्या है ? भगवान की शक्ति , उनका विधान , उनके अनुकूल जो भी हो वह । कृपा दिखाई देवे तो कृपा करने वाले भी समीप ही है , संग ही है । वरन् कृपा दिखती नहीँ । कृपा अहंकार के होने तक नहीँ दिखेगी । अहंकार गया , कर्मफल का बोध हुआ , अपने करने या ना करने का सही ज्ञान भीतर हुआ कि सब हो ही रहा है , करना नहीँ पड़ता । करना ही कृपा को दिखने नहीँ देता , और ना करने अथवा करने पर ना करने का अकर्ता भाव , जो हो रहा उसे प्रकट करती । सब कृपा तब होता । कामना या इच्छा कृपा दर्शन की बाधक है , वह स्वभाविक विधान को नियंत्रण करना चाहती है । कृपा तो नित्य है , सदा । प्रतिकूलता में कृपा का दर्शन होने लगे तब जीवन भगवत् रस में ही है । अनुकूलता में कृपा दर्शन भगवान से आंतरिक पृथकता और कही न कही स्व सिद्धि भावना को कहती ।
आंतरिक मिलन होने पर बाहरी प्रतिकुलता अनुभूत् नहीँ होती । केवल सरस मधुर कृपा ही वहाँ होती । अतः प्रतिकूलता में भगवत्कृपा को ही पाना सच्चे तप और भजन का समुचित स्वभाविक फल है ।
प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिवर्तन की चाह भी कृपा दर्शन नहीँ चाहती , मनुष्य को एक चुनाव करना है अपनी समझ की अनुकूलता अथवा नित् भगवत् कृपा दर्शन ।
भगवान के सरस प्रेमी तो नित् पल बाहर कैसी भी स्थिति में कृपा रस में ही डूबे है ।
परन्तु शेष प्रयासरत् और जगत् कृपा का दर्शन नहीँ कर पाता , जिसका कारण भोगमयी कामना है ।
कामना से विराम का एक क्षण ही कृपा रस में डूबा होगा । मानव जिस जीवन की सदा से चाह करता रहा है वह चाह रहित भगवत् विधान अनुकूल कृपा रस में डूबा जीवन ही है । इस स्थिति में रोम - रोम जी उठता है । कृपा दर्शन की आतुरता में बाहरी और भीतरी अभिन्नता होने लगती है ।
कृपामय जीवन इतना सुंदर और रसमय है कि फिर अपनी ही कामना विष है ।
जीवन का वास्तविक अर्थ भगवत् शरणागति में है , जहाँ कुछ किया नहीँ जाता , ना ही चाह से होता है । वहाँ सब कुछ मिलता है , और जो मिलता है वह प्रसाद ही होता है ।

संसार में कुछ और शब्द भी प्रयोग होते है , जैसे भगवान की इच्छा । और जैसी भगवान की मर्ज़ी ।
अर्थ में यह समान होने पर भी भिन्न - भिन्न भावना में होते है ।
भगवान की इच्छा और कृपा एक ही है , परन्तु कृपा शब्द आह्लादित और रसमय स्थितियों में होता है , प्रसाद रूप स्वीकार्यता संग ।
भगवान की इच्छा , ही सब है पर इसे परस्पर जब कहा जाता है तब अपनी इच्छा पूरी ना होने की भावना रहती है ।
और भगवान की मर्ज़ी । यह सबसे अधिक आमतौर पर कहा जाता है , इसमें भगवान को शासक सिद्ध किया जाता है , और स्वयं को शोषित । जैसे जबरन भगवान की मर्ज़ी हो रही हो , और इस के कथन में उदासीनता होती है , कि माननी। ही पड़ेगी मर्ज़ी । भले मन कुछ और चाहे ।
अपनी कामनाएँ जब तक सही लगती है , कि हमने स्वयं हेतु सही चुनाव किया और भगवान की मर्ज़ी अलग है ।और हो भी भगवान की मर्ज़ी रही तो यहाँ पीड़ित दबाव में कहता है , जैसी भगवान की मर्ज़ी ।
अपनी और भगवान की चाह में पृथकता से यह होता है , और भगवान का विधान अपनी चाह के विपरीत लगें तब , अपनी चाहत इतनी सिद्ध लगती है कि भगवत् विधान में दोष दीखता है ।
भगवान की मर्ज़ी , दुर्घटना - दुःख प्रीतिकुल आदि स्थितियों में कही जाती है , जैसे भगवान की मर्ज़ी दुःखी करने की हो ।
ऐसे लोग भगवान को सत्ताधिकारी मानते है , प्रेमी नहीँ । और स्वयं को उनकी सत्ता में पीड़ित , उनसे पृथक् अस्तित्व जीव।
कितना ही सत्संग सुना हो ,पर बोलचाल में जब यह वेदना मयी लम्बी साँस से सुनता हूँ कि भई हम तो उसकी मर्ज़ी के गुलाम है । वो नचाये वैसे नाच रहे , फिर गहरी साँस ।
भीतर गहरी पीड़ा उठती कि कब भगवान का प्रेम कोई समझना चाहेगा । उनके रस में डूबना चाहेगा । बड़े - बड़े लोगो को इस तरह पीड़ित देखा है । वह शोषक नहीँ है , प्रेमी है । शोषक दिखने का कारण भीतर की वासना और भौतिकता की लोलुप्ता है ।
और भगवान की मर्ज़ी को जुल्म की तरह सहने वाले स्वयं को भगवत् प्रेमी ही अभिव्यक्त करते भी है ।

भगवान का सच्चा प्रेमी भगवान की इच्छा को ही पूरा करना चाहता ।
हे गोविन्द आपके मन की हो बस यही प्रार्थना ...
----  सत्यजीत तृषित ।।

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