उपासना के अन्तर्गत नाम, रूप, लीला एवं धाम चारों का ही विशिष्ट महत्व है। मान्य है कि जैसे लीला हेतु भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु का अवतरण होता। वैसे ही वैकुण्ठधाम का भी अवतरण होता है। अवतरण का अर्थ है ऊँचे से नीचे उतरना; गोलोकधाम में अथवा स्वस्वरूपभूत परमानन्द सुधासिन्धु में विराजमान स्वप्रकाश, पूर्णतम पुरुषोत्तम, प्रभु श्रीमन्नाराण जीवानुग्रहार्थ संसार में अवतीर्ण होते हैं। जैसे कोई राजाधिराज शाहंशाह चक्रवर्ती सम्राट् नरेन्द्र बन्दियों के कल्याणार्थ यदा-कदा कारागार में भी अवतीर्ण होते हैं, वैसे ही, अविद्या-काम-कर्ममय संसार में अविद्या-काम-कर्मातीत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्राणियों के कल्याणार्थ उवतीर्ण होते हैं; साथ ही, उनके स्वस्वरूप-भूत-सुधासिन्धु, गोलोकेधाम का भी जीव-कल्याणार्थ आविर्भाव होता है अतः व्रजधाम रूपान्तर से साक्षात् गोलोकधाम ही हैं। जैसे व्यवहारतः नेत्र-गोलक को ही नेत्र संज्ञा दी जाती है तथापि वस्तुतः नेत्र तो नेत्र-गोलक-निहित अतीन्द्रय होता है, वैसे ही, व्रजधाम में व्रजतत्व अन्तर्निहित होता है।
व्रजतत्व सन्निहित व्रजधाम का वास्तविक स्वरूप प्राकृत नेत्रों का नहीं अपितु विशिष्ट-उपासना-संस्कृत दृष्टि का गोचर है। अन्य मत यह भी है कि व्रजधाम व्रज-गोलक नहीं अपितु साक्षात् व्रजतत्व ही है तथापि उसका वास्तविक स्वरूप प्रकृति-प्राकृत विकारयुत नेत्रों से अद्रष्टव्य है। सामान्य दृष्टि से जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश प्राकृत-जगत में उपलब्ध हैं वही व्रज-जगत में भी उपलब्ध हैं तथापि उपासना-संस्कार-संस्कृत दृष्टि से ही व्रजधाम की अलौकिकता एवं विलक्षणता का अनुभव संभव है। प्रबोधानन्द सरस्वती कहते हैं, ‘यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्घनतामुपैति’ अर्थात्, व्रजधाम में प्रवेश करने मात्र से ही प्रत्येक प्राणी तत्क्षण सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन हो जाता है। जैसे लवण पर्वत में डाली हुई प्रत्येक वस्तु सैन्धव-लवण में परिवर्तित हो जाती हैं किंवा, जैसे पारद निघर्षित गन्धक पारद-रूप ही हो जाती है, वैसे ही, व्रजधाम में सन्निविष्ट प्रत्येक तत्व तत्क्षण शुद्ध ब्रह्म सद्घन, चिद्घन, आनन्दघनस्वरूप हो जाता है। शाहंशाह अकबर से सम्बन्धित एक कथा है; हरिदास स्वामी के प्रति शाहंशाह अकबर विशेष श्रद्धायुक्त थे; शाहंशाह द्वारा बारम्बार सेवा हेतु विनीत प्रार्थना किए जाने पर हरिदास स्वामी ने उनको कोसीघाट के टूटे हुए कोने की मरम्मत करवाने की आज्ञा दी; इस आज्ञा को शिरोधार्य कर शाहंशाह कोसीघाट गए; वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि कोसीघाट कोई साधारण पाषाणमय घाट नहं अपतिु दिव्यातिदिव्य रतनों से विनिर्मित हैं। इस अनुभव से चमत्कृत हो शाहंशाह हरिदास स्वामी के यहाँ लौट आए और उनको अपना अनुभव कह सुनाया। भागवत-वाक्य है-
यत्पाद पांसुर्बहुजन्मकृच्छ्तो, धृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः किं वण्र्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्।।[1]
अर्थात धृतात्मा, संयमी, योगीन्द्र, मुनोन्द्रों के लिये भी व्रजधाम की पांशु दुर्लभ है। इतना ही नहीं, विभिन्न भावयुक्त दृष्टि से स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी विभिन्नतः प्रतीत होते थे; दुर्योधनादि की दृष्टि में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का मात्र लौकिक प्राकृत स्वरूप ही स्फुरित होता था जब कि अर्नुनादि भक्तों के हृदय में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के प्रकृति-प्राकृत-प्रपंचातीत, अलौकिक परमेश्वर स्वरूप का प्रादुर्भाव होता था। तात्पर्य कि व्रजधाम का वास्तविक दिव्य स्वरूप विशिष्ट उपासना संस्कार-संस्कृत दृष्टि का ही विषय हो सकता है। इसी तरह भगवान राघवेन्द्र रामचन्द्र की अवतरण भूमि, अवधधाम की दिव्यता भी प्रसिद्ध है; वह भी सामान्य दृष्टि का विषय नहीं है।
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