Saturday, 11 June 2016

मधुर रस के भेद मधुर रस के दो प्रकार हैं- विप्रलम्भ और सम्भोग।

मधुर रस के भेद

मधुर रस के दो प्रकार हैं- विप्रलम्भ और सम्भोग।

विप्रलम्भ
विप्रलम्भ नायक और नायिका की वह अवस्था है, जिसमें वे एक-दूसरे के निकट नहीं होते, या निकट होते हुए भी अपना अभीष्ट आलिंगनादि प्राप्त नहीं कर सकते। विप्रलम्भ सम्भोग का पुष्टिकारक तो है ही, स्वयं रस भी है। विप्रलम्भ में नायक और नायिका के निविड़तम पारस्परिक स्मरण-चिन्तन के फलस्वरूप स्फूर्ति में परस्पर के निकट परस्पर का आविर्भाव होता है। उस अवस्था में जो परस्पर का मानसिक, चाक्षुष और कायिक आलिंगन-चुम्बनादि होता है, वह सम्भोग की अवस्था के आलिंगन-चुम्बनादि की अपेक्षा अधिक चमत्कारमय होता है। इसलिए विप्रलम्भ को सम्भोग-पुञ्जमय कहा है।

सम्भोग में एक ही कृष्ण का अनुभव होता है, विप्रलम्भ में विश्व कृष्णमय होता है।

अनुभवी व्यक्तियों ने सम्भोग और विप्रलम्भ के बीच विप्रलम्भ को ही वरणीय कहा है।

विरह दशा में साधक की अवस्था बाहर से देखने पर अत्यधिक दु:खमय प्रतीत होती है। पर उसके अन्तर में जिस रस का उत्स फूटता है, वह सम्भोग-रस से कितना उत्कृष्ट है, इस बात से जान पड़ता है कि विरह की अनुभूति प्रलय रूपी अन्तिम सात्विक भाव की गाढ़ अनुभूति से भी गाढ़तर होती है।

विरह की मोह दशा में अन्तर्वृत्ति का जिस प्रकार लोप हो जाता है, उस प्रकार प्रलय में नहीं होता। मोह दशा को प्राप्त करने पर कृष्ण-भक्त आत्म पर्यन्त सब विषयों की स्मृति खो बैठता है, केवल उसकी कृष्ण-स्फूर्ति विशेष का लोप नहीं होता-

अस्यान्यात्रात्मपर्यन्ते स्यात् सर्वत्रैव मूढ़ता।
कृष्णस्फूर्ति विशेषस्तु न कदाप्यत्र लीयते॥*

प्रेम स्वरूप में ही आनन्द है। विरह भी मिलन के समान प्रेम की ही एक अवस्था है। इसे दु:ख उसी प्रकार स्पर्श नहीं करता, जिस प्रकार प्रकाश को अन्धकार स्पर्श नहीं करता। सुख और दु:ख प्राकृत गुणात्मक चित्त की वृत्तियाँ हैं। प्रेम प्राप्त करने पर साधक के चित्त का प्राकृतत्व नष्ट, हो जाता है। वह अप्राकृत देह और मन द्वारा कभी स्फूर्ति में मिलन-जनित, कभी अस्फूर्ति में विरह-जनित आनन्द का अनवरत आस्वादन करता है।

विरह-जनित आनन्द एक अनिर्वचनीय वस्तु है। इसमें कृष्ण के अदर्शन के कारण दु:ख तो होता ही है, पर यह दु:ख एक विशेष प्रकार का सुख ही है, इसलिये इसे किसी ने 'विषामृत एकत्र मिलन', किसी ने 'आनन्द का धनीभूत परिपाक' कहा है।

पर वास्तविकता यह है कि इसका यथार्थ वर्णन करने के लिये प्राकृत भाषा-कोष में शब्द ही नहीं है।

'विप्रलम्भ' शब्द का अर्थ है प्रकारान्तर से प्राप्ति।

विप्रलम्भ में बाहर श्रीकृष्ण का दर्शन न होने पर भी अन्त:स्थल में उसकी सम्यक प्राप्ति हुई रहती है। बाहर बाह्य इन्द्रियों द्वारा ही मिलन संभव होता है, अन्तर में इन्द्रियों का इन्द्रियों से, मन का मन से, प्राण का प्राण से मिलन होता है।

विप्रलम्भ चार प्रकार का है- पूर्वराग, मान, प्रवास और प्रेमवैचित्य।

प्रेमवैचित्य की परिभाषा रूप गोस्वामी ने इस प्रकार की है- प्रेम के उत्कर्ष के कारण नायिका प्रिय के सन्निधान में रहते हुए भी विरह-बुद्धि के कारण जिस आर्तिका अनुभव करती है, उसे प्रेम वैचित्य कहते हैं* इस दशा में नायिका नायक के गोद में रहते हुए भी उसके विरह का अनुभव करती है। नायक की गुण-माधुरी का चिन्तन करते-करते उसकी बुद्धि-वृत्ति उसमें इस प्रकार लीन हो जाती है कि उसे नायक की उपस्थिति का ध्यान ही नहीं रहता।

जय श्री राधे

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