व्यक्ति के सारे प्रयास अहम पुष्टि हेतु है , सारे वैभव भी , जिस वैभव सुख से अहम पुष्ट ना हो वह भौतिक सुख भी उसे सुख नहीं देता
सच्चा इश्क सच्चे आशिक़ तक ख़ुद जाता है ।
सच्ची मुहब्बत भी सच्ची रूह से ही उठती है , मिट्टी की देह का आभास हो जब तक ना इश्क सच्चा होता है , न आशिक़ ही सच्चा मिलता है ।
ईश्वर को चाहना सरल भी है और कठिन भी , सरल क्योंकि कोई और चाहत न हो तो स्वतः ईश्वर की चाहत हो जाती है , अन्य के अभाव में स्वतः अनन्यता होती है ।
कठिन भी क्योंकि जब तक भगवान की अपनी इच्छा न हो सब प्रयास सदा प्रयास ही रह जाएंगे , अपने करने से यह पथ नही खुलता , निजता और स्वत्व का अभिमान मिटने से ही स्वतः रस विकसित होता है ।
सुक्षुप्ति स्वप्न और जागृति में व्यक्ति को स्वप्न प्रिय है , स्वप्न को वह काल्पनिक ही जानता है और अप्राप्य ही मानता है ।
बहुत से लोग ईश्वर को स्वप्न मानते है , जिसके लिये नींद चाहिये ही , अतः बिना चेते हुये ही भगवत पथिक रहते है , क्योंकि जागृति से स्वप्न टूटने का भय है ।
वास्तविक जागृति स्वयं सत्य साम्राज्य ही है ।
वास्तविक स्वप्न भी ईश्वर है ।
हमारी वास्तविक सुक्षुप्ति भी ईश्वर में ही है , परम् तत्व में शेष तत्व का विलीन होना ही वास्तविक सुक्षुप्ति है
वास्तव में व्यक्ति जैसे जी रहा है , भगवत शरणागति बाद भी वैसे ही उसे निभाना है बस कर्ता बदल जायेगा , हेतु बदल जायेगा ।
अभी जो भी स्व हेतु किया जाता रस- प्रेम- सम्बन्ध- समर्पण कुछ भी कहे इनके बाद वह स्व हेतु नही रह जाता ... करता भी कोई और है और पाता भी कोई है ।
भगवान आपके जीवन को नहीं बिगाड़ सकते , वह उन्हीं का खेल तो है , बस स्वबोध से आत्म स्वीकृति चाहते है । अर्जुन का युद्ध भी समर्पित है । शरणागति बाद भी युद्ध हुआ है पर भावना यहाँ स्व हेतु नहीं , भगवत विधान की स्वीकार्यता हेतु है ।
वास्तविक भगवत लालसा भगवत विधान के मंगलमय स्वरूप को प्रकाशित कर ही देगी ।
रस से प्यास तक सब भगवतकृपा है और यह सच्चे पिपासु ही समझ पाते है , शेष प्रयास और अभ्यास को मौलिक मानते है ।
स्व को भस्म करना ही यज्ञ है , स्वाहा ।।।
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