श्रयते हरिम् या सा श्रीः ।।
श्रीजी क्या ? सेवा भक्ति। भक्ति ही श्री है ।
आराधनम् राधा - आराधना ही राधा है ।
भक्ति - सेवा मे जो रस है , जो सार है , जिससे वह बन्धे है , जिस रस सार में वह डूबी है , वह भाव रूपी गोंद जिससे भक्ति सेवा आराध्य इष्ट से चिपकी हो , भक्ति और सेवा का मूल और सार तत्व ही श्री है , राधा है ।
अन्तः करण के भाव रस में द्रवीभूत होने पर ही आह्लदिनी शक्ति प्रकट होती है ।
खाली तरल हृदय नहीं ,,
द्रविभूत हृदय में आह्लादिनी शक्ति का विशेष आविर्भाव है , उसका महत्व है ,वह भक्ति है ।
द्रवीभूत अन्तः करण तो असमर्थता में होता ही है । पर उसमें भाव रस विषयक आह्लाद नहीं होता जब तक तब तक भक्ति नहीं ।
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