निष्कामता का फल सेवा
अब समझ आया मायाबद्ध जीव निष्काम सेवा नहीँ कर सकता । यह ईश्वर का गुण है , जीव को सेवा हेतु कारण चाहिये , किसी स्वार्थ की सिद्धि चाहिये ।
कारण और कामना के बाहर की स्थिति प्रेम स्थिति है , निर्गुण स्थिति । सत्-रज-तम् के बाहर होना है ।
निष्काम अवस्था में शून्यता सहज है , पर निष्कामता में सेवा यह प्रेम लक्षण है और कही न कही इतनी गहरी अवस्था में निष्कामता संग सेवा होना भगवत्कृपा है , अपितु भगवत् भावना ही वहाँ सेवामय है ।
पहले भी कहा कर्म और सेवा मे भावगत भेद है । कर्म में फल का लोभ है , निष्काम कर्म सेवा नहीँ , अपितु निष्काम कर्म का फल सेवा है । अपने प्रयास से निष्कामता का भी उदय नहीँ हो सकता , प्रयास में कामना है ही और अपनी समर्थता का आभास अर्थात् अहम् की पुष्टि । निष्कामता शरणागति उपरान्त ही घटती है , तब जीव की अन्य अभीप्सा नहीँ रहती और भगवत् चरण की दिव्य सुगन्ध उसके अंतस् को सदैव अनुराग वर्धन करती रहती है । तब जो भी क्रिया हुई उसका बाहरी सम्बंध ही होता , भीतर इच्छा के अभाव से कामना नहीँ होती । क्योंकि इच्छा स्वयं दिव्य रसानन्द में डुबी हुई है । इच्छा का ही तो समर्पण करना था । कथन मात्र तो करोड़ों समर्पण होते नित्य भगवत् चरणों में , फिर स्वयं भूल भी जाते कि अब भगवत् चरण धूलि भर हूँ । और मेरा जीवन भगवत् पद तल का सुख है , धूलि हूँ पर भगवान को मेरा स्पर्श सुकुमल पुष्प सम ही हो ।
भाव में यह अवस्था , बाहर जगत् में सेवा होती है । सेवा में फल लालसा नहीँ , वर्तमान का रस है । कर्म का सम्बन्ध भुत - भविष्य से है , सेवा का वर्तमान से । अतः सेवा से कुछ। और चाह का होना वहाँ सेवा शब्द भर है वह तो निष्काम कर्म भी नहीँ , सकाम कर्म है , आज सकाम कर्म को ही सेवा कहा जाता है ।
सेवा सौभाग्य भी है , सौभाग्य अर्थात् वह फल जिसके निमित्त पूर्व मे सामर्थ्य नहीँ हुआ । भगवत् कृपा से मिला अवसर ।
अहम् की पुष्टि में हुआ भजन - भक्ति - आदि कुछ भी बाहर से भगवत् सम्बन्ध रख कर भी सार हीन है , क्योंकि उसे लौकिक फल हेतु ही किया गया है और वह प्राप्त हो गया । अतः वहाँ कुछ शेष नहीँ , संसार अब अहम् पुष्टि हेतु ही सब करता है , भजन - भक्ति भी । अतः कोई दिव्य अनुभूति नहीँ होती , सकाम फल ही महा अवस्था प्रतीत होते है , और दिव्य् अनुभूति को प्राप्त अवस्था पाखण्ड या छदम् लगती है ।
अगर भगवत् पथ पर अहम् की पुष्टि हो गई तब अर्थ हुआ , भगवत् पथ पर क़दम स्व हेतु गिरे। भगवत् प्रेम में नहीँ गिरे ।
भगवत् पथ पर नित्य नव नव दिव्य रस अनुभूति है परन्तु वह किसी कर्म विशेष का फल नहीँ , अपितु भगवान का प्रेम है जिसे हम कृपा कहते है । भगवान के प्रेम को अपने अस्त्र--शस्त्र अर्थात् अपना सामर्थ्य समझना कितनी बड़ी भूल है , यह सब इसलिये क्योंकि आंतरिक इच्छा हुई ही नहीँ भगवान की और अहम् गलित हुआ ही नहीँ । भगवान के होने की सच्ची चाह हमारे अहम् को प्रथम भस्म करेगी ।
-- सत्यजीत तृषित ।।
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