Sunday, 5 June 2016

प्रवृत्ति और निवृत्ति

प्रवृत्ति और निवृत्ति

शुद्ध निवृत्ति विशुद्ध प्रवृति की उत्तरोत्तर अवस्था है
विशुद्ध भोग लालसा से विशुद्ध प्रवृति होती है । जिससे उत्तरोत्तर परमानन्द अनुभव होता है । परमानन्द अनुभूति के उपरान्त भोग इच्छा नहीँ रहती यह निवृत्ति है । इस स्थिति में विशुद्ध रस का स्वाद बना रहने से इंद्रियाँ विशुद्ध रसमयता में रहती है , जिसे बाहरी जीव (दिव्य संस्कार रहित जीव) प्रवृति समझ सकते है । - सत्यजीत तृषित ।

2 अग्नि को सोम की लालसा से उसकी यह लालसा पूर्ण ना हो तब तक प्रवृति है ।
पूर्ण विशुद्ध अग्नि ही पूर्ण विशुद्ध सोम का पान कर सकती है । यह अग्नि ही व्याकुलता और सोम ही रस है । सोम की गहनता अग्नि की विशालता से जुडी है ।
सामान्य प्यास में भी अग्नि है और सामान्य जल में भी आंशिक सोम (रस) । विशुद्ध प्यास से विशुद्ध रस स्वभाविक प्रकट होता है । इसकी संशोधन प्रक्रिया से वह पूर्ण सत्व हो कर आत्म स्वरूप को तृप्त करता है । वहीँ आनन्द है , इस अवस्था के बाद भोग गमन नहीँ होता , हुआ तो वह आनन्द विशुद्ध आनन्द नहीँ होगा , केवल आनन्द का आभास होगा । सत्यजीत तृषित ।

3 भोग निवृत्ति हो जावें तो अग्नि शांत हो जायेगी फिर विशुद्ध भोग अर्थात् आनन्द रस सार कैसे मिलेगा ?
जहाँ वैराग्य की गहनता निवृत्ति आकर्षण कहती है ।
वहीँ अनुराग गहनता अग्नि तत्व की सोम लालसा कहती है , यह विशुद्ध भोग है अर्थात् आनन्द है । सत्यजीत तृषित ।

4 निवृत्ति का अर्थ है , ईश्वर ने गोद में उठा लिया , अब जगत् का रँग असर नहीँ करेगा । सत् रज तम् कण या परमाणु सभी स्पर्श से निर्गुण ही होंगे । अर्थात् वस्तु (पदार्थ )का स्वाद भौतिक नहीँ दिव्य हो जाएगा । जिह्वा को षड् रस की अपेक्षा नव रस अनुभूत् होगा और वहीँ रस उसे किसी भी पदार्थ को ग्रहण करने पर होगा । वह अनिवर्चनीय रस चरणामृत या अधरामृत भी हो सकता है ।
तीनोँ ही देह (स्थूल , सूक्ष्म , कारण )आसक्ति से उठ लोक में होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित (भु , भुवः , स्वः ) तीनोँ लोक से परे वास होना विशुद्ध निवृत्ति है । जिसे सरल कहने का प्रयास किया गया । वरन् इसे ऐसे कहते बनता नहीँ । अभ्यास से इसे और सरल कहा जा सकेगा ।
निवृत्ति का अर्थ है दिव्य तीव्र भगवदीय अनुराग की प्रवृति धर्म छुट गया । दिव्य रस मय अवस्था ।
निवृत्ति (लोक भाषा में वैराग्य) को कहने की अपेक्षा अपने अपने आचार्य या सद्गुरु कृपा से विशुद्ध प्रवृत्ति सूत्र पा लेने चाहिये । कि कैसे हमारे भोग करने से उसके सार को ईश्वर फिर जीव आत्म तत्व स्वयं ग्रहण करें 'प्रसादवत' । सत्यजीत तृषित ।

5 प्रवृति धर्म के अंत में विशुद्ध परमानन्द जागृत रहता है । इस परमानन्द में भोक्ता , भोग्य , भोग तीनों ही शुद्ध है । इसी तरह निवृत्ति धर्म के अवसान होने पर आनन्द का आस्वादन भी अतिक्रांत हो जाता है ।
आनन्द पूर्ण होने पर उसका भोग नहीँ रहता , विशुद्ध चैतन्य अवस्था होती है , इस अवस्था में द्रष्टा , दृश्य और दृष्टि तीनो अभिन्न रूप रहते है । सत्यजीत तृषित ।।।

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