Sunday, 12 June 2016

अनुभूति और अभिव्यक्ति और अभिनय

अनुभूति यह वह शब्दहीन वृत्ति है जो हृदय से साक्ष्य होकर , प्रगट , मिलन आदि होकर भी व्यक्त नहीँ होती ।
अनुभूति व्यक्त होने लगे तब वह अभिव्यक्ति होती है । 
अभिव्यक्ति से अनुभूति को स्पर्श नहीँ किया जा सकता ।
अभिव्यक्ति का सम्बन्ध हृदय में प्रकट रस के बाहरी स्वरूप से है ।
आज अभिनय को अभिव्यक्ति रूप में प्रदर्शित किया जाता है ।
अभिनय का सम्बन्ध बाहरी अनुसरण से है ।
अभिनय हृदय की वस्तु नही , आज वहीँ  अधिक है ।
अभिव्यक्ति के लिये अनुभूति आवश्यक है । और अनुभूति हृदय के निमन्त्रण को स्वीकार करने से घटी घटना है । अर्थात् पुकार की सही दिशा होते ही रस प्रगट होता है , वह आते है , अपितु दिशाभ्रम हमारा है , वह तो है । सही दिशा की पुकार से उनके पद कमल हृदय पर छु जाते है वहीँ अनुभूति है ,,,, परम् से आंतरिक मिलन ।
अनुभति अव्यक्त अवस्था होने से अश्रु रूप में भी व्यक्त होती है । शब्दहीनता नेत्र रस बन जाती है ।
अपनी ही बहती अनुभूति को कहने की। चेष्टा हृदय को द्रवित करती है । भीतर तरलता गहराने लगती है ।
अभिनय के जानकार अभिनय को ही परम् अवस्था समझते है । और आज धर्म और भगवत् पथ की कमान अनुभूति के नहीँ , अभिनय के हाथ में है । अभिनय भी अनुभूति के अश्रु की महक से उकेरा मानस चित्र भर है ।
-- सत्यजीत तृषित

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