Tuesday, 21 June 2016

ईश्वर का अभ्यास नही करना , तृषित

अभ्यास जिस चीज़ का हो वह छुट जाती है ,
अधिकतर भगवान और भजन का अभ्यास होता है ।
प्रिय वस्तु का अभ्यास नही होता , ना ही प्रियतम की भावना का ।
लालसा और प्यास - पिपासा - व्याकुलता का भी विकास आवश्यक है , अभ्यास नही करना ।
अभ्यास का अर्थ जो हम नहीं वह होना , हमें अभ्यास करना है जगत से , भोग से , वासना से छुटने का , मैं जगत का नही , जगत मेरा नही , यह अभ्यास ।
जो वस्तु अपनी नहीं वह छुट गई तो अपनी वस्तु स्वतः संग होगी ।
भजन और ध्यान के अभ्यास का अर्थ आत्मीयता नहीं , अब जीवन भर अभ्यास ही करना । भगवान ही मेरे है , इस बात की अनुभूति होते ही मेरा कुछ नही यह बोध हो जाता है । परमात्मा को पर मानने से ही अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
अपने पति से प्रीत का अभ्यास नहीं करना होता है ।
ना ही नन्हे शिशु को माँ से प्रेम और अपनत्व सीखना होता है ।
हमारे मन में ईश्वर नहीं संसार ही है अतः ईश्वर का अभ्यास होता है ।
भगवत अनुरागी को इसी तरह संसार में मन ना होने से संसार में रहने का भी अभ्यास करना होता है , क्योंकि संसार हमारा नहीं , हम संसार के नही अतः यह ही अभ्यास है , भगवान को हमसे इतना प्रेम है
अगर वह समझ आ जाये तो अभ्यास भगवान हेतु कैसे हो ??

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