संसार मे किसी से भी बात करो , वह अपने अहंकार नहीँ पाता । सभी को लगता मुझमेँ अहम् नहीँ ।
अहम् ना हो जिसे वह तो भगवत् पथिक ही नहीँ भगवत् प्राप्त अवस्था ही है ।
फिर भी अपना अहम् नहीँ दीखता ।
अपने अहम् हेतु दृष्टि आत्म केंद्रित हो ।
गहरे रसमय अवस्था पर भी अहम् का बाहरी आवरण होता है । वह केवल बाहरी होता है , सत्य नहीँ । उसका कारण हृदय की रसमयता , भावना को बहने से रोकना , शेष जीवन यात्रा को पूर्ववत् रखने हेतु । यह अहम् वास्तव में होता नहीँ , और बनावट के अहम् में बड़ी गहरी व्याकुलता है , इस अहम् को विशुद्ध महतत्व कह सकते है। अहम् के जाते ही अपनी तीनों स्व देह से सम्बन्ध नहीँ रहता , फिर एक आवरण ही उन्हें बनाये रखता है । वरन् अहम् से गलित्त स्थल परम् सत्ता का स्वभाविक स्थल हुआ ,जिसे अव्यक्त रखने हेतु एक आवरण चाहिये , सद् पात्र के समक्ष वह आवरण नहीँ रहता , वहाँ स्पष्ट भगवत् प्रतिती होती है ।
अधिकत्तर दिखावे हेतु यह आवरण रूपी बनावटी अहम् का भी अभिनय किया जाता है , जबकि होता अहंकार है ।
मेरा ना होना ही "तेरा" होना है ।
मैं न हूँ , यह सम्भव नहीँ । क्योंकि हर कोई , मैं हूँ ना , कहना चाहता ही है ।
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