Thursday, 29 December 2016

धर्म रक्षक ‘श्रीराम’

धर्म रक्षक ‘श्रीराम’

उन्होंने भक्तों के हृदय में अपना पाद-पंकज स्थापति किया-

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः।
'स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः।।[2]

(तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने चरण कमल, स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वप्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये।)

क्यों भाई, शुकाचार्य ने दण्डकवन के काँटे जिन चरणों में बिंधे हुए हैं, ऐसे चरण-पंकज को भक्तों के हृदय में क्यों विरजवाया है? सीता भगवती की मंगलमयी शय्या पर समासीन, कौशल्यात्सगं लालित या चक्रवर्ति-नरेन्द्र के उत्संग में लालित रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान् के पदारविन्द भक्तों के हृदय में विरजवाते? नहीं, नहीं विद्धं दण्डक कण्टकैः, भगवान् के चरण-कमलों में काँटे चुभे हुए हैं’ पूर्वजों की मान मर्यादा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये,धर्म की रक्षा के लिये; ऐसा ध्यान भक्तों को बना रहे इसलिये शुक्राचार्य ने काँटे चुभे चरण-कमल को भक्तों के हृदय में पधराया। राम नंगे पावों वन-वन विहरे, तब उनके पाँवों में काँटे चुभे। गौरक्षा के लिये धर्म की रक्षा के लिए, हमारे देवता भगवान् राम के मंगलमय पादों में काँटे चुभे। कितना सुकोमल है उनका चरण! पंकज का पराग की उसमें चुभता है। फिर कमल की कोमल पँखुड़ी चुभे यह तो बात गौण हो गयी। ऐसे चरणाविन्द में दण्डकवन के काँटे चुभे। हम भी धर्म की रक्षा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये, पूर्वजों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिये सिर को हथेली में रखकर, प्राणों को खतरे में डालकर आनन्द से जूझना सीखें, इस बात को बताने के लिये शुक्राचार्य ने कहा- ‘विद्धं दण्डक कण्टकैः’।

No comments:

Post a Comment