लतओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’
हमारे श्री सनातन गोस्वामी जी बोलते हैं-
सन्त्ववतारा बहवः पुष्कनाभस्य सर्वतो भद्राः। कृष्णादन्यः को वा लतास्वपि प्रेमदो भवति।।[4] (भले पुष्करनाभ के अनेक एक-से-एक अन्छे अवतार हैं तो लताओं में प्रेम प्रदान करने वाला कृष्ण से अन्य कौन हैं?)
सनातन गोस्वामी जी महाराज बड़े सन्त-महापुरुष थे। अपने प्रेम में जो कुछ कहा, वह सब हमारे सिर-माथे। बड़ा आदर करते हैं हम उनका। लेकिन वाल्मीकि रामायण को देखें तो मालूम पड़ता है कि रामभद्र के वियोग में नदियों का जल खौल उठा। वृक्षों के पुष्प -अंकुर सभी परिम्लान हो गये, भगवान् रामचन्द्र के विप्रलम्भ जनित तीव्र ताप में-
अनुगन्तुमशक्तास्त्वां मूलैरुद्धतवेगिनः।
उन्नता वायुवेगेन विक्रोशन्तीव पादपाः।।[1]
अपनी जड़ों के कारण वेगहीन पादप तुम्हारा अनुगमन करने में असमर्थ हैं। वायु वेग से ये उन्नत पादप आपसे लौटने के लिये चीत्कार कर रहे हैं।)
लीनपुष्कर पत्राश्च नद्यश्च कलुषोदकाः।
संतप्तपद्याः पद्यिन्यो लीनमीन विहंगमाः।।[2]
(नदियों के जल मलिन हो गये हैं उनके कमलों के पत्ते निलीन प्राय हो गये हैं- सूख गये हैं। नदियों-सरोवरों की कमल एवं कमलिनियाँ सन्तप्त हो गयी हैं। उनके मीन एवं विहंगमयगण लुप्त हो गये हैं।)
ममत्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वत्र्मनि।
उष्णमश्रु विमुच्चन्तो रामे संप्रस्थिते वनम्।।[3]
विषये ते महाराज महाव्यसनकशिताः।
अपि वृक्षाः परिम्लानाः सपुष्पाड्कुरकोरकाः।।
उपतप्तोदका नद्यः पल्वलानि सरांसि च।
परिशुष्कपलाशानि वनान्युपवनानि च।।
न च सर्पन्ति सत्वानि व्याला न प्रसरन्ति च।
रामशोकाभिभूतं तन्निष्कूजमिव तद्वनम्।।[1]
जलजानि पुष्पाणि माल्यानि स्थल जानि च।
न विभान्त्यल्पगन्धीनि फलानि च यथापुरम्।।
अत्रोद्यानानि शून्यानि प्रलीन विहगानि च।
न चाभिरामानारामान् पश्यामि मनुजर्षभ।।
(सुमंत्र ने कहा- राम के वन को प्रस्थित होने पर मैं जब लौटा रथ के घोडे़ उष्ण आँसू गिराते हुए मार्ग पर चलने को प्रवृत्त नहीं हुए। महाराज! महाव्यसन से दुःखित आपके देश के वृक्ष, पुष्पों, पल्लवों, अंकुरों तथा पुष्प-मुकुलों के साथ परिम्लान से हो गये हैं। नदियों, सरोवरों तथा छोटे सरोवरों के जल तप्त एवं शुष्क हो गये हैं। वनों एवं उपवनों के पत्ते सूख गये हैं। कोई प्राणी आहार के लिये भी गमनागमन नहीं कर रहे हैं। व्याल भी प्रसरण नहीं कर रहे हैं। सारा वन राम शोक से अभिभूत होकर निःशब्द-सा हो रहा है। जल और स्थल के सभी पुष्प पहले के समान सौन्दर्य तथा सौगन्ध्य से युक्त नहीं हैं। सारे उद्यान विहंगादि हीन हो शून्य से प्रतीत होते हैं। आराम और क्रीड़ाद्यान भी अभिरामता शून्य हो रहे हैं। इस तरह अचेतन वृक्ष और लताएँ भी रामपे्रम से व्याप्त हैं।)
तो तलाओं को प्रेम प्रदान किया कि नहीं रामभद्र ने, वृक्षों को प्रेम प्रदान किया कि नहीं रामभद्र? जो वृक्ष भगवान् के विप्रलम्भ में परिम्लान हो जाते हैं, तो उनको श्रीरामभद्र में पे्रम नहीं था क्या? बिना संभोग जनित रसास्वादन के विप्रलम्भ में ताप होता ही नहीं। अनादिकाल से जीव भगवान् के विप्रलम्भ का अनुभव करता है, परन्तु इसे ताप कहाँ हो रहा है? ताप उसे होता है जिसे- भगवत्-रसास्वादन होता है। जिसको भगवत्-रसास्वादन नहीं, उसको विप्रलम्भ में ताप भी नहीं। इस तरह ये सब वृक्ष भगवान् का रसास्वादन करते हैं, मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन करते, पादारविन्द की नखमणि चन्द्रिका का दर्शन करते हैं। धारित्री जहाँ-जहाँ भगवान् के पादारविन्द का विन्यास होता है, वहाँ-वहाँ अपना हृदय-कमल-प्रफुल्लित करती है। धरित्री के प्रफुल्लित हृदय पर ही भगवान् का पादारविन्द विन्यास होता है।
No comments:
Post a Comment