वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’-
चक्रवर्ती नरेन्द्र दशरथ महाराज के ऊपर अनुग्रह करके भगवान् परात्पर परब्रह्म श्रीरामचन्द्र राघवेन्द्र के रूप में प्रकट हुए। श्रीमद्भागवत में लिखा है- ‘एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’[1]’ अन्य जितने भी अवतार हैं, सब भगवान् के अंश हैं, कला हैं और कृष्ण स्वयं भगवान् हैं।’ यहाँ ‘च’ है। ‘च’ कहता है कि ‘रामचन्द्रोअपि’, अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णतय पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं, वैसे ही श्री रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान् भी परात्पर परब्रह्म हैं। श्रीमद् बल्लभाचार्य कट्टर श्रीकृष्णभक्त हुए हैं। उन्होंने रामावतार के सम्बन्ध में माना है-
स यैः स्पृष्टोअभिदृष्टो वा संविष्टाअनुगतोअपि वा।
कोशलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः।।[2]
अर्थात् जिसने भगवान् रामचन्द्र का स्पर्श किया, जिसने भगवान् राघवेन्द्र का स्पर्श किया, जो भगवान् रामचन्द्र के पास बैठ गया और जो कौशलेन्द्र भगवान् रामचन्द्र के पीछे चला, वे सभी कौशलवासी ऐसे दिव्यधाम में गये, जहाँ बड़े-बडे़ योगी अमलात्मा परमहंस जाते हैं। सर्वाथाअपि पुर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्त भगवान् का ही श्रीरामचन्द्र रूप में प्राकट्य होता है तभी तो उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्र से प्राणियों की परमगति हो जाती है। दुनियाँ में भगवान् रामचन्द्र के अवतार के समान कोई भी अवतार नहीं हुआ। भक्तों ने कहा- कहिये महाराज! आप कहते हैं कर्मकाण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, उपासना काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, ज्ञान काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है। कौन-से कर्मकाण्ड का इन्होंने अनुष्ठान किया, कौन-से उपासना काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया या कौन-से ज्ञान काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया कि इनको दिव्य परमधाम, साकेतधाम प्रदान किया? बताइये क्या उत्तर है इसका? हम उत्तर देते हैं-भुशुण्डि रामायण में एक कथा है। एक बार नारद जी महाराज भगवान् रामचन्द्र जी के पास आये। भगवान् ने पूछा-‘कहाँ से आये महाराज!’’ नारद जी ने कहा-‘ब्रह्मलोक से आया हँ।’ भगवान ने पूछा- ‘कहिये क्या सन्देशह है?’ नरद जी ने कहा-‘‘ब्रह्मा जी ने सन्देश दिया है। उन्होंने कहा है-एक बार मेरे मानस-संकल्प से साठ करोड़ दिव्यांगनायें अविर्भूत हुर्ह। जिनका सौन्दर्य, अनन्तमाधुर्य, अद्भुत-लोकोत्तर माधुर्य था। हमने उनसे कहा- ‘तुम्हारी शादी किससे कर दें?’ उन्होंने कहा-‘हम देवों या मनुष्यों को नहीं वरण करना चाहती। हम तो अनन्त ब्रह्माण्डनायक रामचन्द्र राघवेन्द्र परात्पर प्रभु को ही अपना सर्वस्व प्राणनाथ, प्रियतम-प्राणधन, परम पे्रमास्पद मानती हैं।’ दैवात् न जाने क्या हुआ, हमने उनसे कह दिया, ‘तुम सब लता हो जाओ।’
मेरे बचन के अनुसार वे अयोध्या के बाहर जो आम्रवन है, उसी में लता हुई’। तबसे आपको उपासना कर रही हैं। आप उन्हें स्वीकार करें, लोकात्तर संस्पर्श प्रदान कर कृतार्थ करें।’’ भगवान् राम आत्माराम हैं। उनकी आत्मस्वरूपा भगवती सीता का उन लताओं में दिव्य रीति से आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् रामभद्र का उन लताओं को रमण प्राप्त हुआ। कहते हैं, माता सती के सामने जब भगवान् रामभद्र का दिव्य रूप प्रकट हुआ तो उन्होंने प्रश्न किया-‘‘महाराज! आप तो पूर्ण परब्रह्म सर्वशक्तिमान् दीखते हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डजननी भगवती सीता तो आपके समीप ही हैं। इनका कभी विश्लेष हुआ ही नहीं। फिर आप यह सब नाटक क्यों कर रहे हैं? कही अमुक वृक्ष से आलिगन क्यों कर रहे हैं?’’ भगवान् श्रीराम ने कहा-‘‘यह सब भूत भावन विश्वनाथ बतलायेंगे। संक्षेप मंे इतना समझ लीजिये कि ये सब हमारे भक्त हैं। ब्रह्मादि लोक-लोकान्तरों से आकर वृक्ष, लता और पाषाण बने हैं। हमारे सम्मिलन की उत्कण्ठा लेकर आये हैं। हम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। बिना पागलपन का नाटक रचे लताओं का आलिगंगन, वृक्षों का आलिंगन और पाषाणों का आलिंगन कैसे करें? इसलिये सीता के विप्रलम्भजन्य तीव्रताप से उन्मत्त हो करके हम यह सब नाटक कर रहे हैं, वास्तव में अपने भक्तों से मिल रहे हैं।’’ इस तरह भगवत्-सम्लिन के उपयुक्त कर्म, उपासना और ज्ञान के बिना भगवान् का सम्मिलिन प्राप्त नहीं होता। भगवान् की अनुकम्पा से ही भगवान् का सम्मिलन होता है, परन्तु होता उन्हीं को है जिन्होंने तदनुकूल कर्म, उपासना, ज्ञान का पहले अनुष्ठान किया है।
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