Monday, 27 June 2016

कुछ बिंदु अहम और सच्चा आशिक़ी ,तृषित

व्यक्ति के सारे प्रयास अहम पुष्टि हेतु है , सारे वैभव भी , जिस वैभव सुख से अहम पुष्ट ना हो वह भौतिक सुख भी उसे सुख नहीं देता

सच्चा इश्क सच्चे आशिक़ तक ख़ुद जाता है ।
सच्ची मुहब्बत भी सच्ची रूह से ही उठती है , मिट्टी की देह का आभास हो जब तक ना इश्क सच्चा होता है , न आशिक़ ही सच्चा मिलता है ।

ईश्वर को चाहना सरल भी है और कठिन भी , सरल क्योंकि कोई और चाहत न हो तो स्वतः ईश्वर की चाहत हो जाती है , अन्य के अभाव में स्वतः अनन्यता होती है ।
कठिन भी क्योंकि जब तक भगवान की अपनी इच्छा न हो सब प्रयास सदा प्रयास ही रह जाएंगे , अपने करने से यह पथ नही खुलता , निजता और स्वत्व का अभिमान मिटने से ही स्वतः रस विकसित होता है ।

सुक्षुप्ति स्वप्न और जागृति में व्यक्ति को स्वप्न प्रिय है , स्वप्न को वह काल्पनिक ही जानता है और अप्राप्य ही मानता है ।
बहुत से लोग ईश्वर को स्वप्न मानते है , जिसके लिये नींद चाहिये ही , अतः बिना चेते हुये ही भगवत पथिक रहते है , क्योंकि जागृति से स्वप्न टूटने का भय है ।
वास्तविक जागृति स्वयं सत्य साम्राज्य ही है ।
वास्तविक स्वप्न भी ईश्वर है ।
हमारी वास्तविक सुक्षुप्ति भी ईश्वर में ही है , परम् तत्व में शेष तत्व का विलीन होना ही वास्तविक सुक्षुप्ति है

वास्तव में व्यक्ति जैसे जी रहा है , भगवत शरणागति बाद भी वैसे ही उसे निभाना है बस कर्ता बदल जायेगा , हेतु बदल जायेगा ।
अभी जो भी स्व हेतु किया जाता रस- प्रेम- सम्बन्ध- समर्पण कुछ भी कहे इनके बाद वह स्व हेतु नही रह जाता ... करता भी कोई और है और पाता भी कोई है ।

भगवान आपके जीवन को नहीं बिगाड़ सकते , वह उन्हीं का खेल तो है , बस स्वबोध से आत्म स्वीकृति चाहते है । अर्जुन का युद्ध भी समर्पित है । शरणागति बाद भी युद्ध हुआ है पर भावना यहाँ स्व हेतु नहीं , भगवत विधान की स्वीकार्यता हेतु है ।
वास्तविक भगवत लालसा भगवत विधान के मंगलमय स्वरूप को प्रकाशित कर ही देगी ।
रस से प्यास तक सब भगवतकृपा है और यह सच्चे पिपासु ही समझ पाते है , शेष प्रयास और अभ्यास को मौलिक मानते है ।
स्व को भस्म करना ही यज्ञ है , स्वाहा ।।।

Sunday, 26 June 2016

भगवत धाम का अवतरण , प्रकृति-प्राकृत-प्रपंचातीत

उपासना के अन्तर्गत नाम, रूप, लीला एवं धाम चारों का ही विशिष्ट महत्व है। मान्य है कि जैसे लीला हेतु भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु का अवतरण होता। वैसे ही वैकुण्ठधाम का भी अवतरण होता है। अवतरण का अर्थ है ऊँचे से नीचे उतरना; गोलोकधाम में अथवा स्वस्वरूपभूत परमानन्द सुधासिन्धु में विराजमान स्वप्रकाश, पूर्णतम पुरुषोत्तम, प्रभु श्रीमन्नाराण जीवानुग्रहार्थ संसार में अवतीर्ण होते हैं। जैसे कोई राजाधिराज शाहंशाह चक्रवर्ती सम्राट् नरेन्द्र बन्दियों के कल्याणार्थ यदा-कदा कारागार में भी अवतीर्ण होते हैं, वैसे ही, अविद्या-काम-कर्ममय संसार में अविद्या-काम-कर्मातीत, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् प्राणियों के कल्याणार्थ उवतीर्ण होते हैं; साथ ही, उनके स्वस्वरूप-भूत-सुधासिन्धु, गोलोकेधाम का भी जीव-कल्याणार्थ आविर्भाव होता है अतः व्रजधाम रूपान्तर से साक्षात् गोलोकधाम ही हैं। जैसे व्यवहारतः नेत्र-गोलक को ही नेत्र संज्ञा दी जाती है तथापि वस्तुतः नेत्र तो नेत्र-गोलक-निहित अतीन्द्रय होता है, वैसे ही, व्रजधाम में व्रजतत्व अन्तर्निहित होता है।
व्रजतत्व सन्निहित व्रजधाम का वास्तविक स्वरूप प्राकृत नेत्रों का नहीं अपितु विशिष्ट-उपासना-संस्कृत दृष्टि का गोचर है। अन्य मत यह भी है कि व्रजधाम व्रज-गोलक नहीं अपितु साक्षात् व्रजतत्व ही है तथापि उसका वास्तविक स्वरूप प्रकृति-प्राकृत विकारयुत नेत्रों से अद्रष्टव्य है। सामान्य दृष्टि से जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश प्राकृत-जगत में उपलब्ध हैं वही व्रज-जगत में भी उपलब्ध हैं तथापि उपासना-संस्कार-संस्कृत दृष्टि से ही व्रजधाम की अलौकिकता एवं विलक्षणता का अनुभव संभव है। प्रबोधानन्द सरस्वती कहते हैं, ‘यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुः आनन्दसच्चिद्घनतामुपैति’ अर्थात्, व्रजधाम में प्रवेश करने मात्र से ही प्रत्येक प्राणी तत्क्षण सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन हो जाता है। जैसे लवण पर्वत में डाली हुई प्रत्येक वस्तु सैन्धव-लवण में परिवर्तित हो जाती हैं किंवा, जैसे पारद निघर्षित गन्धक पारद-रूप ही हो जाती है, वैसे ही, व्रजधाम में सन्निविष्ट प्रत्येक तत्व तत्क्षण शुद्ध ब्रह्म सद्घन, चिद्घन, आनन्दघनस्वरूप हो जाता है। शाहंशाह अकबर से सम्बन्धित एक कथा है; हरिदास स्वामी के प्रति शाहंशाह अकबर विशेष श्रद्धायुक्त थे; शाहंशाह द्वारा बारम्बार सेवा हेतु विनीत प्रार्थना किए जाने पर हरिदास स्वामी ने उनको कोसीघाट के टूटे हुए कोने की मरम्मत करवाने की आज्ञा दी; इस आज्ञा को शिरोधार्य कर शाहंशाह कोसीघाट गए; वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि कोसीघाट कोई साधारण पाषाणमय घाट नहं अपतिु दिव्यातिदिव्य रतनों से विनिर्मित हैं। इस अनुभव से चमत्कृत हो शाहंशाह हरिदास स्वामी के यहाँ लौट आए और उनको अपना अनुभव कह सुनाया। भागवत-वाक्य है-

यत्पाद पांसुर्बहुजन्मकृच्छ्तो, धृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः किं वण्र्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्।।[1]

अर्थात धृतात्मा, संयमी, योगीन्द्र, मुनोन्द्रों के लिये भी व्रजधाम की पांशु दुर्लभ है। इतना ही नहीं, विभिन्न भावयुक्त दृष्टि से स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी विभिन्नतः प्रतीत होते थे; दुर्योधनादि की दृष्टि में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र का मात्र लौकिक प्राकृत स्वरूप ही स्फुरित होता था जब कि अर्नुनादि भक्तों के हृदय में भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के प्रकृति-प्राकृत-प्रपंचातीत, अलौकिक परमेश्वर स्वरूप का प्रादुर्भाव होता था। तात्पर्य कि व्रजधाम का वास्तविक दिव्य स्वरूप विशिष्ट उपासना संस्कार-संस्कृत दृष्टि का ही विषय हो सकता है। इसी तरह भगवान राघवेन्द्र रामचन्द्र की अवतरण भूमि, अवधधाम की दिव्यता भी प्रसिद्ध है; वह भी सामान्य दृष्टि का विषय नहीं है।

Tuesday, 21 June 2016

स्वभाविक्ता में विकास है , तृषित

स्वभाविक्ता में विकास है । प्रयास और जबरन तरीकों में नही ।
उपाय , तरीके , और साधन आपको सदा भिन्न ही चाहते है ।
और स्वभाविक रूप से जो हो वह अपना मूल विकास ही होता है , जिसमें स्व धीरे-धीरे विलीन होता जाता है ।
स्वभाविक पतन भी वास्तविक विकास ही लें जाएगा ।
और प्रयास से उत्थान भी पतन ही होगा ।

ईश्वर का अभ्यास नही करना , तृषित

अभ्यास जिस चीज़ का हो वह छुट जाती है ,
अधिकतर भगवान और भजन का अभ्यास होता है ।
प्रिय वस्तु का अभ्यास नही होता , ना ही प्रियतम की भावना का ।
लालसा और प्यास - पिपासा - व्याकुलता का भी विकास आवश्यक है , अभ्यास नही करना ।
अभ्यास का अर्थ जो हम नहीं वह होना , हमें अभ्यास करना है जगत से , भोग से , वासना से छुटने का , मैं जगत का नही , जगत मेरा नही , यह अभ्यास ।
जो वस्तु अपनी नहीं वह छुट गई तो अपनी वस्तु स्वतः संग होगी ।
भजन और ध्यान के अभ्यास का अर्थ आत्मीयता नहीं , अब जीवन भर अभ्यास ही करना । भगवान ही मेरे है , इस बात की अनुभूति होते ही मेरा कुछ नही यह बोध हो जाता है । परमात्मा को पर मानने से ही अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
अपने पति से प्रीत का अभ्यास नहीं करना होता है ।
ना ही नन्हे शिशु को माँ से प्रेम और अपनत्व सीखना होता है ।
हमारे मन में ईश्वर नहीं संसार ही है अतः ईश्वर का अभ्यास होता है ।
भगवत अनुरागी को इसी तरह संसार में मन ना होने से संसार में रहने का भी अभ्यास करना होता है , क्योंकि संसार हमारा नहीं , हम संसार के नही अतः यह ही अभ्यास है , भगवान को हमसे इतना प्रेम है
अगर वह समझ आ जाये तो अभ्यास भगवान हेतु कैसे हो ??

Monday, 20 June 2016

नेत्र है सौंदर्य बोध कराने वाली

नेत्र है सौंदर्य का बोध कराने वाली , परन्तु यह नेत्र का होना उस दिव्य सौन्दर्यसार के मनोभिराम दर्शन से पूर्व अधूरे ही सदा रहते ।
नेत्र का होना ही सिद्ध करता है उसे परम् सौंदर्य का दर्शन हो जावें , परन्तु ऐसी प्यास नही होती और जड़ता में ही सौंदर्य बोध पाकर नेत्र भगवत दर्शन की आतुरता बना नही पाती । भगवत दर्शन हेतु नेत्रों को बाहरी सौंदर्य से भी दिव्य अति दिव्य की लालसा का जगना आवश्यक है   । और इस क्रम में आत्म दर्शन भी प्राथमिक स्तर पर होना चाहिये । आज आत्म दर्शन की भावना मात्र से भी अहम पुष्ट होता है , जिसे प्यास नही , तड़प नही वह कही भी रुक जाता है , जिसे प्यास है वह भगवत आलिंगन में भी अपूर्ण रहता है क्योंकि भगवत सुख हेतु आलिंगन में भी स्व सुख की सिद्धि नही होती वहाँ , और अपनी और भाव और सेवा का अभाव रह ही जाता है । जिसे प्यास है उसे प्यास ही है , स्वभाविक तृप्ति होती है परन्तु प्यास ही वहाँ मूल मन्त्र है । तृप्ति का सुख नही और प्यास ही वृद्धि होती है । इस प्यास की वृद्धि में भगवत स्वरूप और रसात्मक होता जाता है , आवरण छटते जाते है ।
सत्यजीत तृषित ।।

Sunday, 19 June 2016

वास्तविक मौन , तृषित

अगर मनुष्य के जीवन में वास्तविक मौन घट गया तो हम यह भी कह सकते है , भगवत्साक्षात्कार घट गया ।

मनुष्य को विचारों से गहन मोह है , वह सूक्ष्म रूप से विचार हीन नही हो सकता । अन्तः करण भी सदा कुछ कहना चाहता है , और उसे ही ना सुन पाने से व्यक्ति वास्तविक जीवन की उपेक्षा करता है ।
वास्तविक मौन में सम्पूर्णता का मौन चाहिये , मनुष्य तो सोते समय भी मौन नही है ।
विचार शून्यता के लिये साधन की आवश्यकता नहीं , यह सभी को प्राप्त अवस्था है , परन्तु बाहरी और आंतरिक रोग उस अवस्था को फलित नही होने देते , विचार शून्यता के उपरांत ही जीवन में आध्यात्मिक क्रांति घटती है , और वास्तविक कर्ता का दर्शन होता है ।
ईश्वर के स्वर हेतु श्रवण की आवश्यकता है , और सच्चा श्रवण विचार शून्य ही हो सकता है , वरन श्रवण की स्थिति में भी कथन ही भीतर चलता रहता है ।
विचार शून्यता सहज नही , और विचार शून्यता ही वास्तविक दण्डवत है, शरणागति है ।
वासनाओं के हटने पर जीवन स्वतः वास्तविक माँग के पथ पर होता है । किसी भी क्रिया की आवश्यकता नही ।
--- सत्यजीत तृषित

Saturday, 18 June 2016

यह चेतन का वृत्त्यारूढ़ होना क्‍या है

यह चेतन का वृत्त्यारूढ़ होना क्‍या है? यह एक कल्पित स्थिति है। जैसे स्‍वप्न का रोग स्‍वप्न की ही औषधि से मिटता है, वैसे ही सृष्टि की कल्‍पना के कारण जो अन्‍त:करण की कल्‍पना करके उससे कल्पित रूप से तादात्‍म्‍यापन्न हो गया है, वह उस कल्पित अन्‍त:करण की कल्पित वृत्ति में कल्पित ब्रह्म की कल्‍पना करके इस तादात्‍म्‍य से मुक्त होता है। ब्रह्म कल्‍पना का विषय कभी बनता ही नहीं, अत: वृत्ति में आया ब्रह्म कल्पित ही होता है; किन्‍तु यह कल्पित ब्रह्माकार वृत्ति सकल अनर्थ की निवर्तिका है।

श्रुति-शास्‍त्र-सन्‍तवाणी मात्र सप्रयोजन हैं। यह प्रयोजन सृष्टि में-संसार में है और सप्राण मानव के लिए- शरीरधारी के लिए है। इस स्‍तर पर सृष्टि, शरीर, संसार- इस सबको सत्‍य मानकर ही साधक को चलना पड़ता है। अन्‍यथा प्रयोजन-पूर्ति के पश्‍चात तो जैसे शरीर तथा संसार का बोध होता है, शास्‍त्र का भी बोध हो जाता है।
इस शरीर एवं संसार को सत्‍य मानकर ही हम अनन्‍तकाल से व्‍यवहार कर रहे हैं। इसी में जन्‍म-मरण है। इसी में सुख-दु:ख हैं और इसी के सुख-दु:ख, जन्‍म-मरण के बंधन से छुटकारे का साधन शास्‍त्र बतलाते हैं। अब सामान्‍य चेतन को छोड़ दें तो इस संसार में दो चेतन और स्‍पष्‍ट हैं। एक शरीर में-अन्‍त:करण में अभिमान करने वाला जीव चेतन। यही जन्‍म-मरण के बंधन में पड़ा है। यही सुख-दु:ख का भोक्ता है और इसी को साधन करके मुक्त होना है।

'कार्यकरणकर्त्तृत्त्वे हेतु: प्रकृतिरुच्‍यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्‍तृत्‍वे हेतुरुच्‍यते।।
पुरुष: प्रकृतस्‍थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्‍गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्‍य सदसद्योनिजन्‍मसु।।
उपद्रष्‍टानुमन्‍ता च भर्ता भोक्ता महेश्‍वर:।
परमात्‍मेति चाप्‍युक्तो देहेऽस्मिन्‍पुरुष: पर:।।'
इस सृष्टि का संचालक एक चेतन है। वह सृष्टि में व्‍यापक रहता भी इससे परे है और इस शरीर में- अन्‍त:करण में ही वह अन्‍तर्यामी रूप से स्थित है। वह महेश्‍वर उपद्रष्‍टा है, अनुमन्‍ता है। वस्‍तुत: वही भर्ता और भोक्ता भी है। वह अन्‍तर्यामी अन्‍त:करण में होकर भी केवल उपद्रष्‍टा है। वह अन्‍त:करण का मुख्‍य द्रष्‍टा नहीं है और अन्‍त:रण में तादात्‍म्‍यापन्न होकर कर्त्ता भी नहीं बना है। कर्त्ता तो है प्रकृति। अन्‍त:करण और बहि:करण  दोनों प्रकृति के कार्य हैं। अत: इन्द्रियों से या मन से जो कुछ होता है, सब कार्य प्रकृति के गुणों से ही होता है।

Friday, 17 June 2016

श्रयते हरिम् या सा श्रीः

श्रयते हरिम् या सा श्रीः ।।

श्रीजी क्या ?  सेवा भक्ति। भक्ति ही श्री है ।

आराधनम् राधा -  आराधना ही राधा है ।

भक्ति - सेवा मे जो रस है ,  जो सार है , जिससे वह बन्धे है ,  जिस  रस सार में वह डूबी है , वह  भाव  रूपी  गोंद जिससे भक्ति सेवा  आराध्य  इष्ट से चिपकी  हो , भक्ति और सेवा का मूल  और  सार  तत्व ही श्री है  ,  राधा  है ।
अन्तः करण के  भाव रस में द्रवीभूत होने पर ही आह्लदिनी शक्ति प्रकट होती है ।
खाली  तरल हृदय नहीं ,,
द्रविभूत  हृदय में आह्लादिनी शक्ति  का विशेष आविर्भाव है , उसका महत्व है ,वह भक्ति है ।
द्रवीभूत  अन्तः करण तो  असमर्थता में होता  ही है  । पर उसमें भाव  रस विषयक आह्लाद नहीं होता जब  तक तब तक  भक्ति  नहीं  ।

प्रियतम् प्रभु का प्रेम

प्रियतम प्रभु का प्रेम

सादर जय श्रीकृष्ण! आपका कृपा पत्र मिला। जब उन ‘प्रियतम ने आपके मन से संसार को निकाल दिया’ तब फिर उसमें रहा ही क्या। वह सूना स्थान तो फिर उन्हीं का है। वे दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते; इसी से जो उनको चाहता है, उसको अपने मन से उनके अतिरिक्त सभी को निकाल देना पड़ता है। आपके कथनानुसार तो उन्होंने ही आपके मन को संसार से रहित कर दिया है। फिर घबराने की कोई बात नहीं है। प्रेम मिलेगा ही। वस्तुतः प्रेम न होता तो संसार निकलता ही कैसे। परंतु प्रेम का स्वभाव ही ऐसा होता है कि उसमें होने पर भी ‘न होने का’ ही अनुभव हुआ करता है। नित्य संयोग में वियोग की अनुभूति प्रेम ही कराता है और वह ‘वियोग’ समस्त योगों का सिर मौर होता है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपके मन में उनका प्रेम पाने के लिये इतनी तड़प है और आप इसके लिये बहुत दुःखी हैं। इस ‘तड़प’ और इस ‘दुःख’ से बढ़कर उनके प्रेम की प्राप्ति और क्या उपाय हो सकता है? आप इस वियोगमय योग का आश्रय लिये रहियें। यही तो प्रेमास्पद की प्रेमोपासना है- नित्य जलते रहना और उस जलन में ही अनन्त शान्ति का अनुभव करना!

प्रेमास्पद और प्रेमी के बीच में तीसरे का क्या काम? मुझ से कोई प्रार्थना न करके आप सीधे उन्हीं से प्रार्थना कीजिये। फिर आपके पत्र के अनुसार तो आप में-उनमें ‘हजारों लड़ाइयाँ हो चुकी हैं!’ ऐसी लड़ाइयाँ वस्तुतः प्रार्थना के स्तर से बहुत ऊँचे पर हुआ करती हैं। उन पर जो गुस्सा आता है, यह भी तो प्रेम का ही एक अंग है। फिर यह कैसे माना जाता है कि प्रेम नहीं है। ‘वे प्रेम देखकर चाहे जितना जुल्म करें’ जब यह आप की अभिलाषा है, तब आप उनके जुल्म में प्रेम का दर्शन क्यों न करें? यदि जुल्म में ही उन्हें मजा आता है, यदि तरसाने में ही उन प्रियतम को सुख मिलता है तो बड़ी खुशी की बात है। वे पराये होते तो भला जुल्म करते ही कैसे? प्रेम न होता तो तरसाते ही कैसे? वहाँ तो यह प्रश्न ही नहीं होता। मेरी राय माँगी सो मेरी राय तो यही है कि बस, उन्हीं पर निर्भर कीजिये, उन्हीं से प्रार्थना कीजिये, उन्हीं को कोसिये और उन्हीं से लड़ियें। कभी हिम्मत न हारिये-कभी निराश न होइये। वे छिप-छिपकर यों ही ‘झाँका’ करते है, स्वयं पकड़ में न आकर पहले यों ही ‘फँसाया’ करते हैं; वे ‘लिया’ ही करते हैं ‘देते नहीं।’ परन्तु यह सच मानिये, उनका यह छिप-छिपकर झाँकना आपके हाथों में पड़ने के लिये ही होता है; वे फँसने के लिये फँसाया करते हैं और अपना सर्वस्व देने के लिये ही ‘लिया’ भी करते हैं। जय श्रीकृष्ण!

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 3

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 3

मेरे नैना ही यह जानै।
जेतिक भीर परत अवलोकत ठौर-ठौर छवि मांझ बिकानैं।।
रूप अगाध अकधि सखि अंग-अंग रसना, वपुरी कहा बखानै।
तन-मन बूड़ि जात देखत ही कहा हेाइ उर भीतर आनैं।।
सुधि-बुधि-बल-वितु-चतुर-चातुरी कछ न सरै कोटिक जोठानैं।
प्रान प्रिया सभंराये समझिये कहा कहाये आप सयानैं।।
हौं तौं दारू-पुतरिया प्रिया कर नचवत हितकर जैसे जानैं।
सर्वसु सुखथितु जीवन बलवितु नागरी दास हम हाथ बिरानें।।[1]

इतने तृषातुर, दीन और अधीर प्रेमी के लिये प्रेम- पात्र का पूजन करने के अतिरिक्त अन्‍य मार्ग नही रह जाता। उनकी अपनी अनंत प्रेम-तृषा और श्रीराधा के अपार प्रेम- सौन्‍दर्य ने मिलकर श्‍याम- सुन्‍दर को सर्वथा अविभूत कर लिया है और वे श्रीराधा के वास्‍तविक पूजक बन गये हें। उनका उद्दाम प्रेम प्रेम- लक्षणा भक्ति बन गया हैं। जिस प्रेम में प्रेम पात्र का पूर्ण गौरव प्रकाशित रहता है और उसकी रूप एवं गुण- गरिमा के कारण उसके प्रति पूज्‍य भाव जाग्रत हो जाता हैं, वह प्रेम- लक्षणा- भक्ति कहलाता है।

श्रीमद् भागवत् में भक्ति के नो प्रकार बतलाये हैं- श्रवण, श्रवण, कीर्तन, स्‍मरण, पाद- सेवन, अर्चन, वंदन, दास्‍य, सख्‍य और आत्‍म-निवेदन। उसका दसवां प्रकार प्रेम- लक्षणा भक्ति हैं। प्रेम के उदय के साथ नवधा- भक्ति का लय प्रेम- लक्षणा में हो जाता है और श्रवण- कीर्तनादिक प्रेम के आश्रित बन जाते हैं। प्रेम के रेग में रंग कर श्रवणादि प्रेमास्‍वाद के विभिन्न प्रकारों के रूप में सामने आते हैं और प्रेमी के द्वारा सहज रूप से निष्‍पन्न होते रहते हैं। प्रेमी अपने प्रेम पात्र के गुणों का श्रवण करता है, मन में स्‍मरण करता है और समान मना व्‍यक्तियों में बैठ कर उसकी चर्चा करता है, कीर्तन करता है। वह प्रेम पात्र का दास्‍य और सख्‍य करता ही है और उसके प्रति आत्‍म- आत्‍म- निवेदन भी करता है। पाद- सेवन, अर्चन और वंदन भी अधीर प्रेमियों में देखे जाते हैं।

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

‘हित चतुरासी’ में श्‍यामसुन्‍दर ने अपनी देह को श्रीराधा- पद- पंकज का सहज मंदिर बतलाया है, तब पद- पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह|' [1]

भक्ति का अर्थ ‘सेवा’ है। भक्ति के उदय के साथ सेवा का चाव बढ़ता है। सेव्‍य की रुचि लेकर उसकी सेवा करना, सेवा का आदर्श माना जाता है। अपनी अपार सेवा- रुचि को श्रीराधा के आगे प्रगट करते हुए श्‍याम- सुन्‍दर कहते हैं, हे प्रिया, तुम जहां चरण रखती हो वहां मेरा मन छाया करता फि‍रता है। मेरी अनेक मुर्तियां तुम्‍हारे ऊपर चवंर ढुराती हैं, कोई तुमको पान अर्पण करती हैं, कोई दर्पण दिखाती है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की सेवायें, जैसा भी मुझे कोई बतला देता है, मैं तुम्‍हारी रुचि लेकर करता रहता हूं। इस प्रकार, हर एक उपाय से मैं तुम्‍हारी प्रसन्नता प्राप्त करने की चेष्टा करता हूं।'

जहां- जहां चरण परत प्‍यारी जू तेरे। तहां- तहां मेरौ मन करत फिरत परछांही। बहुत मूरित मेरी चंवर ढुरावत एकोऊ बीरी खबाबत, एक आरसी लै जाहीं। और सेवा बहुत भांतिन की जैसी ये कहैं कोऊ तैसी ये करौं ज्‍यौं रुचि जानौ जाही। श्री हरिदास के स्‍वामी श्‍यामा कौ भलौ मनावत दाई उपाई।[2]

श्रीराधा- नाम का माहात्‍म्‍य ख्‍यापन करते हुए हिताचार्य ने कहा है ‘जिसका स्‍वयं श्रीहरि प्रेम पूर्वक श्रवण करते हैं, जाप करते हैं, सखी जनों में सहर्ष गान करते हैं त‍था प्रेमाश्रु- पूर्ण मुख से उच्‍चारण करते हैं, वह अमृत-रूप-राधा-नाम मेरा जीवन है।’

प्रेम्‍णाअकर्णयते,जपत्‍यथ,मुदा गायत्‍यथाअलिण्‍वयं।
जल्‍पत्‍यश्‍श्रु मुखो हरिस्‍तदमृतं राधेति मे जीवनम्।।

'द्वादश-यश’- कार स्‍वामी चतुर्भुजदासजी ने अपने ‘श्रीराधा प्रताप यश’ में श्‍याम सुन्‍दर के द्वारा श्री राधा के प्रति श्रवणादिकों का प्रेममय आचरण बड़े सुन्‍दर ढंग से दिखलाया है। प्रथम तीन के संबंध में वे कहते हैं,

श्रवणानि सुजस सखिनु पहं सुनत, राधा नाम रैन-दिन भनत।
सुमिरन मन विसरै नहीं।

श्री राधा के अन्‍त्‍यन्‍त सुन्‍दर और सुकुमार चरणों पर रीझ कर श्‍याम सुन्‍दर उनमें जो जावक के द्वारा चित्र-रचना करते हैं वही ‘पाद-सेवन’ बन जाता है और प्रिया का नख-शिख श्रृंगार करते हैं वही उनका ‘अर्चन’ होता है।

जावक रचि चरननि जु बनाई, नूपुर माल रुचिर पहिनाई।
प्रेम सु प्रताप जस।।
मृगमद तिलक देत रचि भाल, पहिरावत पहुपनि की माल।
अपने कर कबरी गुथत।।
भूषण पट पहिरावत आइ, मुख बीरी हरि देत बनाइ।
दर्पन जै जु दिखावहीं।।
देखि रूप डारत तृन तोरि। .............................
वंदन, दास्‍य और आत्‍म निवेदन तो स्‍पष्ट ही है।
..............................वंदत चरण सीस कर जोरि।
दासंतन सब विधि करत।।
तन, मन, प्रान समर्पन कियौ, मीन-नीर ज्‍यौं, त्‍यौं पन लियौ।
श्रीराधा सु प्रताप जस।।

इस प्रकार, नवधा-भक्ति का सांगोपांग निर्वाह करने के बाद श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रियतमा से यह वरदान मांगते हैं।

मांगत दान मान जिन करौ, देहु बचन मेरे कर धरौ।
निर्तत अति आनंद ह्रैं।।
क्रमशः ...
जय जय श्यामाश्याम ।।

Thursday, 16 June 2016

भगवत् कृपा और भगवान की मर्ज़ी

भगवत् कृपा -- यह शब्द नहीँ , भगवान के अन्तरंग प्रेमियों का जीवन है । जीवन ओषधि है । और मर्म है , सार है उनकी श्वांस - श्वांस का ।
कृपा से जो सब हो सो हो यह बात जीवंत होना अर्थात् कृपा का दर्शन हो गया ।
कृपा क्या है ? भगवान की शक्ति , उनका विधान , उनके अनुकूल जो भी हो वह । कृपा दिखाई देवे तो कृपा करने वाले भी समीप ही है , संग ही है । वरन् कृपा दिखती नहीँ । कृपा अहंकार के होने तक नहीँ दिखेगी । अहंकार गया , कर्मफल का बोध हुआ , अपने करने या ना करने का सही ज्ञान भीतर हुआ कि सब हो ही रहा है , करना नहीँ पड़ता । करना ही कृपा को दिखने नहीँ देता , और ना करने अथवा करने पर ना करने का अकर्ता भाव , जो हो रहा उसे प्रकट करती । सब कृपा तब होता । कामना या इच्छा कृपा दर्शन की बाधक है , वह स्वभाविक विधान को नियंत्रण करना चाहती है । कृपा तो नित्य है , सदा । प्रतिकूलता में कृपा का दर्शन होने लगे तब जीवन भगवत् रस में ही है । अनुकूलता में कृपा दर्शन भगवान से आंतरिक पृथकता और कही न कही स्व सिद्धि भावना को कहती ।
आंतरिक मिलन होने पर बाहरी प्रतिकुलता अनुभूत् नहीँ होती । केवल सरस मधुर कृपा ही वहाँ होती । अतः प्रतिकूलता में भगवत्कृपा को ही पाना सच्चे तप और भजन का समुचित स्वभाविक फल है ।
प्रतिकूलता को अनुकूलता में परिवर्तन की चाह भी कृपा दर्शन नहीँ चाहती , मनुष्य को एक चुनाव करना है अपनी समझ की अनुकूलता अथवा नित् भगवत् कृपा दर्शन ।
भगवान के सरस प्रेमी तो नित् पल बाहर कैसी भी स्थिति में कृपा रस में ही डूबे है ।
परन्तु शेष प्रयासरत् और जगत् कृपा का दर्शन नहीँ कर पाता , जिसका कारण भोगमयी कामना है ।
कामना से विराम का एक क्षण ही कृपा रस में डूबा होगा । मानव जिस जीवन की सदा से चाह करता रहा है वह चाह रहित भगवत् विधान अनुकूल कृपा रस में डूबा जीवन ही है । इस स्थिति में रोम - रोम जी उठता है । कृपा दर्शन की आतुरता में बाहरी और भीतरी अभिन्नता होने लगती है ।
कृपामय जीवन इतना सुंदर और रसमय है कि फिर अपनी ही कामना विष है ।
जीवन का वास्तविक अर्थ भगवत् शरणागति में है , जहाँ कुछ किया नहीँ जाता , ना ही चाह से होता है । वहाँ सब कुछ मिलता है , और जो मिलता है वह प्रसाद ही होता है ।

संसार में कुछ और शब्द भी प्रयोग होते है , जैसे भगवान की इच्छा । और जैसी भगवान की मर्ज़ी ।
अर्थ में यह समान होने पर भी भिन्न - भिन्न भावना में होते है ।
भगवान की इच्छा और कृपा एक ही है , परन्तु कृपा शब्द आह्लादित और रसमय स्थितियों में होता है , प्रसाद रूप स्वीकार्यता संग ।
भगवान की इच्छा , ही सब है पर इसे परस्पर जब कहा जाता है तब अपनी इच्छा पूरी ना होने की भावना रहती है ।
और भगवान की मर्ज़ी । यह सबसे अधिक आमतौर पर कहा जाता है , इसमें भगवान को शासक सिद्ध किया जाता है , और स्वयं को शोषित । जैसे जबरन भगवान की मर्ज़ी हो रही हो , और इस के कथन में उदासीनता होती है , कि माननी। ही पड़ेगी मर्ज़ी । भले मन कुछ और चाहे ।
अपनी कामनाएँ जब तक सही लगती है , कि हमने स्वयं हेतु सही चुनाव किया और भगवान की मर्ज़ी अलग है ।और हो भी भगवान की मर्ज़ी रही तो यहाँ पीड़ित दबाव में कहता है , जैसी भगवान की मर्ज़ी ।
अपनी और भगवान की चाह में पृथकता से यह होता है , और भगवान का विधान अपनी चाह के विपरीत लगें तब , अपनी चाहत इतनी सिद्ध लगती है कि भगवत् विधान में दोष दीखता है ।
भगवान की मर्ज़ी , दुर्घटना - दुःख प्रीतिकुल आदि स्थितियों में कही जाती है , जैसे भगवान की मर्ज़ी दुःखी करने की हो ।
ऐसे लोग भगवान को सत्ताधिकारी मानते है , प्रेमी नहीँ । और स्वयं को उनकी सत्ता में पीड़ित , उनसे पृथक् अस्तित्व जीव।
कितना ही सत्संग सुना हो ,पर बोलचाल में जब यह वेदना मयी लम्बी साँस से सुनता हूँ कि भई हम तो उसकी मर्ज़ी के गुलाम है । वो नचाये वैसे नाच रहे , फिर गहरी साँस ।
भीतर गहरी पीड़ा उठती कि कब भगवान का प्रेम कोई समझना चाहेगा । उनके रस में डूबना चाहेगा । बड़े - बड़े लोगो को इस तरह पीड़ित देखा है । वह शोषक नहीँ है , प्रेमी है । शोषक दिखने का कारण भीतर की वासना और भौतिकता की लोलुप्ता है ।
और भगवान की मर्ज़ी को जुल्म की तरह सहने वाले स्वयं को भगवत् प्रेमी ही अभिव्यक्त करते भी है ।

भगवान का सच्चा प्रेमी भगवान की इच्छा को ही पूरा करना चाहता ।
हे गोविन्द आपके मन की हो बस यही प्रार्थना ...
----  सत्यजीत तृषित ।।