Thursday, 7 September 2017

पिण्डदान

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इस शरीर को पिण्ड कहते हैँ। इसे परमात्मा को अर्पण करना ही पिण्डदान है । यही निश्चय करना है कि मुझे अपना जीवन ईश्वर को अर्पित करना है । जो अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करता है उसी का जीवन सार्थक है और उसी का पिण्डदान सच्चा है ।
जीवन मृत्यु के त्रास से छुड़ाने वाला केवल सत्कर्म ही है और वह सत्कर्म भी अपना ही किया हुआ स्वयं ही अपनी आत्मा का उद्धार करता है । जीव स्वयं ही अपना उद्धार कर सकता है । श्रीगीता मेँ स्पष्ट कहा - "उद्धरेदात्मानाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।"
स्वयं अपने द्वारा ही अपनी आत्मा का संसार सागर से उद्धार करना है और अपनी आत्मा को अधोगति की ओर नही जाने देना है । ईश्वर के जो जीता है उसे मुक्ति अवश्य मिलती है । श्रुति भगवती कहती है - जब तक ईश्वर का अपरोक्ष अनुभव न हो , ज्ञान न हो तब तक मुक्ति नहीँ मिलती । मृत्यु के पहले जो भगवान का अनुभव करते हैँ , उन्हेँ ही मुक्ति मिलती है । परमात्मा के अपरोक्ष साक्षात्कार बिना मुक्ति नहीँ मिलती ।
"तमेव विदित्वादि मृत्युमेति नान्यः पंथा विद्यतेष्यनाय "
ईश्वर को जानकर ही हम मृत्यु का उल्लंघन कर पायेगे है । परमपद की प्राप्ति हेतु इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीँ है । श्रीभगवान को जाने बिना कोई दूसरा उपाय नहीँ है । अन्यथा केवल श्राद्ध करने से कोई मुक्ति नहीँ मिलती । अपने पिण्ड का दान करने अर्थात् अपने शरीर को ही श्रीपरमात्मा को अर्पण करने से हमारा कल्याण होगा ।
अपना पिण्डदान हमे स्वयं अपने हाथोँ से ही करना होगा यही उत्तम होगा । जो पिण्ड मेँ है वही ब्रह्माण्ड मेँ है । हमे यह निश्चय करना चाहिए कि इस शरीर रुपी पिण्ड श्रीपरमात्मा को अर्पण करना है ।

स्वान्तः सुखाय ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤

श्रीहरिशरणम्
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