Monday, 25 September 2017

गिरिराज जी के अंग

विभिन्‍न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्‍न अंगों की स्थित का वर्णन

बहुलाश्‍व ने पूछा– महाभाग ! देव !! आप पर, अपर-भूत और भविष्‍य के ज्ञाताओं में सर्वश्रेष्‍ठ हैं। अत: बताइये, गिरिराज के किन-किन अंगों में कौन-कौन से तीर्थ विद्यमान हैं ?

श्रीनारदजी बोले– राजन ! जहाँ, जिस अंग की प्रसिद्धि है, वही गिरिराज का उत्‍तम अंग माना गया है। क्रमश: गणना करने पर कोई भी ऐसा स्‍थान नहीं है, जो गिरिराज का अंग न हो। मानद ! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अंग उसी के हैं, उसी प्रकार विभूति और भाव की दृष्टि से गोवर्धन के जो शाश्‍वत अंग माने जाते हैं, उनका मैं वर्णन करूंगा। श्रृंगार मण्‍डल के अधोभाग में श्रीगोवर्धन का मुख्‍य है, जहाँ भगवान ने व्रजवासियों के साथ अन्‍नकूट का उत्‍सव किया था। ‘मानसी गंगा’ गोवर्धन के दोनों नेत्र हैं, ‘चन्‍द्रसरोवर’ नासिका, ‘गोविन्‍दकुण्‍ड’ अधर और ‘श्रीकृष्‍ण कुण्‍ड’ चिबुक है। ‘राधाकुण्‍ड’ गोवर्धन की जिह्वा और ‘ललिता सरोवर’ कपाल है। ‘गोपालकुण्‍ड’ कान और ‘कुसुमसरोवर’ कर्णान्‍तभग है। मिथिलेश्‍वर ! जिस शिला पर मुकुट चिन्‍ह है, उसे गिरिराज का ललाट समझो। ‘चित्रशिला’ उनका मस्‍तक ओर ‘वादिनी शिला’ उनकी ग्रीवा है। ‘कन्‍दुक तीर्थ’ उनका पार्श्‍वभाग है और ‘उष्‍णीषतीर्थ’ को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है। ‘द्रोणतीर्थ’ पृष्‍ठ देश में और ‘लौकिकतीर्थ’ पेट में है। ‘कदम्‍ब खण्‍ड’ हृदय स्‍थल में है। श्रृंगार मण्‍डल तीर्थ’ उनका जीवात्‍म है। ‘श्रीकृष्‍ण चरण चिन्‍ह’ महात्‍मा गोवर्धन का मन है। ‘हस्‍तचिन्‍हतीर्थ’ बुद्धि तथा ‘ऐरावत चरणचिन्‍ह’ उनका चरण है। सुरभि के चरण चिन्‍हों में महात्‍मा गोवर्धन के पंख हैं। ‘पुच्‍छकुण्‍ड‘ में पूँछ की भावना की जाती है। ‘वत्‍सकुण्‍ड‘ में उनका बल, ‘रुद्रकुण्‍ड’ में क्रोध तथा ‘इन्‍द्रसरोवर’ में काम की स्थिति है। ‘कुबेरतीर्थ’ उनका उद्योग स्‍थल और ‘ब्रह्मतीर्थ’ प्रसन्‍नता का प्रतीक है। पुराणवेत्‍ता पुरुष ‘यमतीर्थ’ में गोवर्धन के अहंकारी स्थिति बताते हैं।

मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्‍हे सर्वत्र गिरिरिाज के अंग बताये हैं, जो समस्‍त पापों को हर लेने वाले हैं। जो नरश्रेष्‍ठ गिरिराज की इस विभूति को सुनता है, वह योगिजन दुर्लभ ‘गोलोक’ नामक परमधाम में जाता है। गिरिराजों का भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरि के वक्ष: स्‍थल से प्रकट हुआ है और पुलस्‍त्‍य मुनि के तेज से इस व्रजमण्‍डल में उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शन से मनुष्‍य का इस लोक में पुनर्जन्‍म नहीं होता।

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