Monday, 18 September 2017

भगवत विग्रह भाव 3 (कविराज जी)

भगवद्विग्रह भाग 3
(महामहिम पं श्री गोपीनाथ जी कविराज जी)

जि– तब यह समझना चाहिये कि कारण मण्‍डल को अतिक्रमण किये बिना, माया के अधिकार से छूटे बिना भगवद्देह या भगवत्-स्‍वरूप के दर्शन नहीं किये जा सकते।
व– यही बात है। भगवान का जो परमरूप है, जिसको शास्‍त्रकारों ने नित्‍योदित रूप कहा है वह नित्‍यमुक्तों के द्वारा ही देखा जा सकता है।
जि– अच्‍छा, पाञ्चरात्रायायी किसी-किसी सम्‍प्रदाय के द्वारा भगवान के पञ्चविध स्‍वरूपों का वर्णन किया जाता है, उनमें क्‍या तारतम्‍य है ?
व– उनमें तारतम्‍य न होने पर भी है। जो उनका परम रूप है जिसका केवल नित्‍य और मुक्त पुरुषगण ही अनुभव कर सकते हैं। अनन्‍त, गरुड़, विष्‍वकसेन आदि जो अनादिकाल से स्‍वभावत: ही असंकचित-ज्ञानवान हैं, वे नित्‍य हैं। और जो संसार से निवृत होकर ज्ञान के संकोच को दूर कर सके हैं, वे मुक्त हैं। वे भी परम पद पर विराजते हैं। भगवान का परम रूप केवल इन्‍हीं के ज्ञान और नेत्रों का विषय होता है।
यह नित्‍य जिस देश में सर्वदा विराजित हैं उस देश में कालकृत परिणाम नहीं है, आनन्‍द का अन्‍त नहीं है,– वह देश भगवान की नित्‍य-विभूतिस्‍वरूप है। परन्‍तु भगवान का दूसरा रूप– जो व्‍यूह के नाम से परिचित है– इससे पृथक है। नित्‍यविभूति के बाहर लीलाविभूति में भगवान व्‍यूहरूप धारण करके अव‍स्थित हैं। यह रूप सृष्टि, पालन और संहार करने के लिये, संसारी जनों का संरक्षण करने के लिये ग्रहण किया जाता है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्‍न और अनिरुद्ध– ये चार व्‍यूह हैं। वस्‍तुत: संकर्षणादि तीन ही व्‍यूह हैं– वासुदेव तो व्‍यूह मण्‍डल में आकर व्‍यूहरूप में केवल गिने जाते हैं।
जि– तब तो मालूम होता है कि परम रूप और व्‍यूह में यथेष्ट पार्थक्‍य है। परम रूप जगत के अतीत हैं– वहाँ सृष्टि आदि व्‍यापार नहीं हैं, संसार ही नहीं है इससे संसारी जनों का उद्धार भी नहीं है। सभी कृतकृत्‍य होने के कारण कोई उपासक नहीं है, इसलिये अनुग्रह भी नहीं है। परन्‍तु व्‍यूहरूप तो काल राज्‍य में ही स्थित प्रतीत होता है।

व– तुमने ठीक कहा है। ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज– इन छ: अप्राकृत गुणों का एक ही साथ प्रादुर्भाव भगवान के ही विग्रह में प्रकाशित होता है। इसीलिये शास्‍त्रों में भगवान को षगण्‍य-विग्रह कहा गया है। भगवान के जिस स्वरूप में ये छहों गुण पूर्णरूप से एक ही साथ स्थित हैं, उसी का नाम ‘वासुदेव’ है।
ज्ञान और बल इन दो गुणों की प्रधानता से संकर्षण, ऐश्वर्य और वीर्य की प्रधानता से प्रद्युम्‍न और शक्ति तथा तेज के प्राधान्‍य से अनिरुद्ध नामक व्‍यूह का आविर्भाव होता है। याद रखना चाहिये कि वासुदेवरूप ही त्रिविध विषमता को प्राप्त होकर व्‍यूहत्रय बन गया है। अतएव संकर्षणादि प्रत्‍येक विग्रह ही वस्‍तुत: षड्गुणात्‍मक हैं, परन्‍तु तत्त कार्य-साधन के लिये उनमें केवल दो-दो गुण ही प्रधान रूप से भासते हैं। इसलिये संकर्षणादि भी भगवान के ही स्‍वरूप हैं, इसमें सन्‍देह नहीं करना चाहिये। भगवान परमरूप नित्‍योदित (नित्‍य वासुदेव) है, वह नित्‍य गणों के द्वारा सेव्‍य हैं और व्‍यूहादिरूप शान्‍तोदित (व्‍यूह वासुदेव) हैं; इन दोनों को एक समझकर बहुत बार व्‍यूह को त्रिविध कहा जाता है।
संकर्षण जीवतत्त्व के अधिष्ठाता हैं, ईश्वर के अधिष्ठान बिना जीव का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। जब भगवान की सृष्टिच्‍छा होती है तब वे प्रकृति में विलीन जीवतत्त्व के अधिष्ठिता होकर प्रकृति के अन्‍दर से जीव को अलग करके निकाल देते हैं। इसी के साथ ही अव्‍याकृत-प्रकृति से नामरूप जाग्रत हो उठता है। प्रद्युम्‍न मन के अधिष्ठाता हैं। प्रद्युम्‍न से वीर्य द्वारा सर्वधर्मों का प्रवर्तन होता है और ऐश्वर्य द्वारा शुद्ध सृष्टि का विधान होता है। संहार प्रद्युम्‍न से होता है। शुद्ध सर्ग के अन्‍दर एक मनु की मुख से और एक-एक मनु की बाहु, ऊरु एवं पाद से सृष्टि होना ही प्रधान सृष्टि है। इन चारों मनुओं को ब्राह्मणादि प्रतिवर्ण की एक-एक युगल-मूर्ति स्‍वरूप समझना चाहिये। इन मनुचतुष्टय से क्रमश: मानव, मानव-मानव और मनुष्‍य उत्‍पन्‍न होते हैं। ये सभी शुद्धसत्त्वस्‍थ, निष्‍काम, भगवत-परायण और अध्‍यात्‍म चिन्‍तक होते हैं।

अनिरुद्ध अनन्‍त जगत के (शक्ति के द्वारा) रक्षाकर्ता एवं तत्त्वज्ञान ज्ञाता हैं और (तेज के द्वारा) कालसृष्टि और मिश्रसृष्टि के विधाता हैं। यही ब्रह्मा के सृष्टिकर्ता हैं। ब्रह्मा से चार प्रकार के रजोबहुल भूतसर्ग (ब्राह्मण आदि)– की उत्‍पत्ति होती है– ये सकाम और कर्मासक्त होते हैं। अनिरुद्ध स्‍वयं ही अण्‍ड और अण्‍ड का कारण उत्‍पन्न करते हैं। एवं चेतन के अन्‍तर्यामी होकर अण्‍ड के अन्‍तर्गत वस्‍तु समूह की सृष्टि करते हैं। इसीलिये वे अपने संकल्‍प बल से सारी समष्टि-सृष्टि साक्षात-रूप से और व्‍यष्टि-सृष्टि किसी द्वार का अवलम्‍बन करके करते हैं। इस अण्‍ड में जो बद्धात्‍म समष्टिरूप ब्रह्मा जन्‍म ग्रहण करते हैं यही उनकी साक्षात सृष्टि का निदर्शन है। फिर उस ब्रह्मा के द्वारा जो सृष्टि होती है, वह दूसरी प्रकार की सृष्टि है।[1]

जि– अब भगवान के तीसरे रूप की बात कहीये ।
व– भगवान के तीसरे रूप का नाम विभव है। उसे अनन्‍त होने पर भी मुख्‍य और गौण भेद से दो प्रकार का समझना चाहिये। भगवान का जो प्रादुर्भाव (भगवत्-रूप से) अन्‍य की भाँति होकर होता है वही विभव है। मुख्‍य विभव साक्षात अवतार है और गौण विभव आवेशावतार है। आवेश शक्ति का भी हो सकता है और स्‍वरूप का भी।
स्‍वरुपावेश में भगवान अपने असाधारण विग्रह के साथ चेतन-शरीर में प्रविष्ट होते हैं– जैसे परशुराम। और यदि कार्यकाल में शक्तिमात्र का ही स्‍फुरण होता है तब वह शक्‍त्‍यावेश है– जैसे ब्रह्मा आदि। जो अवतार मुख्‍य और साक्षात होते हैं, उनके विग्रह दिव्‍य और अप्राकृत होते हैं, तथा स्‍वभाव अच्‍युत अर्थात अंशी के सदृश होता है। ये अवतार मुमुक्षुगणों के लिये उपास्‍य हैं। दीपक से जैसे सम स्‍वभाव विशिष्ट दीपकान्‍तर आविर्भूत होता है वैसे ही मुख्‍य अवतार जगत की रक्षा के लिये प्रकट हुआ करते हैं। इनमें किसी का मनुष्‍य के सदृश होता है तो किसी का पशु के समान और किसी का स्‍थावर के जैसा। इसमें केवल भगवदइच्‍छा ही कारण है और कोई भी कारण नहीं है, कर्मादि इसमें कारण नहीं हैं। परन्‍तु जो गौण अवतार होते हैं वे मुमुक्षुओं के उपास्‍य नहीं होते। कारण, वे स्‍वातन्‍त्रयरुपी अहंकारयुक्त जीवों के अधिष्ठाता होते हैं। केवल भोगार्थी प्रवृक्तिमार्गी ही इनकी उपासना करते हैं। ये शक्‍त्‍यावेशावतार होते हैं। गौणावतारों में बहुत प्रकार के भेद हैं। क्रमशः ...

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