*भगवद्विग्रह भाग 2*
(वक्ता- महामहिम पं श्री गोपीनाथ कविराज जी)
जि– आप कहना चाहते हैं कि इस प्रकार की चित्तशुद्धि से जो तथाकथित अतीन्द्रिय-दर्शन होता है, वह भी भगवत्रुप के दर्शन के अनुरूप नहीं है।
व– निश्चय ही तुम क्या यह सोचते हो कि देवर्षि नारद अतीन्द्रियदर्शी नहीं थे ? तथापि वे भगवद्रूप का दर्शन नहीं कर सके। भगवद्रूप अतीन्द्रिय अवश्य है, परन्तु अतीन्द्रिय-वस्तुओं के भी स्तर हैं।
इन्द्रिय के अगोचर राज्य में जाते ही भगवद्धाम में प्रवेश नहीं हो जाता। परन्तु यह बात भी नहीं है कि भगवद्रूप इन्द्रियगोचर ही नहीं होता।
जि– इन सब तत्त्वों का समझना बहुत ही कठिन मालूम होता है। इन विषयों की विशेष आलोचना से पहले जीव के देह-संबंध में कुछ जानने की इच्छा होती है। जीव-देह का रहस्य समझ में आ जाने पर भगवद्देह का रहस्य समझना सहज होगा। जीव के कितनी देह हैं ?
व– साधारण तौर पर यही जान लो कि जीव के तीन देह हैं; यद्यपि इसके अन्दर भी बहुत-सी सूक्ष्म बातें हैं। स्थूल, सूक्ष्म और कारण– जीव के यह तीन प्रकार की जड़ देह भी हैं, जो चैतन्यमय है।
जि– भगवान के भी इसी तरह के देह हैं ?
व– भगवत-स्वरूप ही भगवद्देह है, वह चिदानन्दमय है, यह बात पहले कही जा चुकी है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण– हय त्रिविध जड़ या मायिक देह उनके नहीं हैं। जड़ देह धारण करने के लिये अभिमान चाहिये, वह भगवान में नहीं है, सुतरां जड़ द्रव्य भगवद्देह नहीं हो सकती। परन्तु अभिमान न होने पर भी आवश्यक होने पर वे अभिमान की रचना करके उसका आश्रय कर जड़ देह ग्रहण कर सकते हैं। परन्तु इतना स्मरण रखना चाहिये कि यह अभिमान आगन्तुक है और ऐसी ही यह देह भी है। स्वरूपत: जीव के भी जड़देह नहीं है। जीव का स्वरूप भी चिन्मय है। परन्तु जीव भेद-दृष्टि से भगवदंश होने के कारण आत्मविस्मृतावस्था में जड़देह का अभिमान कर सकता है।
अभिमान की निवृत्ति न होने तक जीव की जड़ देह रहेगी ही। अवश्य ही भगवत्-परिकर-भावसम्पन्न जीवों के संबंध में यह नियम सर्वदा लागू नहीं होता। भगवान की भाँति वे भी आहार्य या आगन्तुक अभिमान का आश्रय कर नवसृष्ट या पूर्वसृष्ट देह में अनुप्रविष्ट हो सकते हैं। साधारण जीव जो कि भगवद्धाम के साथ संसृष्ट नहीं है– माया के प्रभाव से आत्मविस्मृत होकर प्राकृत जगत में पतित होते हैं और प्राकृत देह में अभिमान करते हैं। उनका अभिमान ज्ञानोदय के पूर्व क्षणतक वास्तविक होता है– आत्मज्ञान उदय होने पर वह कट जाता है, साथ-ही-साथ देह-संबंध भी टूट जाता है।
जि– अच्छा ! वेदान्तशास्त्र में जो व्यष्टि और समष्टि भाव से स्थूल, सूक्ष्म और कारण-देह का विचार पाया जाता है, वह भी क्या जीवदेह है ?
व–विश्चय ही। व्यष्टिभाव से स्थूल आदि देह का अभिमानी जीव वैश्वानर, तैजस और प्राज्ञ के नाम से कहा जाता है। समष्टिभाव का अभिमान रहने से विश्व, हिरण्यगर्भ और ईश्वर ये तीन नाम दीये जाते हैं। परमार्थत: दोनों ही जीव हैं। यहाँ जिसे ‘ईश्वर’ कहा गया है, यह भी नित्य ईश्वर नहीं है। कार्य ईश्वर हैं। तत्त्व-दृष्टि से ये भी जीव ही हैं। ब्रह्मादि त्रिमूर्ति इन्हीं की हैं– ये भी त्रिगुण सम्बन्धी हैं। नित्य ईश्वर त्रिगुणातीत है– विशुद्ध या अप्राकृत सत्त्रवगुण को आश्रय करके वे आत्मप्रकाश करते हैं। विशुद्ध सत्त्व नित्य वस्तु होने से परमेश्वर की उपाधिभूत देह भी नित्य और अप्राकृत है। इस विषय की क्रमश: आलोचना की जायेगी।
जि– तब क्या भगवान के व्यष्टि-समष्टि विभाग नहीं हैं, उनके देह भी नहीं है ?
व– इसमें क्या सन्देह है ? अच्छा, अब तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ, मन लगाकर सुनो। शुद्ध जीव भगवान का अंश है; नित्य, अव्यक्त (अतीन्द्रिय), आनन्दरूप, स्वप्रकाश, चिदात्मक, निरवयव और निर्विकार है। जीव का परिमाण अणुमात्र है– परन्तु अणु होने पर भी वह स्वगुण ज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्यापक है। ज्ञान इसके आश्रित है। आत्मा का जैसे स्वरूप है वैसे ही उसका ज्ञान भी नित्य, अजड़, आनन्दरूप द्रव्यविशेष है। प्रत्येक जीव का स्वरूप जीव भाव से पृथक है, परन्तु वह पार्थक्य समझाया नहीं जा सकता। जब कुछ भी औपाधिक भेद नहीं रहता तब भी वह पार्थक्य लुप्त नहीं होता। किन्तु उस स्वरूप की अभिव्यक्ति भगवान की विशेष कृपा बिना नहीं होती।
कारण-जगत में जो बीजभूत जीवदेह है वही कारण शरीर है, वह जीव का स्वरूप नहीं है। जीव का स्वरूप वस्तुत: कार्य-कारण-चक्र के भी अतीत है। कारण-देह भी एक प्रकार नित्य है– वह प्रवाह रूप से नित्य है। बीज का ध्वंस नहीं है, उत्पत्ति भी नहीं है। जिस प्रवाह से समग्र जगत चल रहा है, वह जब तक है तब तक यह जगत भी है। कारण अलिंग है, परन्तु इसी से लिंग आविर्भूत होकर भौतिक आवरण से पुष्टि और स्थूलता को प्राप्त करता है। प्रयोजन बोध या कामना से ही कारण कार्यरूप में परिणत होता है।
जब जिस मात्रा में वह प्रयोजन सिद्ध होता है और कामना निवृत्त होती है तब उसी परिमाण में जीव मुक्त होता है। प्रयोजन और कामना पूर्णरूप से तृप्त हो जाने पर फिर सृष्टिचक्र में रहना नहीं पड़ता। जीव जब कारण-जगत में अपने कारण-देह में अहंबोध करता है तब वह अपने देह (कारण)-से विद्युत- स्फुलिंग के सदृश लिंग-ज्योति का आविर्भाव देखता है।
कारण का जो अंश निकलकर लिंग रूप में प्रकट होता है वह अंश अपने उद्भव स्थान कारण को नहीं देख सकता। इस स्वाभाविक सृष्टि के मार्ग में लिंग जिस आकार को प्राप्त होता है वह लिंग का आपेक्षिक नित्य आकार है। किन्तु यह आकार भी सृष्टि-प्रवाह में सहायक है। जीव लिंग-देह का आश्रयकर अपने को तद्रूप ही समझता है। शुद्ध लिंग से एक या एकाधिक प्रभाएँ निकलकर भौतिक क्षेत्र में आती हैं और भौतिक आच्छादन से आच्छन्न होकर स्थूल-देह के रूप में पुष्टि लाभ करती हैं। शुद्ध लिंग स्वाभाविक नियम से अपनी इस सृष्टि-लीला को देखा करता है, परन्तु उसका जो अंश स्थूल-देह में बँध जाता है वह अपने उद्भस्थान को नहीं जान सकता। यह अज्ञान का ही प्रभाव है।
जीव स्थूल-देह में अभिमान करके अपने को देहस्वरूप ही समझता है। फिर क्रमश: साधन के बल से जब स्थूल-देह से आच्छन्न लिंग देह उससे कुछ मुक्ति प्राप्त करता है तब यह समझ में आ सकता है कि स्थूलदेह जीव नहीं है और यह लिंग भी विशुद्ध लिंग नहीं है। कारण, उसमें स्थूल वासना रहती है। यह लिंग ही कर्मानुसार स्थूलदेह ग्रहण करता और छोड़ता है। असंख्य बार इस प्रकार जन्म-मरण हो गया है– असंख्य प्रकार की स्थूल देहों का ग्रहण और त्याग हो चुका है– तथापि लिंग मूल में उस एक ही प्रकार का बना हुआ है।
इस लिंग का आकार स्थूल भाव के अनुरूप है, परन्तु अस्थायी है, इसका कारण यही है कि यह स्थूल संबंध स्थायी नहीं है। साधना करते-करते अन्त में लिंग-देह का शोधन होने पर विशुद्ध लिंग का प्रतिभास होता है। विशुद्ध लिंग में अभिमान के समर्पित हो जाने पर स्थूल जगत का जन्म-मरण छूट जाता है। कारण, लिंग में स्थूल वासना न रहने से भौतिक आच्छादन नहीं होता। विशुद्ध लिंग का आकार अपूर्व ज्योतिर्मय, मनोनयनाभिराम, लावण्यमण्डित और दिव्यभावापन्न है। जितनी देवभूमियाँ हैं, वे सभी विशुद्ध लिंग की ही अवस्था हैं। परन्तु यहाँ से भी जीव को लौटना पड़ेगा। लिंग विशुद्ध होने पर फिर वह बाहर रहना नहीं चाहता। कारण, बाहर की ओर उसका आकर्षण नहीं रह जाता। वज जिस कारण भूमि से उतरा था, फिर अपने-आप ही वहीं लौट जाता है।
लिंग का आकार अधिकाधिक पूर्णता लाभ करने पर कारण रूप में प्रकट होता है। कारण-देह का सौन्दर्य अवर्णनीय है। समस्त शास्त्रों में जो कामदेव या कन्दर्प की अनुपम रूपराशिका वर्णन मिलता है, वह इस कारणदेह के मूल उसके संबंध में ही है। इस संबंध में बहुत-सी बातें कहनी हैं। यहाँ इस विषय की चर्चा संगत नहीं होगी, परन्तु इतना जान रखना चाहिये कि कारण-देह भी जड़-देह है। इसके ऊपर जीव का स्वरूप है, जब कारण रूप का वर्णन नहीं हो सकता तब स्वरूप का वर्णन तो कौन करेगा ? भगवान के अनुग्रह बिना इस स्वरूप की उपलब्धि का और कोई उपाय नहीं है। क्रमशः ...
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