भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप , गुण और महत्ता की अनिवर्चनीयता भाग - 3
(यम सावित्री संवाद में यम द्वारा वर्णन । उन्हें पिता सूर्य से यह रहस्य प्राप्त हुआ है )
विष्णुमाया दुर्गा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है; क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। नारायण के अंश स्वामी कार्तिकेय उनके वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं। सुव्रते! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं। गोपियाँ तथा सम्पूर्ण देव पत्नियाँ भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं। सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं।
सरस्वती पर ब्रह्मा परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती हैं। गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों में लीन हो जाते हैं। उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणस्वरूप वायु का, उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का तथा उनकी जिह्वा के अग्रभाग में जल का लय हो जाता है। जो सार से भी सारतर हैं तथा भक्तिरसामृत का पान करते हैं, वे भक्त वैष्णवजन अत्यन्त आनन्दित हो उन भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में विलीन हो जाते हैं। क्षुद्र विराट महान विराट में महान विराट परमात्मा श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण के ही रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है। उन्हीं के आंख मींचने पर महाप्रलय होता है तथा उनकी आँख खुलते ही पुनः सृष्टि का कार्य आरम्भ हो जाता है। भगवान की पलक जितनी देर उठी या खुली रहती है, उतनी ही देर तक बंद भी रहती है। दोनों में बराबर ही समय लगता है। ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सृष्टि चालू रहती है, फिर उतने ही समय के लिए प्रलय हो जाता है।
सुव्रते! ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलय की कोई गिनती ही नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे भूमि के धूलिकणों की कोई गणना नहीं की जा सकती। जिन सर्वान्तरात्मा श्रीकृष्ण के नेत्रों की पलक गिरते ही जगत का प्रलय हो जाता है और पलक के उठते ही उन परमेश्वर की इच्छा से सृष्टि आरम्भ हो जाती है, उनके गुणों का कीर्तन करने में कौन समर्थ है? मैंने पिता जी के मुख से जैसा-जैसा सुना है, वैसा-वैसा आगमों के अनुसार वर्णन किया है। चारों वेदों ने मुक्ति के चार भेद बतलाए हैं। उन सबसे प्रभु की भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इसके सामने सभी तुच्छ हैं। भक्ति मुक्ति से भी बड़ी है। एक मुक्ति ‘सालोक्य’ प्रदान करने वाली, दूसरी ‘सारूप्य’ देने में निपुण, तीसरी ‘सामीप्य’ प्रदान करने वाली है और चौथी ‘निर्वाणपद’ पर पहुँचाने वाली कही जाती है। भक्त पुरुष परमप्रभु परमात्मा की सेवा छोड़कर इन मुक्तियों की इच्छा नहीं करते। वे सिद्धत्व, अमरत्व और ब्रह्मत्व की भी अवहेलना करते हैं। मुक्ति सेवारहित होती है और भक्ति में निरन्तर सेवाभाव का उत्कर्ष होता रहता है। यही भक्ति और मुक्ति का भेद है।
अब निषेक का लक्षण सुनो। विद्वान पुरुष कहते हैं कि किए हुए कर्मों का भोग ही निषेक है। उस कर्मभोग या प्रारब्ध का भी खण्डन करके कल्याण प्रदान करने वाली है- श्रीकृष्ण की उत्तम सेवा। साध्वि! यह तत्त्वज्ञान लोक और वेद का सार है। यह विघ्नों का नाशक तथा शुभदायक है। बेटी! अब तुम सुखपूर्वक अपने घर को जाओ। इस प्रकार कहकर सूर्य पुत्र यमराज ने सावित्री के पति सत्यवान को जीवन प्रदान करके सावित्री को शुभ आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात वे वहाँ से जाने के लिए उद्यत हो गए। उन्हें जाते देख सावित्री उनके चरणों में मस्तक झुका, दोनों पैर पकड़कर रोने लगी। सच है, सत्पुरुषों का बिछोह बड़ा ही दुःखदायक होता है। नारद! सावित्री को रोती देख कृपानिधान यम भी रो पड़े और मन-ही-मन संतुष्ट हो उससे इस प्रकार बोले।
यम ने कहा- सावित्री! तुम पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में लाख वर्षों तक सुख भोगने के अनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के गोलोकधाम में जाओगी। भद्रे! अब तुम अपने घर जाओ और भगवती सावित्री का व्रत करो। चौदह वर्षों तक करने पर यह व्रत नारियों को मोक्ष प्रदान करता है। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी तिथि को यह व्रत करना चाहिए। भाद्रपद-मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी तिथि के दिन महालक्ष्मी का शुभ व्रत होता है। यह व्रत सोलह वर्षों तक प्रत्येक वर्ष के प्रतिमास के शुक्ल पक्ष में करना चाहिए। जो नारी भक्ति पूर्वक इस व्रत का पालन करती है, उसे भगवान श्रीहरि का परमपद प्राप्त हो जाता है। प्रत्येक मंगलवार को मंगल प्रदान करने वाली भगवती मंगल चण्डिका की पूजा करनी चाहिए। प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष में षष्ठी के दिन मंगलप्रदा भगवती षष्ठी (देवसेना) की उपासना करने का विधान है।
इसी प्रकार आषाढ़ की संक्रान्ति के अवसर पर सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करने वाली भगवती मनसा की पूजा होती है। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि को रासमण्डल में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की प्राणाधिका श्रीराधा की उपासना करनी चाहिए तथा प्रत्येक मास की शुक्ला अष्टमी के दिन दुर्गतिनाशिनी, विष्णुमाया, भगवती दुर्गा का व्रत करना चाहिए।
जो नारी विशुद्ध पतिव्रताओं में, श्री यन्त्र आदि में तथा प्रतिमाओं में पति पुत्रवती सती प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की भावना करके धन और संतति की प्राप्ति के लिए भक्ति पूर्वक पूजा करती है, वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के परम पद को प्राप्त होती है।
इस प्रकार कहकर धर्मराज अपने स्थान पर पधार गए। सावित्री भी पतिदेव को लेकर अपने घर लौट गयी। नारद! यों सावित्री और सत्यवान दोनों जब घर पर चले आये, तब सावित्री ने सत्यवान से तथा अन्य बान्धवों से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। फिर वर के प्रभाव से सावित्री के पिता क्रमशः सौ पुत्र वाले हो गए। उसके श्वशुर की आँखें ठीक हो गईं और वे अपना राज्य पा गये। सावित्री स्वयं भी बहुत-से पुत्रों की जननी बन गई। उस पतिव्रता सावित्री ने पुण्यभूमि भारतवर्ष में अनेक वर्षों तक सुख-भोग किया। तत्पश्चात वह अपने पति के साथ गोलोकधाम में चली गई। जो सविता की अधिदेवी, सवितृदेवता के मन्त्रों की अधिष्ठात्री तथा वेदों की सावित्री (जननी) हैं, वे देवी इन्हीं गुणों के कारण ‘सावित्री’ कही गई है। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी । क्या आपने इस लेख के तीनों भाग मनन पूर्वक पढ़ लिए है ???
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