Saturday, 16 September 2017

भगवत विग्रह भाग 1(कविराज जी)

भगवद्विग्रह भाग 1
(वक्ता- महामहिम पं श्री गोपीनाथ जी कविराज जी)

जि– श्रीकृष्‍ण के देह के संबंध में आलोचना करते समय स्‍वभाव से ही भगवद्विग्रह के विषय में यह जिज्ञासा उत्‍पन्न होती है कि भगवान का विग्रह है या नहीं और है तो वह किस प्रकार का है ? यही मुख्‍य प्रश्‍न है। श्रीकृष्‍ण यदि भगवान के अवतार अथवा स्‍वयं भगवान थे तो उनकी जिस देह को संसार के लोग प्रत्‍यक्ष देखते थे उसका क्‍या स्‍वरूप था, उस देह के अतिरिक्त उनकी और कोई देह थी या नहीं, और थी तो वह किस प्रकार की थी, ऐसे बहुत से अवान्‍तर प्रश्‍नों के समाधान की भी आवश्‍यकता प्रतीत होती है।

व– वत्‍स, भगवान के देह है और धाम भी है, यह वर्णन शास्‍त्रों में मिलता है। साथ ही ‘भगवान निराकार विशुद्ध चैतन्‍य मात्र हैं, उनमें किसी प्रकार के आकार का आरोप नहीं हो सकता, उनके नाम-धाम प्रभृति सभी कल्पित हैं’– यह भी शास्‍त्रीय सिद्धान्‍त है। ईश्वर साकार हैं या निराकार, इस बात को लेकर विवाद करने की आवश्‍यकता नहीं। जो अन्‍तर्दर्शी हैं, वे जानते हैं कि ईश्वर को साकार भी कहा जा सकता है और निराकार भी– पर वस्‍तुत: वे साकार और निराकार, इन दोनों प्रकार की कल्‍पनाओं से ही अतीत हैं।

जि– गीता में ‘जन्‍म कर्म च में दिव्‍यम्, कहकर श्रीकृण ने अपने जन्‍म और कर्म दोनों को ‘दिव्‍य’ बतलाया है। अवश्‍य ही यह लीला-तत्त्व का विषय है। इससे मालूम होता है कि भगवान के अवतार रूप, जन्‍म अथवा कर्म दोनों ही असाधारण-अप्राकृत हैं। जन्‍म शब्‍द से यहाँ देहग्रहण समझना होगा।

व– भगवान में जन्‍म भी नहीं है और कर्म भी नहीं है। कारण, उनके अदृष्‍य (प्रारब्‍ध-कर्म) नहीं है। जीव अपने प्राक्तन कर्म-संस्‍कारवश तदनुरूप देह ग्रहण कर कर्म-फल का भोग करता है और नवीन कर्मों का सम्‍पादन करता है। भगवान में कर्म-संस्‍कार न रहने के कारण वे भोगदेह ग्रहण नहीं करते एवं उनमें कर्तृत्‍वाभिमान नहीं है इसलिये वे किसी नवीन कर्म के सम्‍पादक भी नहीं बनते। वे ऐसा कर्म नहीं करते जिससे फल उत्‍पन्न होता हो।

भगवान क्‍यों, मुक्त पुरुष भी जन्‍म-कर्म-रहित ही होते हैं, तथापि शास्‍त्रों में भगवान के भी देह-ग्रहण के और कर्म के संबंध में वर्णन पाये जाते हैं। सुतरां, यह कहना नहीं होगा कि वे जन्‍म-कर्म इतर जीवों के सदृश नहीं हैं। इसीलिये गीता में ‘दिव्‍य’ शब्‍द के प्रयोग द्वारा यह सूचित किया गया है। दु:खमग्‍न जीवों के कल्‍याणार्थ कभी भगवान और कभी उनके परिकरगण देह ग्रहण कर अवतीर्ण हुआ करते हैं। उनके जीवन के कर्म साधारण जीवों के कर्म से पृथक होते हैं– वस्‍तुत: एक तरह से उनको कर्म न कहने में भी कोई क्षति नहीं है। जिसके मूल में अदृष्‍ट की प्रेरणा नहीं है और फल का भोग नहीं है, वह कर्म प्रचलित कर्म-जातीय कर्म नहीं है, इसमें सन्‍देह ही क्‍या है ? ‘लीला’ शब्‍द के द्वारा अनेक लोग इसी विलक्षणता को समझया करते हैं।

जि– किसी-किसी का कहना है कि भगवान के जन्‍मयाकर्म हो ही नहीं सकते। जो सर्वव्‍यापक अखण्‍ड सत्तास्‍वरूप हैं, किसी भी देश, काल में ‍जिनके अभाव की सम्‍भावना नहीं है, जो निष्क्रिय चैतन्‍यस्‍वरूप हैं और सर्वदा एकरूप हैं, उनमें जन्‍म और कर्म कैसे हो सकते हैं ? इसी से उनका अवतार नहीं हो सकता। विचार करके देखने पर ऐसा कहना असंगत भी नहीं प्रतीत होता। इस विषय में वास्‍तविक सिद्धान्‍त क्‍या है, मैं उसी को जानना चाहता हूँ।

व– वत्‍स, जिस दृष्टि से भेद या अभेद मूलक किसी भी वैशिष्‍टय की प्रतीति नहीं होती, वहाँ न तो कोई शंका है और न किसी समाधान की ही आवश्‍यकता है। जहाँ भेद और अभेद दोनों का ग्रास करके स्‍वप्रकाश तत्त्त प्रकाशित हो रहा है, वहाँ भी शंका नहीं है। जहाँ काल का विकास और माया का विस्‍तार है, अतएव जहाँ भेद और अभेद का परस्‍पर वैषम्‍य प्रकट हो रहा है वहीं संशय की उत्‍पत्ति होती है और इसी द्वन्‍द्वमय अवस्‍था में शंका और समाधान हुआ करते हैं।

श्रीभगवान का जो रूप सर्वातीत है, अव्‍यक्त है, निरञ्जन है– यहाँ वह आलोच्‍य नहीं है। उनका जो सर्वात्‍मक और स्‍वप्रकाश रूप है– वह भी आलोचना से अतीत है। परन्‍तु जिस रूप से वे नियामक हैं और जीव नियम्‍य है, वे आनन्‍दमय हैं और जीवन दु:खमग्‍न है, वे कर्मफलदाता ओर जीव कर्मफलभोक्‍ता है– यहाँ उसी की आलोचना करनी है। इस आनन्‍दमय और करुणामय रूप के ही अवतार हुआ करते हैं। जो आत्‍मा इस आनन्‍दपुर में आनन्‍दमय भगवत्-साधर्म्‍य को प्राप्त हैं उनके भी अवतार हो सकते हैं– होते भी हैं।

जि– अच्‍छा, भगवान यह आनन्‍दमय रूप क्‍या नित्‍य है ? जब वे अवतीर्ण होते हैं तब क्‍या इस नित्‍य रूप को त्‍यागकर मायिक रूप ग्रहण करते हैं, यदि ऐसा ही होता है तो फिर उस परिकृहीत रूप का वैशिष्टय ही क्‍या है,

व– देखो, भगवान का वह आनन्‍दमय रूप नित्‍य है– उनका त्‍याग-ग्रहण नहीं है, उदयास्‍त नहीं है, वह कालातीत और निर्विकार है। शास्‍त्रकार और महापुरुषगण उसे चिदघन-विग्रह कहते हैं। इस रूप को सभी कोई नहीं देख सकते। जो देख पाते हैं, वे धन्‍य हैं। नारद श्वेतद्वीप में गये थे, नारायण को नहीं देख पाया। शास्‍त्र में ऐसा वर्णन है। स्‍वयं नारायण ने कहा था कि नारद मेरे स्‍वरूप को नहीं देख सके, उन्‍होंने केवल मेरा मायिक रूप ही देख पाया है। नारद के सदृश भक्त भी सहसा जिस रूप को नहीं देख सकते, कहना नहीं होगा कि उसका दर्शन सुलभ नहीं है।

जि– यह तो ठीक है; भगवान का रूप अतीन्द्रिय होने के कारण ही क्‍या सब उसे नहीं देख सकते ?

व– यह बात नहीं है। अतीन्द्रिय पदार्थ तो बहुत से हैं। उन सबके देखने की योग्‍यता हो जाने पर भी भगवद् दर्शन का अधिकार प्राप्त नहीं होता। साधन राज्‍य में धीरता के साथ प्रविष्ट होकर चलने से उन सबके अतीन्द्रिय-दर्शन भी बहुत-से लोगों को न्‍यूनाधिक रूप में हो सकते हैं। परन्‍तु इससे भगवत- साक्षात्‍कार की योग्‍यता नहीं हो जाती। देहाश्रित इन्द्रियाँ परिच्छिन्‍न क्षम‍ता विशिष्ट हैं। जब ये इन्द्रियाँ साधन के प्रभाव से निर्मल होने लगती हैं तब ये पहले की भाँति देहाधीन नहीं रहतीं अर्थात लिंगदेह से आंशिक रूप में पृथकभूत प्रतीत होता है तब उससे सम्‍पृक्त इन्द्रियाँ भी फिर उतनी स्‍थूल जगत के नियमाधीन नहीं रहतीं। हाँ, दोनों में कुछ संबंध अवश्‍य ही रहता है।

अब इस विषय को भलीभाँति समझने की चेष्टा करो। चक्षु के द्वारा हम रूप देखते हैं। कहना नहीं होगा कि यह स्‍थूल भौतिक रूप है। इसे देखने के लिये अनेक नियमों के पालन करने की आवश्‍यकता होती है। दृश्‍य पदार्थ का स्‍फुट आलोक में रहना, इन्दिय-गोलक की निर्विकारता, दृष्‍य पदार्थ के परिमाणगत आत्‍यन्तिक अणुत्‍व या महत्त्व का अभाव,चक्षु और दृश्‍य के मध्‍य में किसी प्रकार के व्‍यवधान का न होना इत्‍यादि– ये सब चाक्षुष ज्ञान के प्रतिबन्‍धक हैं।

चक्षु जब तक स्‍थूल-देह के आधीन और उसके द्वारा अभिभूत रहता है तब तक इन सब प्रति‍बन्‍धकों के कारण उसके साथ बाह्यरूप का संबंध नहीं हो सकता। परन्‍तु इन्द्रिय और देह का परस्‍पर संबंध शिथिल होने पर इन्द्रियाँ बहुत कुछ स्‍वतन्‍त्र हो जाती हैं– फिर पूर्वोक्त प्रतिबन्‍धक उनकी गति को नहीं रोक सकते। सुतरां, उस समय विप्रकृष्ट और व्‍यवहित वस्‍तु स्‍पष्ट देखी जा सकती है, सूक्ष्‍म वस्‍तु भी दृश्‍य होती है। साधारण मनुष्‍य इन्द्रिय के द्वारा जिसे नहीं देख सकता है, इस प्रकार की योग्‍यता विशिष्ट व्‍यक्ति उसे देख सकता है। यह एक प्रकार का अतीन्द्रिय-दर्शन ही है।

जि– इन्द्रिय और देह का संबंध कैसे शिथिल होता है ?

व– यहाँ उसकी आलोचना नहीं करनी है, क्‍योंकि यह विषय योगतत्त्व की आलोचना का अंग है। परन्‍तु यह जान रखना चाहिये कि चित्तशुद्धि के फल से लिंग और देह का आपेक्षिक पार्थक्‍य प्रतिष्ठित होता है। तब इन्द्रियाँ भी देह से पृथक की भाँति काम कर सकती हैं। क्रमशः ...

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