अभक्तों की गति
राजा निमि कहते हैं-आप सब तो ‘आत्मवित्तमाः’ आत्मज्ञानी हैं, परम भागवत हैं, लेकिन यहाँ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें अपने मन पर कोई संयम नहीं है, जिनका मन अशान्त रहता है और जो भगवान की भक्ति भी नहीं करते। वे सदा ही कामनाओं से पीड़ित रहते हैं, ऐसे लोगों की क्या गति होती है? इसका उत्तर आठवें योगीश्वर चमस जी ने दिया है। कहते हैं-भगवान की भक्ति नहीं करने वाले भी दो प्रकार के होत हैं। एक तो वे होते हैं जो अज्ञान के कारण भक्ति नहीं करते, उन्हें तो कुछ ज्ञात ही नहीं होता। इसलिए वे भगवान की भक्ति नहीं करते। और दूसरे वे होते हैं जो जानते तो सब हैं परन्तु मन में श्रद्धा नहीं होने के कारण भक्ति नहीं करते।
न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद् भ्रष्टाः पतन्त्यधः।।
जो लोग भगवान का भजन नहीं करते, यही नहीं, वरन भगवान का, भगवान के मन्दिर का, भक्तों का, शास्त्रों का तथा धर्म का अपमान भी करते हैं, उनका तो अवश्य ही अधःपतन होता है। यह एक सामान्य बात है जो सहजता से समझी जा सकती है। लेकिन-
दूरेहरिकथाः केचिद् दूरेचाच्युतकीर्तनाः।
स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम्।।
ऐसे भी लोग होते हैं जो संस्कार के कारण, जन्म जाति के कारण, या अज्ञान के कारण भगवान से दूर रहते हैं। उनको भगवत् मार्ग पर बढ़ने का कभी अवसर ही नहीं मिलता। तो मालूम नहीं होने के कारण, अश्रद्धा के कारण नहीं-अज्ञान के कारण जो भगवान का भजन नहीं करते, उनके ऊपर तुम जैसे लोगों को दया करनी चाहिए। यहाँ चमस योगीश्वर का कहना है कि जो समझदार लोग हैं, वे धीरे-धीरे, सोपान-दर-सोपान उन अज्ञानियों को समझायें और मार्ग पर लगायें। तब शनैः-शनैः उनकी स्थिति ठीक हो जायेगी। लेकिन प्रायः पण्डित लोग अभिमानवश, समझाने के बजाय उन्हें यह कह कर दूर रखते हैं कि इसमें तुम्हारा अधिकार नहीं है। इतना ही नहीं, वे उन्हें दूसरी ही चीजों में उलझाये रखते हैं।
ऐसे कर्मकाण्डी पण्डितों की यहाँ कड़ी निन्दा की गयी है। क्योंकि समझते हुए भी वे दूसरों को मूर्ख बनाते हैं-यह महापाप है। उनकी अपनी बुद्धि तो बिगड़ी हुई है ही, वे दूसरों को भी भ्रमित करते रहते हैं।
गीताजी में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
अज्ञानियों में बुद्धि भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए। उन्हें धीरे-धीरे ज्ञान मार्ग पर लाना चाहिए। उन्हें समझाते रहना चाहिए कि तुम ऐसा करो, वैसा करो। ये अज्ञानी जब संकट में पड़ते हैं, तो कर्मकाण्डी पण्डित उनसे कहते हैं-यह यज्ञ करो, इतनी गायों का या इतने तोले सोने का दान करो। और जब वे पूछते हैं किसको दान करें? तो कहते हैं हमको और किसको?
इस प्रकार उन्हें न जाने क्या-क्या बता देते हैं।
धनं च धर्मैकफलं यतो वै
ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति।
गृहेषु युंजन्ति कलेवरस्य
मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम्।।
धन की उपयोगिता धर्म पालन के लिए होती है और धर्माचरण विशुद्ध ज्ञान के लिए होता हैं। लेकिन जो लोग धन का उपयोग केवल अपने घर परिवार के लिए ही करते हैं, वे अपना मरण सामने देखते हुये भी नहीं देखते और संसार में फँस कर मर जाते हैं। इसलिए असत् चीजों को छोड़कर भगवान का ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार चमस योगीश्वर ने अपने उत्तर में बताया कि अभक्तों की गति दो प्रकार की होती है। जो अश्रद्धा के कारण भक्ति नहीं करते उनकी तो दुर्गति ही होती है लेकिन जो अज्ञान के कारण भगवद्भक्ति नहीं करते वे दया के पात्र हैं, उन्हें समझाना चाहिए।
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