* भगवान श्रीकृष्णके स्वरूप, महत्त्व और गुणों की अनिर्वचनीयता - 1 *
सावित्री के पूछने पर यम का कहना ...
यम बोले- बेटी! मैं पहले ही तुम्हें यह वरदान दे चुका हूँ कि तुम्हारे मन में जो अभीष्ट प्रश्न होगा, वह सब मैं बताऊँगा- तुम जो कुछ जानना चाहोगी, उसका ज्ञान कराऊँगा। अतः इस समय मेरे वर से तुम्हें भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त हो। कल्याणि! तुम जो भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का कीर्तन सुनना चाहती हो, वह बहुत ही उत्तम है। यह प्रश्न प्रश्नकर्ता के, उत्तर देने वाले के और श्रोताओं के कुल का भी उद्धार करने वाला है। परन्तु है यह बहुत कठिन। सहस्र मुख वाले शेष भी इसे कहने में असमर्थ हैं। मृत्युंजय भगवान शंकर यदि अपने पाँच मुखों से कहने लगें तो वे भी पार नहीं पा सकते। ब्रह्मा जी चारों वेदों तथा अखिल जगत के स्रष्टा हैं। चार मुखों से उनकी परम शोभा होती है।
भगवान विष्णु सर्वज्ञ हैं, परन्तु ये दोनों प्रधान देव भी श्रीकृष्ण के गुणों का सम्यक प्रकार से वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। स्वामी कार्तिकेय अपने छः मुखों से वर्णन करते रहें तो भी अन्त नहीं पा सकते। महाभाग गणेश जी को योगीन्द्रों के गुरु-का-गुरु कहा जाता है; किन्तु भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन कर पाना उनके लिए भी असम्भव है। सम्पूर्ण शास्त्रों के सारतत्त्व चार वेद हैं। ये वेद तथा इनसे परिचित विद्वान भी श्रीकृष्ण के गुणों की एक कला भी जानने में असमर्थ सिद्ध हो जाते हैं। श्रीकृष्ण की महिमा के वर्णन में साक्षात सरस्वती भी जड़ के समान होकर असमर्थता प्रकट करने लगती हैं।
सनत्कुमार, धर्म , सनक, सनातन सनन्द, कपिल तथा सूर्य- ये तथा श्री ब्रह्मा जी के अन्यान्य सुयोग्य पुत्र भी उनके महत्त्व का वर्णन करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सके, तब फिर अन्य व्यक्तियों से क्या आशा की जा सकती है? श्रीकृष्ण के जिन गुणों की व्याख्या सिद्ध, मुनीन्द्र तथा योगीन्द्र भी नहीं कर सकते, उनका वर्णन अन्य पुरुष कैसे कर सकते हैं? तथा मैं ही कैसे कर सकता हूँ? ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रभृति देवता जिनके चरण कमलों का ध्यान करते हैं, वे भक्तों के लिए जितने सुगम हैं, उतने ही भक्तहीन जनों के लिए दुर्लभ भी हैं।
श्रीकृष्ण का गुणानुवाद परम पवित्र है। कुछ लोग किंचिन्मात्र उसे जानते हैं। परम ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा तथा उनके पुत्र आदि अधिक परिचित हैं। ज्ञानियों के गुरु गणेश जी उनसे भी अधिक जानते हैं। सबसे अधिक सर्वज्ञ भगवान शंकर ही जानते हैं; क्योंकि परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने पूर्वकाल में इनको ज्ञान प्रदान किया था। गोलोक के अत्यन्त निर्जन रमणीय रासमण्डल में श्रीकृष्ण ने जो शिव को अपने गुणों के कीर्तन का महत्त्व बताया था, उसका स्वयं शिव जी ने अपनी पुरी में धर्म के प्रति उपदेश किया था। महाभाग सूर्य के पूछने पर धर्म ने पुष्कर में उनके सामने इसकी व्याख्या की थी।
साध्वि! मेरे पिता भगवान सूर्य ने तपस्या द्वारा धर्म की आराधना करके मुझे प्राप्त किया था। सुव्रते! पूर्व समय में मेरे पिता जी यत्नपूर्वक मुझे यमपुरी का राज्य दे रहे थे; किन्तु मैं लेना नहीं चाहता था।
वैराग्य हो जाने के कारण मेरे मन में तपस्या करने की बात आती थी। तब पिता जी ने मेरे सामने भगवान के गुणों का जो वर्णन किया था, वह अत्यन्त दुर्गम है। मैं आगम के अनुसार उसे कुछ कहता हूँ, सुनो।
वरानने! श्रीकृष्ण के इतने अमित गुण हैं कि उन्हें वे स्वयं ही पूरा नहीं जानते; तब दूसरों की तो बात ही क्या है? जैसे आकाश स्वयं ही अपना अन्त नहीं जानता, उसी तरह भगवान भी अपने गुणों का अन्त नहीं जानते। भगवान सबके अन्तरात्मा एवं सम्पूर्ण कारणों के कारण हैं; वे सर्वेश्वर, सर्वाद्य, सर्ववित और सर्वरूपधारी हैं, वे नित्यस्वरूप, नित्यविग्रह, नित्यानन्द, निराकार, निरंकुश, निःशंक, निर्गुण[1], निरामय, निर्लिप्त, सर्वसाक्षी, सर्वाधार एवं परात्पर हैं। प्रकृति उन्हीं से उत्पन्न हुई है और सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थ प्रकृति के कार्य हैं।
स्वयं परमपुरुष श्रीकृष्ण ही प्रकृति हैं और वे प्रकृति से परे भी हैं। रूपहीन होते हुए भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए वे नाना प्रकार के रूप धारण करते हैं। उनका दिव्य चिन्मय स्वरूप अत्यन्त कमनीय, सुन्दर और परम मनोहर है। वे नवीन मेघमाला के समान श्याम कान्ति धारण करते हैं। उनकी किशोर अवस्था है। वे गोप वेष में सुशोभित होते हैं। कोटि-कोटि कामदेवों की लावण्यलीला के धाम हैं। उनकी मोहिनी झाँकी मन को मोहे लेती है। उनके नेत्र शरत्काल के मध्याह्न में पूर्णतः विकसित हुए कमलों की शोभा को छीन लेते हैं। उनका मुख शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की शोभा को तिरस्कृत करने वाला है। अमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित दिव्य आभूषण उनके श्री अंगों की शोभा बढ़ाते हैं।
मन्द मुस्कान से सुशोभित मुख एवं सर्वांग बहुमूल्य पीताम्बर से सतत शोभायमान है। वे परब्रह्मस्वरूप हैं और ब्रह्मतेज से उद्भासित होते हैं। भक्तजनों को सुखपूर्वक उनका दर्शन सुलभ होता है। वे शान्तस्वरूप राधा-वल्लभ अनन्त गुण और महिमा से सम्पन्न हैं। प्रेममयी गोपियाँ सब ओर से घेरकर उन्हें मन्द मुस्कराहट के साथ निहारती रहती हैं। वे रासमण्डल के मध्यभाग में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके दो भुजाएँ हैं। वे वनमाला से विभूषित हैं और मुरली बजा रहे हैं। मणिराज कौस्तुभ सदा ही उनके वक्षःस्थल को उद्भासित करता रहता है। केसर, रोली, अबीर, कस्तूरी तथा चन्दन से उनका श्री विग्रह चर्चित है। वे मनोहर चम्पा, कमल और मालती की मालाओं से अलंकृत हैं। क्रमशः ...
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