भगवतद्विग्रह भाग 4
(वक्ता - महामहिम पं श्री गोपीनाथ जी कविराज जी)
जि– अवतार का मूल तो भगवान की इच्छा ही है।
व– हाँ, वे स्वेच्छा ही नाना रूप धारण करते हैं, यही अवतार हैं। रूप धारण करके वे साधु-परित्राण, दुष्कृतों का विनाश और धर्म संस्थापन करते हैं। अवतार का कारण कर्म नहीं है। जो भृगुशाप आदि सुनने में आते हैं व छलमात्र हैं। वस्तुत: भगवान लीला इच्छा मात्र से ही अवतीर्ण होते हैं। कोई बाह्य कारण उनको अवतीर्ण होने के लिए विवश नहीं कर सकता।
जि– भगवान का चतुर्थ रूप कैसा है?
व– उनका चतुर्थ रूप अन्तर्यामी है। इस रूप से वे जीव के हृदय में प्रविष्ट होकर उसकी सब प्रकार की प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करते हैं। उन्तर्यामी दो प्रकार के होते हैं– एक भगवान अपने मंगलमय विग्रह के साथ जीव के सखारूप से उसके हृदय-कमल में विराजित रहते हैं। उद्देश्य है– उसकी रक्षा करना और उसके ध्येयरूप में साथ-साथ अवस्थित रहना। दूसरा, अन्तरात्मा रूप से। ये जीव की सभी अवस्थाओं में– स्वर्ग, नरक यहाँ तक की गर्भावस्था में भी– उसके अन्तर में रहकर उसकी सत्ता की रक्षा और सहायता करते हैं। वे जीव का त्याग कदापि नहीं कर सकते, इसलिये उसके अन्तरात्मा रूप से अवस्थान करते हैं।
इसके बाद भगवान का पाँचवाँ रूप है– अर्चावतार, अर्चाप्रतीक। यह पुरुष के आकार विशिष्ट वाला होता है। भगवान अनुग्रह करके अपने आश्रित भक्त जीव के अभिमतानुसार किसी भी द्रव्य को अपना विग्रह मानकर उसमें विराजने लगते हैं। इसमें देश-नियम नहीं हैं– अयोध्या, मथुरा आदि देश न होने पर भी हानि नहीं है। काल-नियम भी नहीं है, जब तक इच्छा हो तभी तक रह सकते हैं। अधिकारी का नियम भी नहीं है– दशरथ आदि की भाँति अधिकार विशिष्ट होने की आवश्यकता नहीं है। अवतार के रूप से भिन्न और विलक्षण है। अर्चक जिस किसी स्थान में और जिस किसी भी समय उनको प्राप्त करना चाहता है, वहीं, उसी समय वह प्राप्त कर सकता है। भगवान अर्चक के सभी अपराधों की उपेक्षा करते हैं।
अर्चक जब जिस भाव से उनके स्नान, भोजन और शयनादिकी व्यवस्था करता है, वे उसी को तदधीन-भाव से स्वीकार करते हैं। स्वभावत: भगवान प्रभु हैं, जीव उनका आश्रित दास है। परन्तु यहाँ अर्चावतार में इस संबंध में विपरीतता हो जाती है। भगवान अज्ञ, अशक्त, अस्वतन्त्रवत् जपू होकर अपार करुणावश भक्त की सारी वाञ्छा पूर्ण करते हैं। उसे मोक्ष तक दे देते हैं, इस प्रकार वे सबके बन्धु और भक्त-वत्सल हैं।
जि– मालूम होता है, पतित जीव की दृष्टि में इन पाँच प्रकार के रूपों में उत्तरोत्तर उत्कर्ष रहता है।
व– ठीक है। परन्तु वस्तुगत भेद कहीं भी नहीं है। भक्ति के प्रभाव से स्थूलाभिमानी जीव अर्चावतार का साक्षात कर सकते हैं। सूक्ष्मभाव में उन्नत होने पर भक्ति के बल से सविग्रह अन्तर्यामी के दर्शन भी हो सकते हैं। कारण, भाव में व्यूह-वासुदेव भी दृष्टिगोचर होते हैं। उसी के ऊपर परमरूप है।
विभव साधारणत: स्थूल जगत में प्रकट होते हैं, कभी-कभी सूक्ष्म-जगत में भी होते हैं, किन्तु भगवान के परमरूप के दर्शन मायातीत हुए बिना नहीं होते।
जि– जीव का परमरूप भी क्या इसी प्रकार का है ?
व– इसमें क्या सन्देह है ? पर भगवान के विशेष अनुग्रह बिना जीव अपने परमरूप को प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि उनके अनुग्रह बिना माया से उत्तीर्ण नहीं हुआ जाता। जो जीव ज्ञानयोग से प्रकृति से विमुक्त होकर कैवल्य या स्वात्मानुभव करते हैं, वे परम-रूप नहीं पाते। वे अचिरादिमार्ग से परमपद में पहुँच कर भगवदनुभव नहीं पा सकते। वे केवल स्वात्मानुभव ही पाते हैं। इनकी अवस्था भक्त की दृष्टि में पतित्यक्ता पत्नी की भाँति कृपा के योग्य होती है। ये सब जीव प्राकृत देह और ब्रह्माण्ड को छोड़कर अवश्य चले जाते हैं, परन्तु अप्राकृत देह को प्राप्त नहीं होते। कोई-कोई स्थान पर स्वात्मानुभव करते हैं, परन्तु ऐसा असम्भव है।
जो जीव भक्तिया प्रपत्ति का आश्रय लेकर चलते हैं वे मोक्ष पाते हैं। भक्ति साधन और साध्य-भेद से दो प्रकार की है। भक्त का उपाय भक्ति है और प्रपन्न का एकमात्र अवलम्बन स्वयं भगवान हैं, दोनों ही प्रकृति के पार विरजा को भेदकर सूक्ष्म–देह को त्याग अमानव कर स्पर्श के द्वारा अप्राकृत दिव्य विग्रह प्राप्त करते हैं और भगवद्धाम में प्रवेश लाभ करते हैं। मुक्त पुरुष स्वेच्छा से ही समस्त लोकों में सञ्चरण कर सकते हैं। अवश्य ही उनकी इच्छा भगवदिच्छा के अधीन होती है। जो जीव नित्य हैं उनके ज्ञान का संकोच कदापि नहीं होता। कारण, वे कभी भगवान के अप्रिय और विरुद्ध आचरण नहीं करते। अनादिकाल से ही उनके नाना प्रकारके अधिकार रहते हैं– इसका मूल भी भगवान की नित्य इच्छा ही है। क्रमश ... !! जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।।
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