अन्तकाल मेँ वात पित्त और कफ से त्रिदोष होता है । मृत्यु की वेदना भयंकर होती है । सौ बिच्छू काटने पर जितनी वेदना होती है मृत्यु के समय उतनी ही पीड़ा होती है । जन्म मरण के दुःखो का विचार करने से पाप नही होगा , अतः मृत्यु का सतत स्मरण रखना चाहिए ।
"जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् "
जन्म मृत्यु जरा व्याधि के दुःखोँ का बार बार विचार करने से वैराग्य उत्पन्न होकर पाप छूटेगा । वरना पाप के संस्कार जल्दी नहीँ छूटता ।
काल को सिर पर रखकर हमेशा ईश्वर का चिन्तन करना चाहिए ।
संसार एक समुद्र है जिसमेँ असुविधारुपी तरंगे आती ही रहेँगी । अतः भजन के लिए अनुकूल समय आने की प्रतिक्षा न करके प्रत्येक क्षण ईश्वर का भजन करना चाहिए । हर क्षण अनुकूल है । धन का लोभी जैसे पैसो पर लक्ष्य रखता है उसी प्रकार महापुरुष परमेश्वर पर लक्ष्य रखते हैँ । भगवान ने भी गीता मेँ कहा है --
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् "
अन्तकाल मे जो मेरा स्मरण करता हुआ देह त्याग करता है वह मुझे प्राप्त करता है। अन्तकाल का अर्थ जीवन नहीँ बल्कि प्रत्येक क्षण का अन्तकाल। सो प्रत्येक क्षण ईश्वर का चिन्तन ध्यान स्मरण करना चाहिए । प्रत्येक क्षण सुधरने पर ही मृत्यु सुधरेगी। भगवान की आज्ञा है " तस्मात् सर्वेषु माम् अनुस्मर " जिस बात का सर्वदा चिन्तन किया जायेगा मृत्यु के समय उसी का स्मरण होगा ।
निद्रया हियजे नक्तं व्यवसाये न च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुम्ब भरणेन च ।।
मनुष्य का अधिकतर समय निद्रा और अर्थोपार्जन मे बीत जाता है जो समय बचा वह बातो मे, पढ़ने मेँ , परिवार का पालन करने बीत जाता है।
मानव जीवन की अन्तिम परीक्षा मृत्यु है । मनुष्य की प्रतिक्षण मृत्यु होती रहती है । जो हर क्षण को सुधारता है उसकी मृत्यु सुधरती है और जिसकी मृत्यु सुधर गई उसका जीवन भी सुधर जाता है ।
प्रभु का स्मरण हर क्षण के अन्तकाल मे करना चाहिए - क्षणस्य अन्तकाले मात्र !!
जीवन के अन्तकाल मे नहीँ । क्षण क्षण को जो सुधारता है उसी का जीवन सुधरता है । यह शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है अर्थात् प्रतिक्षण के अन्त मेँ मृत्यु होती रहती है सो प्रतिक्षण प्रभु का स्मरण करना चाहिए ।
Sunday, 17 September 2017
सततता ही सार्थकता
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