Wednesday, 20 September 2017

श्रीगणेश कृत श्रीराधा प्रशंसा

श्रीगणेश कृत श्रीराधा प्रशंसा
(ब्र.वै. पु.)

गणेश शान्तस्वभाववाली त्रिलोकजननी राधा से मधुर वचन बोले।

श्रीगणेश ने कहा- जगन्मातः! तुम्हारी यह पूजा लोगों को शिक्षा देने के लिए है। शुभे! तुम तो स्वयं ब्रह्मस्वरूपा और श्रीकृष्ण के वक्षः स्थल पर वास करने वाली हो। ब्रह्मा, शिव और शेष आदि देवगण, सनकादि मुनिवर, जीवन्मुक्त भक्त और कपिल आदि सिद्धशिरोमणि, जिनके अनुपम एवं परम दुर्लभ चरणकमल का निरन्तर ध्यान करते हैं, उन श्रीकृष्ण के प्राणों की तुम अधिदेवी तथा उनके लिए प्राणों से भी बढ़कर परम प्रियतमा हो। श्रीकृष्ण के दक्षिणांग से माधव है और वामांग से राधा प्रादुर्भूत हुई हैं। जगज्जननी महालक्ष्मी तुम्हारे वामांग से प्रकट हुई हैं। तुम सबके निवासभूत वसु को जन्म देने वाली, परमेश्वरी, वेदों और लोकों की ईश्वरी मूल प्रकृति हो। मातः! इस सृष्टि में जितनी प्राकृतिक नारियाँ हैं; वे सभी तुम्हारी विभूतियाँ हैं। सारे विश्व कार्यरूप है और तुम उनकी कारणरूपा हो। प्रलयकाल में जब ब्रह्मा का तिरोभाव हो जाता है; वह श्रीहरि का एक निमेष कहलाता है। उस समय जो बुद्धिमान योगी पहले राधा, फिर परात्पर कृष्ण अर्थात राधा-कृष्ण का सम्यक उच्चारण करता है; वह अनायास ही गोलोक में चला जाता है। इससे व्यतिक्रम करने पर वह महापापी निश्चय ही ब्रह्महत्या के पाप का भागी होता है।

तुम लोकों की माता और परमात्मा श्रीहरि पिता हैं; परंतु माता पिता से भी बढ़कर श्रेष्ठ, पूज्य, वन्दनीय और परात्पर होती है। इस पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में यदि कोई मन्दमति पुरुष सबके कारण स्वरूप श्रीकृष्ण अथवा किसी अन्य देवता का भजन करता है और राधिका की निन्दा करता है तो वह इस लोक में दुःख शोक का भागी होता है और उसका वंशच्छेद हो जाता है तथा परलोक में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति पर्यन्त वह घोर नरक में पचता रहता है। ज्ञान का उद्गीकरण करने अर्थात उगलने के कारण गुरु कहा जाता है; वह ज्ञान मंत्र-तंत्र से प्राप्त होता है; वह मंत्र और वह तंत्र तुम दोनों की भक्ति है। जब जीव प्रत्येक जन्म में देवों के मंत्र का सेवन करता है तो उसे दुर्गा के परम दुर्लभ चरण कमल में भक्ति प्राप्त हो जाती है। जब वह लोकों के कारण स्वरूप शम्भु के मंत्र का आश्रय ग्रहण करता है, तब तुम दोनों (राधा-कृष्ण) के अत्यंत दुर्लभ चरणकमल को प्राप्त कर लेता है। जिस पुण्यवान पुरुष को तुम दोनों के दुष्प्राप्य चरणकमल की प्राप्ति हो जाती है, वह दैववश क्षणार्थ अथवा उसके षोडशांश काल के लिए भी उसका त्याग नहीं करता।
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