भगवद्विग्रह भाग 5
( वक्ता - महामहिम पं श्री गोपीनाथ जी कविराज जी)
जि– सुनते हैं, शास्त्रों में कहा है कि देवता मन्त्रात्मक हैं– उनके विग्रह नहीं है। कोई-कोई कहते हैं कि देवता की तरह भगवान के भी विग्रह नहीं हैं। इधर यह भी शास्त्रों के ही वाक्य हैं कि देवता के विग्रह हैं आपने भी यही कहा था। इन दोनों की संगति कैसे हो सकती है ?
व– देखो, शास्त्रों में कहीं भी वास्तविक विरोध नहीं है– हो भी नहीं सकता। मीमांसकों की दृष्टि में देवता मन्त्रमय हैं, वेदान्तियों की दृष्टि में देवता विग्रहवान् हैं, परन्तु दोनों में कोई भेद नहीं है। अन्तर्दृष्टि खुल जाने पर इस तत्त्व का पता लगेगा। वस्तुत: मन्त्र ही देवता का आकार है। यहाँ बिन्दु, नाद और कलातत्त्व की आलोचना नहीं करनी है, परन्तु इतना जान रखो कि बिन्दु जब विक्षुब्ध होकर नाद की सृष्टि करता है तभी उसी के साथ-साथ कला का विकास भी हुआ करता है। इसी के बाद की अवस्था में सावयव आकार की उत्पत्ति होती है। शुद्धचेतन, जो बिन्दु के अतीत अथवा बिन्दुश्लिष्ट होकर भी बिन्दु के द्वारा अस्पृष्ट है, उस समय साकार रूप में प्रतिभासित होता है। चिदाभासवश वह आकार उज्जवल होकर भासता है, और जगत में उसी को देवता कहते हैं। कहना नहीं होगा कि यह नाद की ही एक अवस्था है। परन्तु इस अवस्था में नाद ज्योतिरूप में स्थित है, यही विशेषता है। वैयाकरण लोग इसी को ‘पश्यन्तीवाणी’ कहा करते हैं। मन्त्र-सिद्धि अथवा देव-साक्षात्कार होने पर प्रकाश बहुल विशुद्ध सात्त्विक ‘पश्यन्तीवाणी’ का ही विकास हुआ करता है।
शब्द और अर्थ वाक्य-वाच्यरूप में नित्य सम्बन्धित हैं, इसी से देवतातत्त्व में दोनों ही एकात्मभाव से स्थित रहते हैं। कभी मन्त्र रहस्य समझ सकोगे तो यह बात धारणा में आ सकेगी कि मीमांसा और वेदान्त के सिद्धान्त में वस्तुत: कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार साकार-निराकार के संबंध में भी समझना चाहिए।
श्रीमद्भागवत[1]– में श्रीभगवान को ‘मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम्’ कहा गया है, इससे भी प्रतीत होता है कि मन्त्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं, भगवान के मन्त्र या शब्द–ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थ्ालों में भी स्पष्ट रूप से मिलता है। सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कदर्दम ॠषि के दीर्घकाल तपस्या करने पर भगवान प्रसन्न होकर उनके सामने शब्द-ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे।
तावत्प्रसन्नो भगवांपुष्कराक्ष: कृते युगे।
दर्शयामास तं क्षत्त: शाब्दं ब्रह्म दधद्वपु:॥
रामानुज-सम्प्रदाय उनको ‘पञ्चोपनिषत्तनु’ कहते हैं– इसका भी अभिप्राय यही है कि शब्द-ब्रह्ममय नाद ही भगवान का विग्रह है। वैष्णवाचार्यों जो विशुद्ध सत्त्व को भगवददेह माना है वह भी यही है। कारण, शैव और शाक्त-शास्त्रों में जिसको बिन्दु बतलाया गया है, वैष्णव भक्तों का शुद्ध सत्त्व उसके अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। अक्षरबिन्दु और क्षरबिन्दु-बिन्दु के ही अवस्थाभेद मात्र हैं, बिन्दु के क्षरण से ही वर्ण की उत्पत्ति होती है। साकार जगत इस वर्ण की रचना विशेष है।
बिन्दु तत्त्व के साथ कुण्डलिनी-तत्त्व का घनिष्ट संबंध है। सम्भवत: तुम जानते होंगे कि जागृत कुण्डलिनी से ही देवता का आविर्भाव होता है। कुण्डलिनी के जागरण का अर्थ शब्दब्रह्म का परावस्था से पश्यन्ती अवस्था में आविर्भाव है। प्रश्न हो सकते हैं कि बिन्दु-क्षोभ-जनित रूप क्या नित्यरूपहो सकता है ? बिन्दु का क्षोभ ही क्यों होता है और बिन्दु-क्षोभ के पूर्व क्या रूप नहीं था ? इन सब प्रश्नों का समाधान जानना आवश्यक है। बिन्दु-क्षोभ-जनित रूप अवश्य ही नित्य रूप है– परन्तु उसकी भी आपेक्षिक नित्यता तो है ही। कल्पान्तस्थायी रूप को भी एक प्रकार से नित्य कहा जा सकता है– पर वह भी वास्तविक नित्य नहीं है। कारण, प्रलयकाल में वह नहीं रहता। वस्तुत: उसकी उत्पत्ति है और विनाश भी है।
सूक्ष्मभाव से निरीक्षण करने पर यह पता लगता है कि क्षोभ के पूर्व भी रूप था। यदि न होता तो क्षोभ ही न हो सकता और शुद्ध अवस्था में रूप का आर्विभाव होना भी सम्भव न होता। बिन्दु-क्षोभ-जन्य अवयव-घटित रूप को तन्त्रशास्त्र में वैन्दवरूप कहा है। यह जगत के समस्त रूपों का मूल है। परन्तु सबका आदिरूप होने पर भी यह अनादिरूप नहीं है। जो रूप बिन्दु से अतीत है, परव्योम से भी अतीत है, जो किसी अचिन्त्य कारण से बिन्दु के साथ संश्लिष्ट होकरबिन्दु, कला और नादरूप में परिणत हो, वैन्दवरूप का आविर्भाव कराता है, वही अनादिरूप है– वही शाक्त और चिन्मय है। भगवत्-शक्ति चिन्मयी होने के कारण इस रूप को चिद्विग्रह भी कह सकते हैं। परन्तु यह जान रखना चाहिये कि अभिव्यक्त जगत की दृष्टि में यह अव्यक्त है, न इसका ध्यान हो सकता है और न वर्णन ही किया जा सकता है।
शाक्तरूप अक्षुब्ध–बिन्दु के सान्निध्य में रहने पर स्वप्रकाशमय नित्यरूप का स्फुरण होता है। शाक्तरूप नित्य है, बिन्दु भी नित्य है– अतएव उभय सान्निध्य निमित्तक प्रकाशमय रूप भी नित्य हुए बिना नहीं रह सकता। जिन लोगों ने चिद्विलासमय परव्योम-तत्त्व की आलोचना की है, वे सहज ही में इस बात को समझ् सकते हैं कि उपर्युक्त प्रकार से होना ही स्वाभाविक है। शक्ति और बिन्दु में शक्ति चिदात्मिका है और बिन्दु विशुद्ध सत्त्वमय, अतएव जड़ है– इस प्रकार समझने पर प्रणवात्मक, मन्त्रात्मक अथवा नादमय रूप को नित्य चैतन्योज्ज्वल शुद्ध जड़रूप ही करना पड़ता है। चैतन्यांश की ओर लक्ष्य करके उसे चिन्मय भी कहा जा सकता है। परन्तु याद रखो कि शाक्तरूप सर्वथा जड़त्वहीन है– वह नित्य और अव्यक्त है। परन्तु देवता और अधस्तन जगत का जो आकार है वह तो बिन्दुक्षोभ से उत्पन्न कला द्वारा संकल्पवश गठित होने के कारण जड़ और अनित्य ही है।
शास्त्रों में जहाँ-जहाँ ब्रह्मरूप को जो अभिव्यक्त शब्दमय कहा गया है वहाँ उक्त व्यञ्जना के अनुसार भगवान के ग्रहण किये हुए वैन्दव अथवा तज्जातीय ही किसी अन्य रूप को समझना चाहिये। स्वरूप को नहीं। परन्तु यदि पराशक्ति अथवा चैतन्य को भी शब्दब्रह्म समझकर ग्रहण करने की योग्यता आ जाये तो शाक्तरूप भी शब्दमय है, यह समझा जा सकता है।
ॠषियों के अनुभव और वर्णन की विशेषताओं के कारण भगवान के रूप के संबंध में नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न हो गये हैं। परन्तु वस्तुत: भगवत तत्त्व में देह और देही का कोई पार्थक्य न होने के कारण मूल में किसी प्रकार के विकल्प को स्थान ही नहीं है। कारण, भगवान सच्चिदानन्द स्वरूप ही है। सुतरां उसकी नित्यता स्वभावसिद्ध है।
महावाराह-पुराण में कहा है–
सर्वे नित्या: शाश्वताश्च देहास्तस्य परात्मन:।
हानोपादानरहिता नैव प्रकृतिजा: क्वचित्॥
परमानन्दसन्दोहा:...........।
अन्याय स्थलों में भी भगवद्विग्रह को स्पष्ट रूप से नित्य और चिन्मय ही बतलाया गया है।
जि– अच्छा, श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान थे, श्रीमद्भागवत में कहा गया है– ‘कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्’। यदि यही बात है तो उनकी देह भी अप्राकृत और नित्यान्दमय ही होनी चाहिये। परन्तु नित्य देह का उन्होंने त्याग किस प्रकार किया ? उनके देहत्याग का वर्णन महाभारत और पुराणों में स्पष्ट रूप से मिलता है।
व— श्रीकृष्ण की देह अप्राकृत थी, इसमें सन्देह ही क्या है ? अप्राकृत देह का त्याग नहीं हो सकता, परन्तु उसके त्याग का भान होता है; वह भी लोक-दृष्टि में इन्द्रजालवत समझना चाहिये।
अर्थात मर्त्यलोक-त्याग करने का का नाम ही भगवान का ʻदेह-त्यागʼ है— वस्तुत: भगवदेह नित्यानन्दमय होने के कारण कभी त्यक्त नहीं हो सकती। जहाँ देह और देही पृथक होते हैं वहीं देह-त्याग की बात उठ सकती है, देह और देही अभिन्न होने पर त्याग कैसे हो सकता है ? सुतरां श्रीकृष्ण ने तो वस्तुत: देह का त्याग ही किया था और न देह का ग्रहण ही किया था। हाँ, वे मायिक या प्राकृत देह ग्रहण कर सकते हैं—करते भी हैं और उसी का त्याग होता है। कारण, वह आगन्तुक होती है। क्रमशः ... ! जयजयश्रीश्यामाश्याम जी ।।
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