Wednesday, 27 September 2017

कुँज लीला , तृषित

कुँज-लीला

महावृन्दावन में जो सब क्रीड़ावन विद्यमान है , उनमें से प्रत्येक में नाना प्रकार के कुँज विराजित है । अन्तरंग भावुक भक्तगणों की तृप्ति के लिये श्री राधागोविन्द की कुंजलीला इन सब कुंजो में प्रकट उत्सवित होती है । सभी कुँज स्वतः सिद्ध एवं स्वयं में विश्रान्त है । अर्थात युगल सुखार्थ सर्व विलास सिद्ध सभी कुँज है । किसी विशिष्ट कुँज लीला में अन्य कुँज के साथ सम्पर्क नही रहता , परन्तु सभी कुंजों में परस्पर सम्बन्ध रूप में भी रसभाव दिव्य लीला होती है । बाह्य दृष्टि से एक कुँज के साथ दूसरे किसी कुँज का कोई सूत्र सम्पर्क दिखता । तब भी प्रत्येक कुँज के साथ प्रत्येक कुँज का गुप्त सम्बन्ध भी है और अत्यन्त गुप्त संचरण मार्ग (एक कुँज से दूसरे कुँज भीतर -भीतर छिपे मार्ग) भी है । एक एक वन भावानुणालिनी प्रकृति का एक एक प्रतीक है । भाव अनन्त होने से केलि-काननों की वास्तविक संख्या भी अनन्त है । ऐसा ही पौराणिक स्वरूप में अनन्त योजन , अनन्त सरोवर , उद्यान आदि सँग , अनन्त परिकरियों से सेवित प्रेम युगल रस का चेष्टिक वर्णन है । विभन्न कुँजों में विभिन्न माधुर्य रस का आस्वादन सेवा श्रीयुगल को कराई जाती है । इस आस्वादन की पृथकता हेतु ही भाव पृथकता है , सेवा भावना में नित्य नवीनता ही ना हो , सम्पूर्ण पुष्टि पर भी पिपासा क्यों विकसित हो । भाव का अर्थ जड़ भाव नहीं है , यह भाव स्वभाव सिद्ध भाव है , भाव राज्य में जीव भावस्वरूप सिद्धि सँग ही स्थिर होता है , भाव स्थिरता किन्हीं निर्मल पिपासुओं की हो पाती है , भाव कृपा अनुभूत होने से ... जीव का चिंतनीय भाव और भगवत प्रदत भाव जब मूल स्वभाविक भाव ही रह जाता है तब वास्तविक भाव सिद्धि होती है । अर्थात हम अपना भाव बना लेते है ,वह स्वभाविक भाव स्फुरण ही कर सकते है अब हम अपने भाव से वह जो प्रकट कर रहे उस भाव को अनुभूत कर सकें उसमें प्रवेश कर सकें तब भाव प्राप्ति होती है , भाव पथ पर भाव प्राप्ति प्रथम सोपान है ... महाभाव सम्बन्धार्थ-- तृषित । एक और बात कुछ कुँज उपासक निज कुँज का त्याग नही कर सकते । परंतु युगल सुखार्थ सेवा है तो कुँज का बाह्य त्याग किये बिना आंतरिक सेवार्थ कुँज के कुँज से गुप्त मार्ग से भावुक भावसिद्ध भीतर से ही सभी कुंजो में प्रवेश पा सकते है । भाव स्थिति युगल सुख है तो अनन्त मार्ग अपनी धारा धमनियों से सर्वदा एक ही रहता है । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

Tuesday, 26 September 2017

पूतना रहस्य

पूतना > पूत का अर्थ है पवित्र।
पूत ना अर्थात जो पवित्र नही है । पवित्र क्या नहीँ है अज्ञान।
सो पूतना का अर्थ है अज्ञान , अविद्या और पवित्र है केवल ज्ञान । गीता जी > " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।" ज्ञान सा पवित्र कुछ भी नहीँ । ज्ञान धनार्जन का साधन नही है । आत्मस्वरुप का ज्ञान ही ज्ञान है । ज्ञान पवित्र है और अज्ञान अपवित्र है । अज्ञान से वासना का जन्म होता है । पूतना वासना का ही स्वरुप है ।
पूतना चतुर्दशी के दिन क्यो आई ?
पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय , मन , बुद्धि , चित्त एवं अहंकार इन चौदह स्थान पर वासना अविद्या रहती है ।
रामायण मे कैकेयी ने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास की माँग की थी । इसका भी कारण यही है कि इन चौदह स्थानोँ पर बसे रावण को मारने के लिए चौदह वर्ष तक तपश्चर्या की आवश्यकता है ।
नीति और धर्म के मना करने पर भी यदि आँखे परस्त्री के पीछे भागे तो समझिए कि आँखो मे पूतना आ बसी । आँखो से पाप मन मे आ बसता है ।
पूतना तीन वर्ष तक बालक (शिशु) को मारती है ।
जीवन की चार अवस्थायेँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा ।
जागृत अवस्था मे पूतना आँखो पर सवार हो जाती है । आँखो की चंचलता मन को चंचल करती है । इस प्रकार जागृति , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनोँ अवस्था मेँ अज्ञान सताता है अर्थात पूतन तीन वर्ष तक के शिशु को मारती है। इन तीन अवस्थाऔ को छोड़कर तुर्यगा अवस्था मेँ जीव का संबंध ब्रह्म से होता है और तब पूतना सता नही सकती । जो व्यक्ति तुर्यगा अवस्था मे प्रभु के साथ एक हो जाता है उसे पूतना - अज्ञान मार नही सकता ।
पूतना तीन वर्ष के अन्दर के बालक को मारती है इस बात का अर्थ यह भी है कि जो सत्व , रज , और तम इन गुणोँ मे फँसा हुआ है । उसे पूतना मारती है , माया त्रिगुणात्मक है । माया मे फँसे हुए व्यक्ति को पूतना मारती है ।
संसार के मोह जाल मे फँसे हुए सभी जन बालक (शिशू) ही तो है , इनको पूतना अज्ञान मारता है । किन्तु सांसारिक मोह का त्याग करके जो ईश्वर के निर्गुण स्वरुप मेँ लीन हो गया है , गुणातीत हो गया है उसे पूतना मार नही सकती । गुणातीत अर्थात् प्रकृति से परे रहने वाले व्यक्ति का पूतना कुछ भी बिगाड़ नहीँ पाती ।
जब पूतना गोकुल आई तो उस समय गाये वन मेँ चरने गयी थी , और नन्द जी मथुरा गये थे । अर्थात् गायो का वनगमन - इन्द्रियोँ का विषय वन मे गमन । इन्द्रियाँ जब विषय वन मे घूमेँगी तो पूतना मन मे आ धमकेगी । अज्ञान मन पर सवार हो जायेगा । जब इन्द्रियाँ विषयो मे खो जाती हैँ , बर्हिमुखी हो जाती हैँ , तब वासना आ जाती है । इन्द्रियो को प्रभू की सेवा की ओर मोड़कर निरुद्ध करने से पूतना सता नही पायेगी ।

Monday, 25 September 2017

विनयावली - 50

विनयावली

हे हरे ! मेरे इस ( संसारको सत्य और सुखरुप आदि माननेके ) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते ? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत हैं, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य - सा ही भासता है ॥१॥
मैं यह जानता हूँ कि ( शरीर - धन - पुत्रादि ) विषय यथार्थमें नहीं हैं, किन्तु हे स्वामी ! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता । मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ ( मोह ) - से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ ( स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध - सा गया हूँ ) ॥२॥
जैसे किसीको स्वप्नमें अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती ( इसी प्रकार मायाके भ्रममें पड़कर लोग बिना ही हुए संसारकी अनेक पीड़ा भोग रहे हैं और उन्हें दूर करनेके लिये मिथ्या उपाय कर रहे हैं, पर तत्त्वज्ञानके बिना कभी इन पीड़ाओंसे छुटकारा नहीं मिल सकता ) ॥३॥
वेद, गुरु, संत और स्मृतियाँ - सभी एक स्वरसे कहते हैं कि यह दृश्यमान जगत् असत् है ( और काल्पनिक सत्ता मान लेनेपर दुःखरुप हैं । जबतक इसे त्यागकर श्रीरघुनाथजीका भजन नहीं किया जाता तबतक ऐसी किसकी शक्ति हैं जो इस विपत्तिका नाश कर सके ? ॥४॥
वेद निर्मल वाणीसे संसारसागरसे पार होनेके अनेक उपाय बतला रहे हैं, किन्तु हे तुलसीदास ! जबतक ' मैं ' और ' मेरा ' दूर नहीं हो जाता - अहंता - ममता नहीं मिट जाती, तबतक जीव कभी सुख नहीं पा सकता ॥५॥

विनय पत्रिका - विनयावली ५०

हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥१॥
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं ।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर्यो कीरकी नाईं ॥२॥
सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई ।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥३॥
श्रुति - गुरु - साधु - समृति - संमत यह दृश्य असत दुखकारी ।
तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥४॥
बहु उपाय संसार - तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै ।
तुलसिदास मैं - मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥५॥

राग रागिनी और उनके पुत्र

राग-रागिनी

देवाधिदेव भगवान श्रीकृष्‍ण वेदनगर में गये, जो जम्‍बूद्विप एक मनोरम स्‍थान है। उस नगर में भगवान निगम (वेद) सदा मूर्तिमान होकर दिखायी देते हैं।

उनकी सभा में सदा वीणा पुस्‍तक धारिणी वाग्‍देवता वाणी (सरस्‍वती) सुन्‍दर एवं मंगल के अधिष्‍ठानभुत श्रीकृष्‍ण चरित का गान करती है। नरेश्वर ! उर्वशी और विप्रचिति आदि अप्‍सराएं वहाँ नृत्‍य करती हैं और अपने हावभाव ताथ कटाक्षों द्वारा वेदेश्चर को रिझाती रहती हैं। मैं, विश्वावसु, तुम्‍बुरु, सुदर्शन तथा चित्ररथ- ये सब लोग वेणु, वीणा, मृदंग मुरुयष्टि आदि वाद्यों को खड़ताल एवं दुन्‍दुभि के साथ विधिवत बजाया करते हैं। नरेश्वर ! वहाँ हस्‍व, दीर्घ, प्‍लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्‍वरित तथा सानु नासिक और निरनु नासिक- इस अठारह  [ ' अ इ उ ऋ' इन स्वरों में सें प्रत्येक के ह्र्स्व, दीर्घ और प्लुप- ये तीन-तीन भेंद होते है; फिर प्रत्येक के उदात्त अनुदात्त तथा स्वरित- ये तीन भेंद होने से नौ भेद हुए। फिर उन सबके सानुनासिक और निरनुनासिक भेंद होने से अठारह भेंद होते हैं।]  भेदों के साथ स्‍तुतियां गायी जाती हैं। नरेश्वर ! वेदपुर में आठों ताल, सातों स्‍वर और तीनों ग्राम मूर्तिमान होकर विराजते हैं।

वेदनगर में राग-रागिनियां भी मूर्तिमती होकर निवास करती हैं। भैरव, मेघमल्‍लार, दीपक, मालकोश, श्री राग और हिन्‍दोल- ये सब राग बताये गये हैं। इनकी पांच-पांच स्त्रियां- रागिनियां हैं और आठ-आठ पुत्र हैं। नरेश्वर ! वे सब वहाँ मूर्तिमान होकर विचरते हैं। ‘भैरव’ भूरे रंग का है, ‘मालकोश’ का रंग तोते के समान हरा है, ‘मेघमल्‍लार’ की कान्ति मोर के समान है। ‘दीपक’ का रंग सुवर्ण के समान है और ‘श्रीराग’ अरुण रंग का है। मिथिलेश्वर ! ‘हिन्‍दोल’ का रंग दिव्‍य हंस के समान शोभा पाता है।

बहुलाश्व ने पूछा- मुनिश्रेष्‍ठ ताल, स्‍वर, ग्राम और नृत्‍य’ इनके कितने कितने भेद हैं इन सब का नामोल्‍लेख पूर्वक वर्णन कीजिये ।

नारदजी ने कहा- राजन् ! रूपक, चर्चरीक, परमठ, विराट, कमठ, मल्‍लक, झटित और जुटा- ये आठ ताल हैं। राजन् ! निषाद, ऋषभ, गान्‍धार, षड्ज, मध्‍यम, धैवत तथा पच्चम- ये सात स्‍वर कहे गये हैं। माधुर्य, गान्‍धार और ध्रौव्‍य- ये सात स्‍वर कहे गये हैं। माधुर्य, गान्‍धार और ध्रौव्‍य– ये तीन ग्राम माने गये हैं। रास, ताण्‍डव, नाटय, गान्‍धर्व, कैंनर, वैद्याधर, गौहाक और आप्‍सरस-ये आठ नृत्‍य के भेद हैं। ये सभी दस-दस हाव भाव और अनुभावों से युक्‍त हैं। स्‍वरों का बोध कराने वाला पद ‘सा रे ग म प ध नि ।।

रागिनियों तथा राग पुत्रों के नाम और वेद आदि के द्वारा भगवान का स्‍तवन

बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! रागिनियों और रागपुत्रों के नाम मुझे बताइये; क्‍योंकि परावरवेत्ता विद्वानों में आप सबसे श्रेष्‍ठ हैं।

नारदजी ने कहा- राजन् ! कालभेद, देशभेद और स्‍वरमिश्रित क्रिया के भेद से विद्वानों ने गीत के छप्‍पन करोड़ भेद बताये हैं। नृपेश्वर ! इन सब के अन्‍तर्भेद तो अन्‍नत हैं। नृपेश्वर ! इन सब के अन्‍तर्भेद तो अनन्‍त हैं। आनन्‍द स्‍वरूप जो शब्‍द ब्रह्ममय श्रीहरि हैं, इन्‍हीं को तुम-राग समझो। इसलिये भूतल पर इन सबके जो मुख्‍य–मुख्‍य भेद हैं, उन्‍हीं का मैं तुम्‍हारे सामने वर्णन करुंगा। भैरवी, पिंगला, शंकी, लीलावती और आगरी- ये भैरवराग की पांच रागिनियां बतलायी गयी हैं। महर्षि, समृद्ध, पिंगला, मागध, बिलाबल, वैशाख, ललित और पंचम- ये भैरव राग के भिन्न-भिन्न आठ पुत्र बतलाये गये हैं। मिथिलेश्वर ! चित्रा, जय जयवन्‍ती, विचित्रा, व्रजमल्‍लारी, अन्‍धकारी- ये मेघमल्‍लार राग की पांच मनोहारिणी रागिनियां कही गयी हैं। श्‍यामकार, सोरठ, नट, उड्डायन, केदार, व्रज रहस्‍य, जल धार और विहाग- ये मल्‍लारराग के आठ पुत्र प्राचीन विद्वानों ने बताये हैं। कज्जु की, मंचरी, टोडी, गुर्जरी और शाबरी- ये दीपक राग की पांच रागिनियां विख्‍यात हैं।

विदेहराज ! कल्‍याण, शुभकाम, गौड़ कल्‍याण, कामरूप, कान्‍हरा, राम संजीवन, सुखनामा और मन्‍दहास- ये विद्वानों द्वारा दीपक राग के आठ पुत्र कहे गये हैं। मिथिलेश्वर ! गान्‍धारी, वेद गान्‍धारी, धनाश्री, स्‍वर्मणि तथा गुणागरी ये पांच रागमण्‍डल में मालकोशराग की रागिनियां कही गयी हैं। मेघ, मचल, मारु माचार, कौशिक, चन्‍द्रहार, घुंघट, विहार तथा नन्‍द- ये मालकोश राग के आठ पुत्र बतलाये गये हैं। राजेन्‍द्र ! बैराटी, कर्णाटी, गौरी, गौरावटी तथा चतुश्चन्‍द्र काला- ये पुरातन पण्डितों द्वारा कही गयी श्रीराग की विख्‍यात पांच रागिनियां हैं। महाराज ! सारंग, सागर, गौर, मरुत, पंचशर, गोविन्‍द, हमीर तथा गीर्भीर- ये श्रीराग के आठ मनोहर पुत्र हैं। वसन्‍ती, परजा, हेरी, तैलग्ड़ी और सुन्‍दरी ये हिन्‍दोल राग की पांच रागिनियां प्रसिद्ध हैं। मैथिलेन्‍द्र ! मंगल, वसन्‍त, विनोद, कुमुद, वीहित, विभास, स्‍वर तथा मण्‍डल विद्वानों द्वारा ये आठ हिन्‍दोल राग के पुत्र कहे गये हैं। 

गिरिराज जी के अंग

विभिन्‍न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्‍न अंगों की स्थित का वर्णन

बहुलाश्‍व ने पूछा– महाभाग ! देव !! आप पर, अपर-भूत और भविष्‍य के ज्ञाताओं में सर्वश्रेष्‍ठ हैं। अत: बताइये, गिरिराज के किन-किन अंगों में कौन-कौन से तीर्थ विद्यमान हैं ?

श्रीनारदजी बोले– राजन ! जहाँ, जिस अंग की प्रसिद्धि है, वही गिरिराज का उत्‍तम अंग माना गया है। क्रमश: गणना करने पर कोई भी ऐसा स्‍थान नहीं है, जो गिरिराज का अंग न हो। मानद ! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अंग उसी के हैं, उसी प्रकार विभूति और भाव की दृष्टि से गोवर्धन के जो शाश्‍वत अंग माने जाते हैं, उनका मैं वर्णन करूंगा। श्रृंगार मण्‍डल के अधोभाग में श्रीगोवर्धन का मुख्‍य है, जहाँ भगवान ने व्रजवासियों के साथ अन्‍नकूट का उत्‍सव किया था। ‘मानसी गंगा’ गोवर्धन के दोनों नेत्र हैं, ‘चन्‍द्रसरोवर’ नासिका, ‘गोविन्‍दकुण्‍ड’ अधर और ‘श्रीकृष्‍ण कुण्‍ड’ चिबुक है। ‘राधाकुण्‍ड’ गोवर्धन की जिह्वा और ‘ललिता सरोवर’ कपाल है। ‘गोपालकुण्‍ड’ कान और ‘कुसुमसरोवर’ कर्णान्‍तभग है। मिथिलेश्‍वर ! जिस शिला पर मुकुट चिन्‍ह है, उसे गिरिराज का ललाट समझो। ‘चित्रशिला’ उनका मस्‍तक ओर ‘वादिनी शिला’ उनकी ग्रीवा है। ‘कन्‍दुक तीर्थ’ उनका पार्श्‍वभाग है और ‘उष्‍णीषतीर्थ’ को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है। ‘द्रोणतीर्थ’ पृष्‍ठ देश में और ‘लौकिकतीर्थ’ पेट में है। ‘कदम्‍ब खण्‍ड’ हृदय स्‍थल में है। श्रृंगार मण्‍डल तीर्थ’ उनका जीवात्‍म है। ‘श्रीकृष्‍ण चरण चिन्‍ह’ महात्‍मा गोवर्धन का मन है। ‘हस्‍तचिन्‍हतीर्थ’ बुद्धि तथा ‘ऐरावत चरणचिन्‍ह’ उनका चरण है। सुरभि के चरण चिन्‍हों में महात्‍मा गोवर्धन के पंख हैं। ‘पुच्‍छकुण्‍ड‘ में पूँछ की भावना की जाती है। ‘वत्‍सकुण्‍ड‘ में उनका बल, ‘रुद्रकुण्‍ड’ में क्रोध तथा ‘इन्‍द्रसरोवर’ में काम की स्थिति है। ‘कुबेरतीर्थ’ उनका उद्योग स्‍थल और ‘ब्रह्मतीर्थ’ प्रसन्‍नता का प्रतीक है। पुराणवेत्‍ता पुरुष ‘यमतीर्थ’ में गोवर्धन के अहंकारी स्थिति बताते हैं।

मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्‍हे सर्वत्र गिरिरिाज के अंग बताये हैं, जो समस्‍त पापों को हर लेने वाले हैं। जो नरश्रेष्‍ठ गिरिराज की इस विभूति को सुनता है, वह योगिजन दुर्लभ ‘गोलोक’ नामक परमधाम में जाता है। गिरिराजों का भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरि के वक्ष: स्‍थल से प्रकट हुआ है और पुलस्‍त्‍य मुनि के तेज से इस व्रजमण्‍डल में उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शन से मनुष्‍य का इस लोक में पुनर्जन्‍म नहीं होता।

Saturday, 23 September 2017

कृपा , तृषित

कृपा

यह अप्राकृत शक्ति आह्लाद है , बोलचाल में कृपा को तत्व रूप चिंतन करते है । है यह आह्लाद । कृपा विधान की विधि से नहीं श्रीप्रेममयप्रभु के हृदय की भावना है । कृपालुता में उनकी (श्यामासुन्दर की) करुणा प्रकट हो जाती है ।
कृपा में स्पर्श करने की भावना भी उनकी आंतरिक है , कृपा कभी पथिक को पथ नहीं निर्देशित करती । वह उसके लक्ष्य फल को अमृत रूप पिला देने के लिये ही प्रकट होती है ।
बाह्य जीवन मे कृपा की अनिवार्यता नहीं है , स्व सिद्धि का विकार सदा है कि मेरे द्वारा ऐसा होना , वैसा होना । अतः बाह्य जीवन कृपा को अनुभूत ही नहीं कर सकता । करेगा तो भोग सामग्री के विस्तार को ही कृपा कह देगा । गाड़ियों पर लिखेगा यह कृपा , वह कृपा ।
यह भोग में धँसना कृपा कभी है ही नहीं । कृपा की अनुभूति होगी अप्रयत्न पर । प्रयत्न करना ही उनके द्वारा उनकी वस्तु नियंत्रित है यह भाव खो जाता है । कर्म के नाम पर भोग सिद्धि ही जगत कर रहा है । भोग जुटा कर समझता है मैं कर्म योगी हूँ । कर्म योगी उसे कहे हम जो अकेले निकल पड़े गंगा यमुना के श्रृंगार हेतु । मुँह ना देखें , न चिंतन करें कि क्या मिल पायेगा और क्या नहीं ...
आज के कर्म योगी केवल मूल में भोगी ही है और जो भोगी है वह ईश्वर और जगत में सदा भोग सिद्धि हेतु जगत का चुनाव कर रहा है ,प्रकट रूप से ही देख लीजिये । भोग छूटते है अतः आकर भी आ नहीं पाते आध्यात्मिक पथ पर कोई ।
भोग अवस्था भोग पूर्ति को कृपा कहती है , वहाँ कृपा इतनी ही अनुभूत है । परन्तु कृपा आंतरिक प्रेम समेटे है उनका । और उसकी अनुभूति के लिये भोग निवृत्ति आवश्यक है । इच्छा शुन्य स्थिति पर अप्रयत्न स्थिति पर जो भी नव विकास का पथ प्रकट होगा वह कृपा है । भीतर हृदय में प्रेमांकुरण से पूर्णतम के आलिंगन तक क्रिया शील शक्ति केवल कृपा है । वास्तव में कृपा की अनुभूति से पूर्व जीव स्वयं अपनी सुरक्षा कर लेता है , अतः वह कृपा को अनुभूत नहीँ कर पाता । कृपा की अनुभूति के लिये प्रलय से भागना नहीं अपितु प्रलय में विलास दर्शन चक्षु की आवश्यकता है । जीव को ईश्वर जब भी वरण करने के लिये प्रकट होते है जड़मति जीव भाग जाता है । क्योंकि कृपा का प्राकृत स्वरूप दुःख रूप है । आंतरिक वह रसालय में डूबने की अनुभूति है । आंतरिक अनुभूतियां जीवन के उत्तर काल मे फ़िल्म की तरह
घूम जाती है । तृषित । जीवन को जीवनमय अनुभूत करना ही कृपा है । दुःख से भागने वाले कैसे कृपा को प्राकृत भी अनुभूत करेंगे । तो कृपा की अप्राकृत सुधा लहरी जो कि प्रियतम निज हृदय से ही उठ रहा स्पंदन है । कृपा , मन रूपी भृमर को सीधे मकरन्द पान के लिये अवतरित होती है ना कि प्राकृत किसी भव कलि पान मात्र । मकरन्द पान का पथिक भृमर दृश्य मात्र भृमर होता है ... मकरन्द की सौरभ-सौंदर्य लहरी में भृमर की आंतरिकता मकरन्द हो ही जाती है । मूल में भोग है ही नहीं , भोग पथिक विपरीत जा रहा है । अप्राकृत दिव्य सुकोमल निर्मल मकरन्द को सर्वभोगेश्वर स्वयं अनुभूत कर पाते है । भोग निवृत्ति कृपा शक्ति है अपराप्रेम है । श्यामासुन्दर के भोग विलास रस में उनकी निज भोगेच्छा खो जाती है । ब्रह्म खो जाता है प्रेम में डूब कर कृपा वह माधुर्य अनुभूति है । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

Friday, 22 September 2017

भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप , गुण और महत्ता की अनिवर्चनीयता भाग 3

भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप , गुण और महत्ता की अनिवर्चनीयता भाग - 3

(यम सावित्री संवाद में यम द्वारा वर्णन । उन्हें पिता सूर्य से यह रहस्य प्राप्त हुआ है )
विष्णुमाया दुर्गा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती है; क्योंकि वे उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं। नारायण के अंश स्वामी कार्तिकेय उनके वक्षःस्थल में लीन हो जाते हैं। सुव्रते! गणों के स्वामी देवेश्वर गणेश को भगवान श्रीकृष्ण का अंश माना गया है। वे उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी की अंशभूता देवियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी श्रीराधा में लीन हो जाती हैं। गोपियाँ तथा सम्पूर्ण देव पत्नियाँ भी श्रीराधा में ही लीन हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं। सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं।
सरस्वती पर ब्रह्मा परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती हैं। गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों में लीन हो जाते हैं। उन प्रभु के प्राणों में सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणस्वरूप वायु का, उनकी जठराग्नि में समस्त अग्नियों का तथा उनकी जिह्वा के अग्रभाग में जल का लय हो जाता है। जो सार से भी सारतर हैं तथा भक्तिरसामृत का पान करते हैं, वे भक्त वैष्णवजन अत्यन्त आनन्दित हो उन भगवान श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में विलीन हो जाते हैं। क्षुद्र विराट महान विराट में महान विराट परमात्मा श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं।

श्रीकृष्ण के ही रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है। उन्हीं के आंख मींचने पर महाप्रलय होता है तथा उनकी आँख खुलते ही पुनः सृष्टि का कार्य आरम्भ हो जाता है। भगवान की पलक जितनी देर उठी या खुली रहती है, उतनी ही देर तक बंद भी रहती है। दोनों में बराबर ही समय लगता है। ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सृष्टि चालू रहती है, फिर उतने ही समय के लिए प्रलय हो जाता है।

सुव्रते! ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलय की कोई गिनती ही नहीं है। ठीक उसी तरह, जैसे भूमि के धूलिकणों की कोई गणना नहीं की जा सकती। जिन सर्वान्तरात्मा श्रीकृष्ण के नेत्रों की पलक गिरते ही जगत का प्रलय हो जाता है और पलक के उठते ही उन परमेश्वर की इच्छा से सृष्टि आरम्भ हो जाती है, उनके गुणों का कीर्तन करने में कौन समर्थ है? मैंने पिता जी के मुख से जैसा-जैसा सुना है, वैसा-वैसा आगमों के अनुसार वर्णन किया है। चारों वेदों ने मुक्ति के चार भेद बतलाए हैं। उन सबसे प्रभु की भक्ति को श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि इसके सामने सभी तुच्छ हैं। भक्ति मुक्ति से भी बड़ी है। एक मुक्ति ‘सालोक्य’ प्रदान करने वाली, दूसरी ‘सारूप्य’ देने में निपुण, तीसरी ‘सामीप्य’ प्रदान करने वाली है और चौथी ‘निर्वाणपद’ पर पहुँचाने वाली कही जाती है। भक्त पुरुष परमप्रभु परमात्मा की सेवा छोड़कर इन मुक्तियों की इच्छा नहीं करते। वे सिद्धत्व, अमरत्व और ब्रह्मत्व की भी अवहेलना करते हैं। मुक्ति सेवारहित होती है और भक्ति में निरन्तर सेवाभाव का उत्कर्ष होता रहता है। यही भक्ति और मुक्ति का भेद है।

अब निषेक का लक्षण सुनो। विद्वान पुरुष कहते हैं कि किए हुए कर्मों का भोग ही निषेक है। उस कर्मभोग या प्रारब्ध का भी खण्डन करके कल्याण प्रदान करने वाली है- श्रीकृष्ण की उत्तम सेवा। साध्वि! यह तत्त्वज्ञान लोक और वेद का सार है। यह विघ्नों का नाशक तथा शुभदायक है। बेटी! अब तुम सुखपूर्वक अपने घर को जाओ। इस प्रकार कहकर सूर्य पुत्र यमराज ने सावित्री के पति सत्यवान को जीवन प्रदान करके सावित्री को शुभ आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात वे वहाँ से जाने के लिए उद्यत हो गए। उन्हें जाते देख सावित्री उनके चरणों में मस्तक झुका, दोनों पैर पकड़कर रोने लगी। सच है, सत्पुरुषों का बिछोह बड़ा ही दुःखदायक होता है। नारद! सावित्री को रोती देख कृपानिधान यम भी रो पड़े और मन-ही-मन संतुष्ट हो उससे इस प्रकार बोले।

यम ने कहा- सावित्री! तुम पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में लाख वर्षों तक सुख भोगने के अनन्तर भगवान श्रीकृष्ण के गोलोकधाम में जाओगी। भद्रे! अब तुम अपने घर जाओ और भगवती सावित्री का व्रत करो। चौदह वर्षों तक करने पर यह व्रत नारियों को मोक्ष प्रदान करता है। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी तिथि को यह व्रत करना चाहिए। भाद्रपद-मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी तिथि के दिन महालक्ष्मी का शुभ व्रत होता है। यह व्रत सोलह वर्षों तक प्रत्येक वर्ष के प्रतिमास के शुक्ल पक्ष में करना चाहिए। जो नारी भक्ति पूर्वक इस व्रत का पालन करती है, उसे भगवान श्रीहरि का परमपद प्राप्त हो जाता है। प्रत्येक मंगलवार को मंगल प्रदान करने वाली भगवती मंगल चण्डिका की पूजा करनी चाहिए। प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष में षष्ठी के दिन मंगलप्रदा भगवती षष्ठी (देवसेना) की उपासना करने का विधान है।

इसी प्रकार आषाढ़ की संक्रान्ति के अवसर पर सम्पूर्ण सिद्धि प्रदान करने वाली भगवती मनसा की पूजा होती है। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि को रासमण्डल में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण की प्राणाधिका श्रीराधा की उपासना करनी चाहिए तथा प्रत्येक मास की शुक्ला अष्टमी के दिन दुर्गतिनाशिनी, विष्णुमाया, भगवती दुर्गा का व्रत करना चाहिए।

जो नारी विशुद्ध पतिव्रताओं में, श्री यन्त्र आदि में तथा प्रतिमाओं में पति पुत्रवती सती प्रकृतिस्वरूपिणी भगवती जगदम्बा की भावना करके धन और संतति की प्राप्ति के लिए भक्ति पूर्वक पूजा करती है, वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के परम पद को प्राप्त होती है।

इस प्रकार कहकर धर्मराज अपने स्थान पर पधार गए। सावित्री भी पतिदेव को लेकर अपने घर लौट गयी। नारद! यों सावित्री और सत्यवान दोनों जब घर पर चले आये, तब सावित्री ने सत्यवान से तथा अन्य बान्धवों से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। फिर वर के प्रभाव से सावित्री के पिता क्रमशः सौ पुत्र वाले हो गए। उसके श्वशुर की आँखें ठीक हो गईं और वे अपना राज्य पा गये। सावित्री स्वयं भी बहुत-से पुत्रों की जननी बन गई। उस पतिव्रता सावित्री ने पुण्यभूमि भारतवर्ष में अनेक वर्षों तक सुख-भोग किया। तत्पश्चात वह अपने पति के साथ गोलोकधाम में चली गई। जो सविता की अधिदेवी, सवितृदेवता के मन्त्रों की अधिष्ठात्री तथा वेदों की सावित्री (जननी) हैं, वे देवी इन्हीं गुणों के कारण ‘सावित्री’ कही गई है। जयजयश्रीश्यामाश्याम जी । क्या आपने इस लेख के तीनों भाग मनन पूर्वक पढ़ लिए है ???