Thursday, 29 December 2016

धर्म रक्षक ‘श्रीराम’

धर्म रक्षक ‘श्रीराम’

उन्होंने भक्तों के हृदय में अपना पाद-पंकज स्थापति किया-

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः।
'स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् ततः।।[2]

(तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने चरण कमल, स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वप्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये।)

क्यों भाई, शुकाचार्य ने दण्डकवन के काँटे जिन चरणों में बिंधे हुए हैं, ऐसे चरण-पंकज को भक्तों के हृदय में क्यों विरजवाया है? सीता भगवती की मंगलमयी शय्या पर समासीन, कौशल्यात्सगं लालित या चक्रवर्ति-नरेन्द्र के उत्संग में लालित रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान् के पदारविन्द भक्तों के हृदय में विरजवाते? नहीं, नहीं विद्धं दण्डक कण्टकैः, भगवान् के चरण-कमलों में काँटे चुभे हुए हैं’ पूर्वजों की मान मर्यादा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये,धर्म की रक्षा के लिये; ऐसा ध्यान भक्तों को बना रहे इसलिये शुक्राचार्य ने काँटे चुभे चरण-कमल को भक्तों के हृदय में पधराया। राम नंगे पावों वन-वन विहरे, तब उनके पाँवों में काँटे चुभे। गौरक्षा के लिये धर्म की रक्षा के लिए, हमारे देवता भगवान् राम के मंगलमय पादों में काँटे चुभे। कितना सुकोमल है उनका चरण! पंकज का पराग की उसमें चुभता है। फिर कमल की कोमल पँखुड़ी चुभे यह तो बात गौण हो गयी। ऐसे चरणाविन्द में दण्डकवन के काँटे चुभे। हम भी धर्म की रक्षा के लिये, संस्कृति की रक्षा के लिये, पूर्वजों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिये सिर को हथेली में रखकर, प्राणों को खतरे में डालकर आनन्द से जूझना सीखें, इस बात को बताने के लिये शुक्राचार्य ने कहा- ‘विद्धं दण्डक कण्टकैः’।

प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’

4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’

सुमित्रा कहती हैं,‘राम कौन हैं?’

सूर्यस्यापि भवेत् सूर्यो ह्यग्नेरग्निः प्रभोः प्रभुः।
श्रियाः श्रीश्च भवेदग्रद्या कीत्र्याः कीर्तिः क्षमाक्षमा।।
दैवतं देवतानां च भूतानां भूतसत्तमः।
तस्य के ह्यगुणा देवि वने वाप्यथवा पुरे।।[2]

(देवि! श्रीराम सूर्य के भी सूर्य-मप्रकाशक और अग्नि के भी अग्नि-दाहक हैं। वे प्रभु के भी प्रभु, लक्षमी की उत्तम लक्ष्मी, और क्षमा की भी क्षमा हैं। इतना ही नहीं- वे देवताओं के भी देवता तथा भूतों के भी उत्तम भूत हैं। वे वन में रहें या या नगर में, उनके लिये कौन-से चराचर प्राणी दोषावह हो सकते हैं।

यह उपनिषद् की भाषा है-
श्रीत्रस्य श्रोत्रं मनसी मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुपश्चक्षुरति मुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।[1]
(जो श्रोत्र-का श्रोत्र, मन का मना और वाणी की भी वाणी है, वह प्राण का प्राण और चक्षु का चक्षु है, इस रहस्य के जानकार धीर पुरुष संसार से मुक्त होकर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।)
भगवान् श्रोत्र के भी श्रोत्र हैं, मन के मन हैं, चक्षु के चक्षु हैं, वाक् के वाक् हैं। ‘दग्धुः दग्धा अग्निः’ अग्नितादात्म्यापन्न अयःपिण्ड है दग्धा, अग्नि है दग्धा का भी दग्धा। अयःपिण्ड स्वतः अनुष्णाशीत है, लेकिन अग्नि के संयोग से-अग्नि तादात्म्यापन्न होकर दाहक हो जाता है तब ‘अयो दहति’ बोलते हैं। ‘दग्धुः अयः पिण्डस्य दग्धा अग्निः’, दग्धा अयःपिण्ड में दाहकत्व, प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व देने वाला जो अग्नि है वह ‘दग्धुः दग्धा’ है। तप्तायः पिण्ड में जो दाहकत्व-प्रकाशकत्व है वह सापेक्ष है सातिशय और अनित्य है। लेकिन जिस अग्नि के सम्बन्ध में लोहपिण्ड में अनित्य और सातिशय दाहकत्व-प्रकाशकत्व आता है, उस अग्नि में दाहकत्व-प्रकाशकत्व निरतिशय है। जैसे ‘दग्धा का दग्धा अग्नि है’ ऐसे ही ‘श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामथ्र्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र के भी श्रोत्र’ भगवान् हैं। शब्द प्रकाशन-सामथ्र्य सम्पन्न इन्द्रिय श्रोत्र है। उस श्रोत्र में जो श्रोत्रत्व देने वाला है अर्थात् शब्द प्रकाशन-सामथ्र्य जिसके[2] सम्बन्ध से आता है, वे भगवान् श्रोत्र के भी श्रोत्र है- श्रोत्रस्य श्रोत्रम्’। इसी तरह भगवान् मन के भी मन है-‘मनसो मनः’ मन में मन्तव्य पदार्थो को प्रकाशन करने का सामथ्र्य जिससे प्राप्त होता है वह मन का भी मन है। इसी दृष्टि से ‘सूर्यास्यापि भवेत् सूर्यः; भगवान् राम सूर्य के भी सूर्य हैं। सूर्य में जो नेत्र प्रकाशन का आप्यायन का सामथ्र्य है, वह जिससे प्राप्त है श्रीराम हैं। ‘अग्नेरग्निः’ श्रीराम अग्नि के भी अग्नि हैं। अग्नि में प्रकाशकत्व जिससे आता है, वह श्री राम हैं। केनोपनिषद् की कथा याद कर लो- अग्नि तृण नहीं जला सका। भगवान् ने तृण रख दिया- ‘तृणं निदधौ’[3], अग्नि ने हजार बल लगाया पर तृण नहीं जला। वायु आया, उसने भी बल लगाया, तृण को टस-से-मस भी नहीं कर सका। ‘प्रभुः’ भगवान् प्रभु के भी प्रभु हैं। ईश्वर के भी ईश्वर श्रीराम हैं। हमरे यहाँ नन्ददास एक महात्मा हो गये हैं, वे कहते हैं-‘हमारा कृष्ण कौन है?

ब्रह्म का भी ब्रह्म, ईश्वर का ईश्वर है’-

नन्द भवन को भूषण माई।
जसोदा[1] को लाल वीर हलधर को राधा रमण परम सुखदाई।।
शिव को धन संतन को सर्वस, महिमा वेद पुरानन गाई।
इन्द्र को इन्द्र, देव देवन को, ब्रह्म को ब्रह्म अधिक अधिकाई।।
काल को काल, ईश ईशनको, अति ही अतुल तुल्यो नहिं जाई।
‘नन्ददास’ को जीवन गिरिधर, गोकुल गाँव को कुवँर कन्हाई।।

नन्ददास जी ने कहाँ से यह लिया? वाल्मीकि रामायण से । सार यह है कि ऐसे रामचन्द्र राघवेन्द्र स्वयं भगवान् हैं।

लतओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’

लतओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’

हमारे श्री सनातन गोस्वामी जी बोलते हैं-
सन्त्ववतारा बहवः पुष्कनाभस्य सर्वतो भद्राः। कृष्णादन्यः को वा लतास्वपि प्रेमदो भवति।।[4] (भले पुष्करनाभ के अनेक एक-से-एक अन्छे अवतार हैं तो लताओं में प्रेम प्रदान करने वाला कृष्ण से अन्य कौन हैं?)

सनातन गोस्वामी जी महाराज बड़े सन्त-महापुरुष थे। अपने प्रेम में जो कुछ कहा, वह सब हमारे सिर-माथे। बड़ा आदर करते हैं हम उनका। लेकिन वाल्मीकि रामायण को देखें तो मालूम पड़ता है कि रामभद्र के वियोग में नदियों का जल खौल उठा। वृक्षों के पुष्प -अंकुर सभी परिम्लान हो गये, भगवान् रामचन्द्र के विप्रलम्भ जनित तीव्र ताप में-

अनुगन्तुमशक्तास्त्वां मूलैरुद्धतवेगिनः।
उन्नता वायुवेगेन विक्रोशन्तीव पादपाः।।[1]

अपनी जड़ों के कारण वेगहीन पादप तुम्हारा अनुगमन करने में असमर्थ हैं। वायु वेग से ये उन्नत पादप आपसे लौटने के लिये चीत्कार कर रहे हैं।)

लीनपुष्कर पत्राश्च नद्यश्च कलुषोदकाः।
संतप्तपद्याः पद्यिन्यो लीनमीन विहंगमाः।।[2]

(नदियों के जल मलिन हो गये हैं उनके कमलों के पत्ते निलीन प्राय हो गये हैं- सूख गये हैं। नदियों-सरोवरों की कमल एवं कमलिनियाँ सन्तप्त हो गयी हैं। उनके मीन एवं विहंगमयगण लुप्त हो गये हैं।)
ममत्वश्वा निवृत्तस्य न प्रावर्तन्त वत्र्मनि।
उष्णमश्रु विमुच्चन्तो रामे संप्रस्थिते वनम्।।[3]
विषये ते महाराज महाव्यसनकशिताः।
अपि वृक्षाः परिम्लानाः सपुष्पाड्कुरकोरकाः।।
उपतप्तोदका नद्यः पल्वलानि सरांसि च।
परिशुष्कपलाशानि वनान्युपवनानि च।।

न च सर्पन्ति सत्वानि व्याला न प्रसरन्ति च।
रामशोकाभिभूतं तन्निष्कूजमिव तद्वनम्।।[1]
जलजानि पुष्पाणि माल्यानि स्थल जानि च।
न विभान्त्यल्पगन्धीनि फलानि च यथापुरम्।।
अत्रोद्यानानि शून्यानि प्रलीन विहगानि च।
न चाभिरामानारामान् पश्यामि मनुजर्षभ।।

(सुमंत्र ने कहा- राम के वन को प्रस्थित होने पर मैं जब लौटा रथ के घोडे़ उष्ण आँसू गिराते हुए मार्ग पर चलने को प्रवृत्त नहीं हुए। महाराज! महाव्यसन से दुःखित आपके देश के वृक्ष, पुष्पों, पल्लवों, अंकुरों तथा पुष्प-मुकुलों के साथ परिम्लान से हो गये हैं। नदियों, सरोवरों तथा छोटे सरोवरों के जल तप्त एवं शुष्क हो गये हैं। वनों एवं उपवनों के पत्ते सूख गये हैं। कोई प्राणी आहार के लिये भी गमनागमन नहीं कर रहे हैं। व्याल भी प्रसरण नहीं कर रहे हैं। सारा वन राम शोक से अभिभूत होकर निःशब्द-सा हो रहा है। जल और स्थल के सभी पुष्प पहले के समान सौन्दर्य तथा सौगन्ध्य से युक्त नहीं हैं। सारे उद्यान विहंगादि हीन हो शून्य से प्रतीत होते हैं। आराम और क्रीड़ाद्यान भी अभिरामता शून्य हो रहे हैं। इस तरह अचेतन वृक्ष और लताएँ भी रामपे्रम से व्याप्त हैं।)
तो तलाओं को प्रेम प्रदान किया कि नहीं रामभद्र ने, वृक्षों को प्रेम प्रदान किया कि नहीं रामभद्र? जो वृक्ष भगवान् के विप्रलम्भ में परिम्लान हो जाते हैं, तो उनको श्रीरामभद्र में पे्रम नहीं था क्या? बिना संभोग जनित रसास्वादन के विप्रलम्भ में ताप होता ही नहीं। अनादिकाल से जीव भगवान् के विप्रलम्भ का अनुभव करता है, परन्तु इसे ताप कहाँ हो रहा है? ताप उसे होता है जिसे- भगवत्-रसास्वादन होता है। जिसको भगवत्-रसास्वादन नहीं, उसको विप्रलम्भ में ताप भी नहीं। इस तरह ये सब वृक्ष भगवान् का रसास्वादन करते हैं, मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन करते, पादारविन्द की नखमणि चन्द्रिका का दर्शन करते हैं। धारित्री जहाँ-जहाँ भगवान् के पादारविन्द का विन्यास होता है, वहाँ-वहाँ अपना हृदय-कमल-प्रफुल्लित करती है। धरित्री के प्रफुल्लित हृदय पर ही भगवान् का पादारविन्द विन्यास होता है।

आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीरामः

‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीरामः
श्री बल्लभाचार्य जी कहते हैं- जो सारस्वत कल्प के पूर्णतम पुरुषोत्तम कृष्ण हैं, वही श्रीराम हैं। पुराणों में, महाभारत में और रामायणों में भी वाल्मीकि-रामायण की चर्चा है। बाल्मीकि-रामायण में ब्रह्मा जी कहते हैं-

भगवान् नारायणो देवः श्रीमांश्चक्रायुद्धः प्रभुः।
एकश्रृगों वराहस्त्वं भूतभव्यसपलजित्।।
अक्षरं ब्रह्म सत्यं च मध्ये चान्ते च राधव।
लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः।।
शागधन्वा हृषीकेशः पुरुषः पुरुषोत्तमः।
अजितः शंख-घृग् विष्णुः कृष्णश्चैव बृहद्वलः।।[1]

(आप भोक्ता और भोग्य रूप सकल प्रपच्च के आश्रय साक्षात् नारायण हैं, सुदर्शन चक्रधारी श्री विष्णु हैं, एक श्रृंग बराह तथा भूत और भव्य सकल शत्रुओं के विजेता है। आप ही आदि, अन्त और मध्य में रहने वाले सत्य अक्षर हैं। सब लोकों के आप ही परम धर्म है। आप ही चतुर्भुज विष्वक्सेन, शागधन्वा, सर्वेन्द्रिय नियामक हृषीकेश पुरुष एवं पुरुषोत्तम हैं। आप हो अजित खड्गधर विष्णु, बृहद्वल कृष्ण हैं।)

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 235

भागवत सुधा -करपात्री महाराज

सेनानीग्ररामणीः सर्व त्वं बुद्धिस्त्वं क्षमा दमः।
प्रभवश्चाप्यश्च त्वमुपेन्द्रो मधुसूदनः।।
इन्द्रकर्मा महेन्द्रस्त्वं पद्यनाभो रणान्तकृत्।
शरण्यं शरणं च त्वामाहुदिव्या महर्षयः।।
सहस्त्रश्रृगो वेदात्मा शतशीषीं महर्षभः।
त्वं त्रयाणां हि लोकानामादिकर्ता स्वयं प्रभुः।।[1]

(आप सेनानी एवं ग्रामीण हैं। आअ ही बुद्धि, सत्व, क्षमा तथा दम हैं। जगत् की उत्पत्ति और प्रलय के आप ही एकमात्र कारण हैं एवं आप ही मधुसूदन हैं। आप ही इन्द्र कर्मा इन्द्र की सृष्टि करने वाले महेन्द्र हैं। रणान्तकृत पद्यनाभ भी आप ही हैं। दिव्य महर्षि आपको शरण योग्य परम आश्रय एवं रक्षक कहते हैं। आप ही सहस्त्रश्रृंग वेद एवं शतशीर्ष महान् धर्म हैं। आप तीनों लोकों के आदि कर्ता स्वयं प्रभु हैं- आपका अन्य कोई प्रभु नहीं है।)
भागवत वाले कहते हैं--

एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं सृडयन्ति युगे-युगे।।[2]

(ये सब अवतार तो भगवान् के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् अवतारी ही हैं। जब लोग दैत्यों के अत्याचारों से व्याकुल हो उठते हैं तब युग-युग अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं।)
‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयं’ के साथ ‘स्वयं प्रभुः’ इस वचन की वाक्यता है कि एक वाक्यता है कि नहीं? इस तरह आदि काव्य वाल्मीकि-रामायण के भगवान् श्रीराम और भागवत के श्रीकृष्ण एक ही तत्व सिद्ध होते हैं। इसी दृष्टि से ‘श्रीकृष्ण सोलह कला हैं और श्रीराम बारह कला’ इसका भी समन्वय कर लेना चाहिये। सोलह आने का एक रुपया होता है। सोलह आना और बारह मासा का एक ही अर्थ है। श्रीकृष्णचन्द्र चन्द्रवंशी हैं तो श्रीरामचन्द्र सूर्यवंशी। चन्द्रमा को सोलह कलाएँ होती हैं तो सूर्य की बारह राशि होती हैं। जैसे चन्द्र सोलह कला में पूर्ण हैं, वैसे ही सूर्य बारह राक्षियों में पूर्ण हैं। इस तरह से श्रीरामचन्द्र परात्पर पूर्णतम पुरुषोत्तम स्वयं भगवान् ही हैं-

ऋतधर्मा वसुः पूर्व वसूनां च प्रजापतिः।
त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयं प्रभुः।।[3]

पूर्वकाल में वसुओं के प्रजापति जो ऋतुधर्मा नाम के वसु थे, वे आप ही हैं। आप तीनों लोके के आदिकर्ता स्वयं प्रभु हैं।

वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’

वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’-

चक्रवर्ती नरेन्द्र दशरथ महाराज के ऊपर अनुग्रह करके भगवान् परात्पर परब्रह्म श्रीरामचन्द्र राघवेन्द्र के रूप में प्रकट हुए। श्रीमद्भागवत में लिखा है- ‘एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’[1]’ अन्य जितने भी अवतार हैं, सब भगवान् के अंश हैं, कला हैं और कृष्ण स्वयं भगवान् हैं।’ यहाँ ‘च’ है। ‘च’ कहता है कि ‘रामचन्द्रोअपि’, अर्थात् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णतय पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं, वैसे ही श्री रामचन्द्र राघवेन्द्र भगवान् भी परात्पर परब्रह्म हैं। श्रीमद् बल्लभाचार्य कट्टर श्रीकृष्णभक्त हुए हैं। उन्होंने रामावतार के सम्बन्ध में माना है-

स यैः स्पृष्टोअभिदृष्टो वा संविष्टाअनुगतोअपि वा।
कोशलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः।।[2]

अर्थात् जिसने भगवान् रामचन्द्र का स्पर्श किया, जिसने भगवान् राघवेन्द्र का स्पर्श किया, जो भगवान् रामचन्द्र के पास बैठ गया और जो कौशलेन्द्र भगवान् रामचन्द्र के पीछे चला, वे सभी कौशलवासी ऐसे दिव्यधाम में गये, जहाँ बड़े-बडे़ योगी अमलात्मा परमहंस जाते हैं। सर्वाथाअपि पुर्णतम पुरुषोत्तम वेदान्त भगवान् का ही श्रीरामचन्द्र रूप में प्राकट्य होता है तभी तो उनके दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, अनुगमन मात्र से प्राणियों की परमगति हो जाती है। दुनियाँ में भगवान् रामचन्द्र के अवतार के समान कोई भी अवतार नहीं हुआ। भक्तों ने कहा- कहिये महाराज! आप कहते हैं कर्मकाण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, उपासना काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है, ज्ञान काण्ड के द्वारा प्राणी का कल्याण होता है। कौन-से कर्मकाण्ड का इन्होंने अनुष्ठान किया, कौन-से उपासना काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया या कौन-से ज्ञान काण्ड का इन्होंने अभ्यास किया कि इनको दिव्य परमधाम, साकेतधाम प्रदान किया? बताइये क्या उत्तर है इसका? हम उत्तर देते हैं-भुशुण्डि रामायण में एक कथा है। एक बार नारद जी महाराज भगवान् रामचन्द्र जी के पास आये। भगवान् ने पूछा-‘कहाँ से आये महाराज!’’ नारद जी ने कहा-‘ब्रह्मलोक से आया हँ।’ भगवान ने पूछा- ‘कहिये क्या सन्देशह है?’ नरद जी ने कहा-‘‘ब्रह्मा जी ने सन्देश दिया है। उन्होंने कहा है-एक बार मेरे मानस-संकल्प से साठ करोड़ दिव्यांगनायें अविर्भूत हुर्ह। जिनका सौन्दर्य, अनन्तमाधुर्य, अद्भुत-लोकोत्तर माधुर्य था। हमने उनसे कहा- ‘तुम्हारी शादी किससे कर दें?’ उन्होंने कहा-‘हम देवों या मनुष्यों को नहीं वरण करना चाहती। हम तो अनन्त ब्रह्माण्डनायक रामचन्द्र राघवेन्द्र परात्पर प्रभु को ही अपना सर्वस्व प्राणनाथ, प्रियतम-प्राणधन, परम पे्रमास्पद मानती हैं।’ दैवात् न जाने क्या हुआ, हमने उनसे कह दिया, ‘तुम सब लता हो जाओ।’

मेरे बचन के अनुसार वे अयोध्या के बाहर जो आम्रवन है, उसी में लता हुई’। तबसे आपको उपासना कर रही हैं। आप उन्हें स्वीकार करें, लोकात्तर संस्पर्श प्रदान कर कृतार्थ करें।’’ भगवान् राम आत्माराम हैं। उनकी आत्मस्वरूपा भगवती सीता का उन लताओं में दिव्य रीति से आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् रामभद्र का उन लताओं को रमण प्राप्त हुआ। कहते हैं, माता सती के सामने जब भगवान् रामभद्र का दिव्य रूप प्रकट हुआ तो उन्होंने प्रश्न किया-‘‘महाराज! आप तो पूर्ण परब्रह्म सर्वशक्तिमान् दीखते हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डजननी भगवती सीता तो आपके समीप ही हैं। इनका कभी विश्लेष हुआ ही नहीं। फिर आप यह सब नाटक क्यों कर रहे हैं? कही अमुक वृक्ष से आलिगन क्यों कर रहे हैं?’’ भगवान् श्रीराम ने कहा-‘‘यह सब भूत भावन विश्वनाथ बतलायेंगे। संक्षेप मंे इतना समझ लीजिये कि ये सब हमारे भक्त हैं। ब्रह्मादि लोक-लोकान्तरों से आकर वृक्ष, लता और पाषाण बने हैं। हमारे सम्मिलन की उत्कण्ठा लेकर आये हैं। हम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। बिना पागलपन का नाटक रचे लताओं का आलिगंगन, वृक्षों का आलिंगन और पाषाणों का आलिंगन कैसे करें? इसलिये सीता के विप्रलम्भजन्य तीव्रताप से उन्मत्त हो करके हम यह सब नाटक कर रहे हैं, वास्तव में अपने भक्तों से मिल रहे हैं।’’ इस तरह भगवत्-सम्लिन के उपयुक्त कर्म, उपासना और ज्ञान के बिना भगवान् का सम्मिलिन प्राप्त नहीं होता। भगवान् की अनुकम्पा से ही भगवान् का सम्मिलन होता है, परन्तु होता उन्हीं को है जिन्होंने तदनुकूल कर्म, उपासना, ज्ञान का पहले अनुष्ठान किया है।

श्रीरामजन्म-रहस्य 1 करपात्री जी


श्रीरामजन्म-रहस्य


जिस समय संसार में दुराचार, दुर्विचार का परितः प्रसार होने लगता है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, धैर्य, न्याय आदि मानवोचित सद्गुणों का अपमान होने लगता है, दम्भ का ही साम्राज्य तथा वेद-शास्त्रोक्त वर्णाश्रम धर्म का विलोप होने लगता है, दैत्य-दानवों या दैत्यप्राय कुपुरुषों से धरा व्याकुल हो जाती है, सत्पुरुष तथा देवगण अनीति से उद्विग्न हो उठते हैं, उस समय सर्वपालक भगवान किसी रूप में प्रकट होकर श्रुति-सेतु का पालन करते और अपने मनोहर, मंगलमय, परम पवित्र चरित्रों का विस्तार करके प्राणियों के लिये मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।

अभिज्ञों का मत है कि यदि भगवान का विशुद्ध, सत्त्वमय, परम मनोहर, मधुर स्वरूप प्रकट न होता तो अदृश्य, अग्राह्य, अव्यपदेश्य परब्रह्म के साक्षात्कार की बात ही जगत् से मिट जाती। भगवान की मधुर मूर्ति एवं चरित्रों में मन के आसक्त हो जाने पर उसकी निर्मलता और एकाग्रता सहज में ही सिद्ध हो जाती है। जैसे अंजन द्वारा शुद्ध नेत्र से सूक्ष्म वस्तु का परिज्ञान सुगमता से हो जाता है, वैसे ही भगवच्चरित्र एवं उनके मधुर स्वरूप के परिशीलन से निर्मल होकर चित्त सूक्ष्म से सूक्ष्म भगवदीय रहस्यों को समझ लेता है। इसके अतिरिक्त अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को प्रेमयोग-प्रदान करने के लिये भी प्रभु के लीला-विग्रह का आविर्भाव होता है। इन्हीं सब भावों को लेकर मधुमास के शुक्लपक्ष की नवमी को मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीभगवान रामचन्द्र का जन्म हुआ।

अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-नायक, भगवान सर्वान्तरात्मा, सर्वशक्तिमान् की भ्रुकुटी के संकेतमात्र से उनकी मायाशक्ति विश्वप्रपंच का सर्जन, पालन तथा संहार करती है। जैसे अयस्कान्त (चुम्बक) के सान्निध्य से लौह में हलचल होती है, वैसे ही भगवान के सान्निध्य मात्र से मायाशक्ति को चेतना प्राप्त होती है। जैसे झरोखों में सूर्य-किरणों के सहारे निरन्तर परिभ्रमण करते हुए अपरिगणित त्रसरेणु दिखाई देते हैं, वैसे ही प्रकृतिपारदृश्वा लोकोत्तरपुरुष-धौरेयों को भगवान के सन्निधान में अनन्त विश्व दिखाई देते हैं-“यत्सन्निधौ चुम्बकलोहवद्धि जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति।।” भगवान अपने पारमार्थिक रूप से निराकार, निर्विकार, निरीह, निर्गुण होते हुए भी मायाशक्ति-युक्तरूप से अनादिबद्ध, स्वांशभूत जीवों पर कृपा करके उनके कल्याणार्थ विश्व के सर्जन एवं संहारादि लीलाओं में प्रवृत होते हैं।

Sunday, 18 December 2016

तोरा मन दर्पण कहलाये , तृषित

तोरा मन दर्पण कहलाये -
भले बुरे सारे कर्मों को,देखे और दिखाये
मन ही देवता, मन ही ईश्वर,मन से बड़ा न कोय
मन उजियारा जब जब फैले,जग उजियारा होय
इस उजले दर्पण पे प्राणी,धूल न जमने पाये
तोरा मन दर्पण कहलाये-
सुख की कलियाँ, दुख के कांटे,मन सबका आधार
मन से कोई बात छुपे ना,मन के नैन हज़ार
जग से चाहे भाग लो कोई,मन से भाग न पाये
तोरा मन दर्पण कहलाये -
तन की दौलत ढलती छाया, मन का धन अनमोल
तन के कारण मन के धन को मत माटी से रोल
हीरा जन्म अनमोल है व्यर्थ न जाने पाये
तोरा मन दर्पण कहलाये-

राम राज्य भाव 3

* राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती। नाना भाँति सिखावहिं नीती॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा। करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी भी भाइयों पर प्रेम करते हैं और उन्हें नाना प्रकार की नीतियाँ सिखलाते हैं। नगर के लोग हर्षित रहते हैं और सब प्रकार के देवदुर्लभ (देवताओं को भी कठिनता से प्राप्त होने योग्य) भोग भोगते हैं॥2॥
* अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं। श्री रघुबीर चरन रति चहहीं॥
दुइ सुत सुंदर सीताँ जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥3॥
भावार्थ:-वे दिन-रात ब्रह्माजी को मनाते रहते हैं और (उनसे) श्री रघुवीर के चरणों में प्रीति चाहते हैं। सीताजी के लव और कुश ये दो पुत्र उत्पन्न हुए, जिनका वेद-पुराणों ने वर्णन किया है॥3॥
* दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील घनेरे॥4॥
भावार्थ:-वे दोनों ही विजयी (विख्यात योद्धा), नम्र और गुणों के धाम हैं और अत्यंत सुंदर हैं, मानो श्री हरि के प्रतिबिम्ब ही हों। दो-दो पुत्र सभी भाइयों के हुए, जो बड़े ही सुंदर, गुणवान्‌ और सुशील थे॥4॥