[ पंडित श्री गयाप्रसाद जी के सार वचन उपदेश ]-3⃣
*श्रद्धा*
श्रद्धा में भयंकर विघ्न है अपनी बुद्धि एक विचारणीय विषय है कि सांसारिक बुद्धि श्रद्धा के समान अति उच्च वस्तु कूँ कैसे तौल पावैगी।
जा कांटे पै लकरी या कोयला तौले जायेँ हैं वा कांटे पै चाँदी या सोना कैसे तौल सकै है
अतएव भगवती श्री श्रद्धा महारानी कूँ बहुत ही
बचावै, अपनी बुद्धि के तराजू में तौलवे सों।
यदि श्रद्धा संभार कै राखते बनै तौ यह बढ़ती ही जाय है। श्रद्धा कौ अन्तिम फल ही श्री भगवद् प्रेम या
आत्मबोध ,बहुत ही सावधानता राखै
श्रद्धा ऐसे शीघ्र उड़ जाय है जैसे कपूर। या कारण
श्री श्रद्धा महारानी कूँ बहुत ही संभार कै राखै। जाके कोटिन जन्मन की सुकृति उदय होंय हैं
वाही के अन्तः करण में सात्विकी श्रद्धा उपजै है ,रुकै है, बढै है,बढ़ती जाय है अतृप्ति की भावना होय है।हाँ ये सबरी बातें यदि लेनी चाहै तौ एक ही अभ्यास करै
कहाँ मैं तुच्छ और कहाँ ये जिन सों श्रद्धा प्राप्त
भयी। यही युक्ति है श्री श्रद्धा महारानी के
रोकवे की। श्रद्धावान् जितेंद्रय बने है श्रद्धावान् सोम्य होय है। श्रद्धावान् शान्त होय है।श्रद्धावान् गम्भीर होय है।श्रद्धावान् नियमपालक होय श्रद्धावान् अपने कर्तव्यपालन में परम द्रढ़ होय है। श्रद्धावान् दैन्य की मूर्ति होय श्रद्धावान् में समस्त सद् गुण स्वयं आयकें निवास करें हैं। श्रद्धावान् कौ पतन नहीं। श्रद्धावान् अहंकारी नहीं होय श्रद्धावान् कूँ अवश्य ही प्रेमी बननौ ही परैगौ
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Sunday, 16 October 2016
श्रद्धा , गयाप्रसाद जी
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