Wednesday, 12 October 2016

सत्संग का अर्थ और स्वरूप , मानव सेवा संस्था

सत्संग का अर्थ और स्वरूप

सत्संग  का  शाब्दिक  अर्थ  तो  है  सत् (सत्य) का संग अर्थात् सत्य के संग होना। वास्तव में जब हम असत् का त्याग कर देते हैं तब हम सत् के संग हो जाते हैं,वैसे हम सत् से कभी अलग हो ही नहीं सकते, सत् के संग नित्य रहते ही हैं।

प्रचलित भाषा में सत्-चर्चा को ही लोग सत्संग कहते हैं। ''वक्ता और श्रोता मिलकर सत्य का विवेचन करते हैं। इस गोष्ठी को भी सत्संग कहते हैं। स्वामी शरणानन्द जी ने सत्य के विवेचन को सत्-चर्चा,सत्य के सम्बन्ध में सोचने-विचारने को सत्-चिन्तन कहा है और सर्व हितकारी कार्य को सत् कार्य कहा है। सत्-चर्चा,सत्-चिन्तन और सत्-कार्य सत्संग नहीं है। वे सत्संग के सहयोगी हो सकते हैं।"

स्वामी जी ने 'मूक-सत्संग एवं नित्य-योग नामक पुस्तक में सत्संग और सत्चर्चा-सत्चिन्तन के भेद को समझाया है। वह नीचे उध्दरित है:-

''सत् की चर्चा, उसके चिन्तन एवं सत् के संग में बड़ा भेद है। सत् की चर्चा तथा उसका चिन्तन श्रम साध्य है, किन्तु सत् का संग श्रम-रहित होने से ही सम्भव है। सत् की चर्चा तथा तथा चिन्तन करने के लिए मानव को शरीर इन्द्रिय,मन,बुध्दि आदि की अपेक्षा होती है; कारण कि श्रम का सम्पादन शरीरादि के बिना सम्भव नहीं है,किन्तु सत् का संग करने के लिए शरीर के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती। वह तो श्रम-रहित होने पर अपने आप हो जाता है। जब तक साधक उन्हीं प्रवृत्तियों को महत्व देता है,जिनके लिए उसे वस्तु,योग्यता,सामर्थ्य आदि की आवश्यकता होती है,तब तक विश्राम से साध्य सत् का संग नहीं होता।.......सत् की चर्चा तथा उसके चिन्तन से सत्संग की अभिरुचि जागृत होती है,सत् का संग नहीं होता,अर्थात् सत्संग की मांग सबल होती है। सत्संग की माँग में असत् के त्याग की सामर्थ्य निहित है।.......सत्संग का प्रभाव शरीर,इन्द्रिय,मन,बुध्दि आदि पर स्वत: होता है।"

''विवेचन और चिन्तन के बाद जब व्यक्ति असत् के संग का त्याग कर देता है और जीवन के सत्य को स्वीकार कर लेता है तब उसके व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन तत्काल हो जाता है। यही सत्संग का फल है।"

''मानव सेवा संघ मानव-समाज को इसी अर्थ में सत्संग को अपनाने की प्रेरणा देता है।'' एक प्रकार से सचेत किया गया है कि सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन को ही सत्संग मान लेने से सफलता नहीं मिलती।"

वास्तविक सत्संग क्या है इसे अनेक प्रकार से समझाया गया है-

- प्राप्त विवेक के प्रकाश में जाने हुए असत् का त्याग सत्संग है।

- जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है।

- निज विवेक का आदर करना सत्संग है।

- भूल को भूल जानकर उसका त्याग कर देना सत्संग है।

- ज्ञान के आधार पर अकिंचन या अचाह होकर अप्रयत्न हो जाना सत्संग है।

सत्संग का अर्थ है-विवेक विरोधी कर्म,विवेक विरोधी सम्बन्ध व विवेक विरोधी विश्वास का त्याग।

- आस्था के आधार पर सुने हुए प्रभु के अस्तित्व, महत्व एवं अपनत्व को स्वीकार करके निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाना सत्संग है।

मानव सेवा संघ दर्शन में, ''सत्संग मानव का स्वधर्म बताया गया है। स्वधर्म के पालन में व्यक्ति सर्वदा समर्थ एवं स्वाधीन है। .....सत् के संग में व्यक्ति सदैव रहता है। सत् उसे नहीं कहते जो सदैव,सर्वत्र और सभी में न हो। सत् ही सर्व उत्पत्ति का आधार और सर्व प्रतीति का प्रकाशक है। अत: सत् से कोई व्यक्ति अलग नहीं हो सकता। अपने जाने हुए असत् के संग से उत्पन्न हुए विकारों के कारण व्यक्ति को नित्य विद्यमान सत् की विद्यमानता का आनन्दमय अनुभव नहीं होता।"

''मानव सेवा संघ ने असत् के संग-जनित विकारों के नाश को ही साधक का परम पुरुषार्थ बताया है। यह जीवन का सत्य है कि असत् के संग का त्याग कर देने पर, अर्थात् विवेक-विरोधी कर्म,सम्बन्ध और विश्वास का त्याग कर देने पर व्यक्ति के अह्म रूपी अणु में विद्यमान सत्य प्रत्यक्ष हो जाता है। असत् के त्याग में सत् का संग निहित है,मानव सेवा संघ के अनुसार सत्संग का यही अर्थ है।"

स्वामी शरणानन्द जी ने 'सत्संग' की व्याख्या इस प्रकार भी किया है:-

''सत्संग तीन प्रकार का होता है:-

(क) कर्तव्यनिष्ठ होने का सत्संग: इस सत्य को स्वीकार करो कि सभी अपने हैं-निज स्वरूप है; तो सुखी को देखकर प्रसन्न हो जाओगे,दु:खी को देखकर करुणित हो जाओगे। करुणा से भोग की रुचि का नाश व प्रसन्नता से नीरसता का नाश होगा।

(ख) ज्ञानी का सत्संग: मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये।

(ग) ईश्वर विश्वासी का सत्संग: प्यारे प्रभु मेरे अपने हैं,अपने में है और कण-कण में व्याप्त हैं। यह तीनों प्रकार का सत्संग स्वधर्म है।

सत्संग की तीन विधियां बतायी गई हैं:-

(क) मूक और व्यक्तिगत सत्संग-

''व्यक्ति सोकर जागते ही प्रात:काल ब्रह्म-मुहूर्त में शान्त होकर अपने सम्बन्ध में विचार करे,अपने लक्ष्य को स्पष्ट करे,वर्तमान में जो दोष दिखाई दें उनका त्याग करे,निर्दोषता की शान्ति में अहंकृति रहित होकर निवास करे। अहंकृति रहित होने से जीवन के मंगलमय विधान के अनुसार शरीरों से तादात्म्य तोड़ने की सामर्थ्य आ जाती है। अशरीरी जीवन का अनुभव हो जाता है।"

नोट-1: आदर्श समय तो यही है, परन्तु यदि अपनी अपरिहार्य दिनचर्या के कारण प्रात:काल यह सम्भव नहीं है तो रात्रि में सोने से पहले इसे अपनाया जा सकता है अन्यथा अपनी दिनचर्या के बीच जो निवृत्ति काल हो जब अपने को कुछ भी नहीं करना है,तब यह सत्संग अपनाया जा सकता है। मुख्य बात यह है कि यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि इस विधि पर कितना दृढ़ विश्वास है कि इससे मुझे नित्य अविनाशी रसरूप जीवन प्राप्त होगा और इस जीवन को प्राप्त करने के प्रति कितनी तीव्र उत्कण्ठा (भूख) है।

नोट-2: ऊपर शब्द आये हैं 'अहंकृति रहित होकर' । अहंकृति रहित होने का अर्थ है कर्तृत्व (कर्तापन) का अभिमान न हो-क्रिया जनित सुख का भोग न हो और कर्म के फल में आसक्ति न हो।

(ख) पारिवारिक सत्संग-

''पारिवारिक जीवन में चौबिस घंटे में कोई एक समय ऐसा निकालना चाहिए कि जिसमें परिवार के सभी सदस्य प्रेमपूर्वक एवं साथ बैठकर जीवन के सत्य पर विचार कर सकें। पारस्परिक पारिवारिक व्यवहार की कठिनाइयों एवं मतभेदों को दूर करने के लिए अपनी-अपनी भूलों को जान सकें और उनका त्याग करने का व्रत लें। प्रेमपूर्वक सर्व-हितकारी भाव से प्रार्थना करें। इस योजना से परिवार के भीतर गलतफहमी के कारण उत्पन्न होने वाले वैमनस्य का अन्त होता है और एक दूसरे के सह-संकल्प से शुभ विचारों को पुष्टि मिलती है,परिवार के अन्य सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करने में अपनी-अपनी कर्तव्यनिष्ठा की पुष्टि होती है। ये सभी बातें आंतरिक और व्यवहारिक उन्नति में सहयोगी हैं।" तत्पश्चात् थोड़ी देर के लिये सभी लोग भीतर बाहर से शान्त हो जायें-मूक हो जायें। मूक होकर सत् के संग हों।

(ग) सामूहिक सत्संग-

''जब कभी हम सामूहिक सत्संग के लिए एकत्रित हो तो अनेक प्रकार की भिन्नता होते हुए भी साध्य की एकता के नाते मूक होकर सर्वात्मभाव की पुष्टि करें। प्रीति की एकता ही सामूहिक उन्नति की नींव है। मानव सेवा संघ ने इस प्रीति की एकता को सुरक्षित रखने पर बहुत जोर डाला है।"

अन्त में सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-

''मानव के जीवन में सत्संग का महान फल होना बताया है। मानव सेवा संघ की पध्दति में शान्ति,मुक्ति,भक्ति को सत्संग से साध्य माना गया,अभ्यास से नहीं। सत्संग कर लेने पर साधन,ध्यान,भजन आदि स्वत: होने लगते हैं। इसके विपरीत सत्संग किये बिना किसी प्रकार की साधना का प्रयास असफल ही रहता है। क्रियात्मक साधना के अभ्यास से व्यक्ति की उस क्रिया विशेष में आसक्ति हो जाती है,उससे अपने वास्तविक जीवन की अभिव्यक्ति नहीं होती।"

ज्ञान के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'साधन' है और आस्था के आधार पर किये हुए सत्संग का फल 'भजन है'।"

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