Thursday, 6 October 2016

अहेतुकी कृपा करने वाले अतिशय दयालु प्रभु

अहेतुकी कृपा करने वाले अतिशय दयालु प्रभु

महात्मा गाँधी का कहना था कि 'मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता जब मैंने उन्हें (ईश्वर) को सच्चे मन से पुकारा हो और उन्होंने न सुना हो।''

श्रीमद्भागवत् में गजेन्द्र-मोक्ष का एक प्रसंग है। सरोवर में ग्राह गजराज को खींच कर ले जा रहा था। साथ के हाथी उसकी कोई मदद नहीं कर पाये और उसका भी बल काम नहीं कर रहा था। तब उसने असहाय होकर भगवान को पुकारा। पूर्व जन्म में सीखकर कंठस्थ किये हुए स्तोत्र का  पाठ  करने लगा । उसकी पुकार सुनकर श्री हरि  (भगवान) प्रकट हो गये और करुणावश गजराज को ग्राह के चंगुल से बचा लिया।

गीता प्रेस गोरखपुर के द्वारा वही स्तुति गजेन्द्र मोक्ष के नाम से छोटी से  पुस्तिका  के रूप  में  प्रकाशित  है। उसके  आरम्भ  में  'परिचय' में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने लिखा है-महामना मालवीय जी (पं0 मदन मोहन) महाराज कहा करते थे कि गजेन्द्र कृत इस स्तवन का आर्त भाव से पाठ करने पर लौकिक,पारमार्थिक महान संकटों और विघ्नों से छुटकारा मिल जाता है.....।

तात्पर्य हुआ कि जिस प्रकार गजराज ने भगवान को पुकारा था,उसी भाँति कोई भी पुकारे तो वह सुनते हैं और उसका उध्दार करते हैं।

महाभारत ग्रंथ में धृतराष्ट्र की राजसभा में उनके पुत्र दु:शासन द्वारा द्रौपदी का निर्वस्त्र करने के प्रयास का प्रसंग है। उन्होंने पहले अपने पतियों की ओर फिर पितामह और अन्य गुरुजनों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा पर जब किसी ने भी उनकी लाज बचाने हेतु कोई उपक्रम नहीं किया तब उन्होंने असमर्थ होकर द्वारिकाधीश (कृष्ण भगवान) को आर्त भाव से पुकारा तो भगवान उनका चीर अन्तहीन बढ़ाते ही गये। दु:शासन थककर बैठ गया और द्रौपदी को भगवान ने निर्वस्त्र होने से बचाकर उनकी लाज रखी।

इन दृष्टांतों से यह प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर पुकारने पर ही सुनते हैं अन्यथा नहीं? यदि ऐसा होता तो उन्हें अहैतु कृपा करने वाला कैसे कह सकते थे।

वह तो अतिशय दयालु हैं और दया करने में आलस्य नहीं करते (गजेन्द्र मोक्ष से) स्वामी कृष्णानन्द जी ने एक अवसर पर कहा था कि "He protects us all the time-we must learn to see. His grace in every event.''

यह उनका स्वयं का अनुभव था और अनेक और लोगों का भी ऐसा ही अनुभव है। जब राणा ने मीराबाई के पास जहरीला सर्प और फिर विष का प्याला भेजा तो उनके अराध्य गिरधर गोपाल ने स्वयं उन्हें फूलों की माला और अमृत में परिवर्तित कर दिया।

हिरण्यकशिपु  ने  जब  अपने  पुत्र  प्रह्लाद  को पहाड़ से नीचे  फेंकवाया , आग  में  जलाने  का प्रयास  किया  तब   उन्होंने  (प्रह्लाद)  भगवान को पुकारा नहीं,बस उनके ध्यान में मग्न रहे। प्रभु ने अपने आप ही अपने भक्त,अपने शरणी की रक्षा की।

ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी की साधना-काल में उनके सद्गुरु ने उनसे कहा था कि ''ठहरी हुई बुध्दि में श्रुतियों का ज्ञान स्वत: प्रकट होता है।'' स्वामी जी के जीवन का एक प्रसंग है-पटना में नेशनल साइन्स कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। स्वामी जी के प्रेमियों ने उन्हें भी आमंत्रित किया। फिर कहा गया कि वह अधिवेशन को सम्बोधित करेंगे। जब वह मंच पर पहुँचे तो अधिवेशन में भाग लेने वालों में से किसी ने कहा कि आप परमाणु-विज्ञान पर कुछ बताइये। प्रश्न्कत्तर्ाा ने चाहे जिस भी भाव से पूछा हो, परन्तु स्वामी जी आधा घन्टा तक विशेषज्ञ की भाँति परमाणु-विज्ञान पर बोलते रहे। जब वह चलने लगे तो एक भक्त ने पूछा कि आप तो केवल कक्षा चार या पाँच तक पढ़े थे, आपने यह सब कैसे बोला। इस पर उन्होंने कहा कि जिसने साइन्स बनाई है न उसी ने मुझे बता दिया।

इसका एक पहलू तो यह है कि ठहरी हुई बुध्दि में परमाणु-विज्ञान का ज्ञान स्वत: प्रकट हो गया। दूसरा पहलू यह है कि उनके शरण्य (प्रभु) ने अपने शरणागत की लाज रखने के लिये स्वयँ ही उनकी वाणी के माध्यम से बोल दिया। स्वामी जी की जिस कोटि की शरणागति थी-सम्पूर्ण समर्पण (total surrender) उसमें उनके द्वारा प्रभु से मदद के लिए कहना-पुकार लगाना,सोचा ही नहीं जा सकता। अत: यही मानना पड़ेगा कि प्रभु अपनी अहैतु की कृपा से अपनी ही ओर से स्वयं ही उनके मुख से आधे घंटे तक बोलते रहे।

परमहंस योगानन्दजी के जीवन का भी एक ऐसा ही प्रसंग है। जब वह जहाज से विदेश जा रहे थे तो रास्ते में उनसे सह-यात्रियों को सम्बोधित करने को कहा गया। परन्तु वह एक शब्द नहीं बोल सके। अपने केबिन में जाकर अपने गुरु को याद करके खूब रोये। अगले दिन वह पाँच मिनट के बजाय पैंतालिस मिनट तक सुन्दर अंग्रेजी भाषा में बोलते रहे और श्रोता शान्त होकर सुनते रहे। यदि रोने को पुकार माना जाय तो दूसरी बात होगी,अन्यथा उनके गुरु ने (सद्गुरु, ईश्वर का ही रूप तो होता है) या प्रभु ने अपने बालक की लाज रखने के लिए उनके मुख से बोला।

ऐसा ही अनुभव एक अन्य व्यक्ति का है। किशोरावस्था में इन्टर साइन्स का छात्र था। पढ़ाई ठीक से न करने के कारण क्लास में पिछड़ गया था। एक दिन ट्रिग्नामेट्री के क्लास में बोर्ड पर एक प्रश्न् हल करने को कहा गया। उसकी और उसके बाद कुछ और छात्र जिनसे कहा गया, कि असफलता पर टीचर बहुत रुष्ट हुए और चेतावनी दी कि यदि एक सप्ताह में क्लास के अपटूडेट नहीं आये तो मैथेमेटिक्स छोड़कर आर्टस का विषय ज्वाइन करना पड़ेगा। वह किशोर बहुत परेशान और भयभीत हो गया कि घर पर उसकी बड़ी भद हो जायेगी। मैथेमेटिक्स के एलजेब्रा,कोआर्डिनेट ज्योमेट्री,ट्रिग्नामेट्री आदि अनेक उप-विषय थे- उन सब में एक सप्ताह में अपटूडेट आना असम्भव ही था।

कुछ ही दिनों पश्चात् टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर कोआर्डिनेट ज्योमेट्री का एक प्रश्न् लिख दिया और बारी-बारी से उन सबसे अगला स्टेप पूछने लगे जिनको चेतावनी दी थी। उस किशोर ने इस आशंका से कि कहीं उससे न पूछ दिया जाय,डेस्क में मुँह छिपाने का प्रयास किया तब तक उसे अपना नाम सुनाई पड़ा-वह मंत्रवत खड़ा हुआ और अगला स्टेप बोल दिया जो बिल्कुल सही था। क्लास के अन्त में सबसे तेज लड़कों ने पूछा कि तुमने कैसे बता दिया,यह तो हमें भी नहीं मालूम था। उसने कहा कि उसे भी नहीं मालूम कि उसने कैसे बताया।

कदाचित् घबड़ाहट के कारण बुध्दि ठहर गई थी और उसी ठहरी हुई बुध्दि में स्वमेव उत्तर आ गया। परन्तु इसके पीछे प्रभु की अहैतु की कृपा और अतिशय दयालुता ही मानना चाहिये कि उन्होंने उसे फजीहत से बचाने के लिए उसकी वाणी में स्वयं उत्तर दे दिया। यदि ठहरी हुई बुध्दि का योगदान कहा जाय तब भी उन्हीं की कृपालुता तो थी जिसने उसकी बुध्दि को ठहरा दिया। उसे तो बुध्दि ठहराने का उस समय अता-पता भी नहीं था। सब कुछ अपने आप ही हो गया।

यदि कोई यह तर्क प्रस्तुत करे कि ठहरी हुई बुध्दि मात्र एक मानसिक स्थिति है जो अपने आप (natural phenomena) बन जाती है किन्हीं विशेष परिस्थितियों में, तब भी प्रभु की कृपालुता (अहैतु की) तो है ही। क्यों? इसलिए कि कोई चीज अपने आप नहीं होती। यह भी उनके ही बनाई नियम/प्रक्रिया से ही होता है। इसके अतिरिक्त:-

(1)यह उन्हीं का बनाया नियम तो है कि ठहरी हुई बुध्दि में हम उन परम चैतन्य से सीधे जुड़ जाते हैं।

(2) कैसे विशाल और विचित्र कम्प्यूटर है कि न website की जरूरत और न Connectivity की समस्या। Instant connection होता है।

(3) उत्तर के लिए search भी नहीं करना पड़ता। हमें question feed भी नहीं करना पड़ता। Relevent उत्तर instantly आ जाता है। यह भी उनकी कृपालुता ही तो है कि वह relevent ही उत्तर आता है-यह नहीं होता कि उसके बजाय अपनी भक्ति का रहस्य बताने लगे।

(4) यह भी नहीं होता कि वह कहें कि अभी मेरा mood नहीं है, मन नहीं कर रहा है, तुम अपनी समस्या स्वयं झेलो। उन्हें इसीलिए दया करने में आलस्य नहीं करने वाला कहा गया है।

पूर्व प्रस्तरों में उन दृष्टान्तो को प्रस्तुत मात्र यह कहने के लिए किया गया है कि ऐसा नहीं है कि प्रभु केवल पुकारने पर ही कृपा करते हैं बल्कि वह अपनी कृपालुता के वश में होकर स्वमेव ही अपने बच्चों का हित साधन करते रहते हैं।

उनकी करुणा,कृपालुता,महिमा का कहाँ तक बखान किया जाय। पुरुषोत्तमदास जलोटा जी ने एक भजन गाया है जिसकी मुख्य (lead) पंक्ति है-

'प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु
को नियम बदलते देखा।

अपना मान टले टल जाये,
भक्त का मान न टलते देखा॥'

ऐसे प्रभु की शरणागति न अपनाकर इधर-उधर अन्य विश्वासों में भटकते रहने से बढ़कर हम लोगों का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है? मनुष्य जन्म पाकर उसको गंवाने के समान है।

अत: जिसने उनके प्रति अपने को पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया,उनकी शरणागति अपना लिया वह तो निर्भय और निश्चिन्त हो जाता है। वह उनसे कोई अपेक्षा या चाह नहीं रखता,इसलिए किसी भी परिस्थिति में उसका उन्हें अपने लिए सहायता,कृपा हेतु पुकारने का प्रश्न् ही नहीं होता। वह तो अपने को पूर्णतया उनको सौंप देता है और जो भी होता है उसी में प्रसन्न और आनन्दित रहता है।

परन्तु उन्हें पुकारना भी ठीक ही है। किसी संकट की घड़ी में हम उन परम कृपालु सर्व सामर्थ्यवान अपने परम हितैषी को ही तो पुकारेंगे। परन्तु अन्य विश्वास,धन का,बल का या बुध्दि का विश्वास रखते हुए प्रभु को पुकारने का कोई अर्थ नहीं होगा। अनेक विश्वास एक विश्वास में और अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में विलीन कर देने पर ही उन्हें पुकारना अर्थ पूर्ण होता है। जब द्रौपदी ने सबसे निराश होकर,हाथ से और दांत से भी चीर की पकड़ छोड़ दिया और असमर्थ भाव से उन्हें पुकारा तब कृष्ण भगवान ने उनकी लाज रख ली।

हम उन्हें पुकारते ही तब हैं जब अपनी सामर्थ्य से हार जाते हैं और अपने को नितान्त असमर्थ अनुभव करते हैं। मीरा जी ने और प्रह्लाद ने इसका झंझट ही नहीं रखा।
वे पूर्णरूपेण उनके आश्रित हो गये और उनकी भक्ति और प्रेम में मग्न रहे। अपनी कोई इच्छा/चाह ही नहीं रही सिवा उनके प्रेम की।

नोट : इसका यह अर्थ नहीं है कि हम निष्क्रिय हो जायें। हमें उन्हीं (प्रभु) के आश्रित और शरणागत होकर अपना कर्तव्य-कर्म जो विवेक विरोधी या अपनी सामर्थ्य-विरोध नहीं है, को करना ही है। कर्तव्य होता ही वह है जो विवेक-विरोधी और सामर्थ्य-विरोधी न हो। कार्य में सफलता में विलम्ब होने पर हम अधीर और उद्विग्न होते हैं,जिसके लिए वास्तव में कोई आचित्य नहीं है। दृढ़ विश्वास के साथ अपने कर्म में लगा रहे। ऐसे अनेक अनुभूत दृष्टान्त है जिन्हें लिखने पर यह गाथा बहुत लम्बी हो जायेगी। इतना ही कहना पर्याप्त और विश्वास को सुदृढ़ करने वाला होगा कि जिस विलम्ब को लेकर हम परेशान होते रहे थे,वह कार्य को सफल बनाने हेतु प्रभु का well planned design था। ऐसे परम हितैषी,परम कृपालु,परम उदार प्रभु के हम आश्रित हो जायें या आर्तभाव से पुकारें वह तत्वत: उनके प्रति विश्वास ही है। और बस आनन्द ही आनन्द है।

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