संसार के पदार्थ इन्द्रयों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं.! उनकी प्राप्ति अर्थ -पुरूषार्थ के नाम से जानी जाती है.! वे अपने शरीर और मन से बाहर रहते है! उनका संयोग श्रमसाध्य हैऔर वियोग ,ै
नैसर्गिक । उनकी प्राप्ति मे पराधीनता है चिन्तन में तन्मयता होने से जड़ता है अप्राप्त होने परदुख है प्राप्त होनेपर भी विनाश का भयहै । अर्थ के मिलने की कल्पना
या उसके मिलन की अनुभूति मे.सुख है! सुख एक मानसिक अनुभूति है! बाह्य पदार्थों में ,मानसिक अनुभूति के. लिए निमित्त होने की कल्पना की जा.सकती है !.बाह्य पदार्थ , स्थान, काल, अवस्था, या स्वगत परिवर्तन के कारण, कभी सुख देते हैं, कभी दुख! अत: कामना पूर्ति होंगे पर ही अर्थ पुरूषार्थ होता है! प्रतिकूलता मे वह दुख प्रद हो जाता है! अर्थ मुख्य पुरूषार्थ नहीं है, काम पुरूषार्थ का अङ्ग होने से गौण पुरूषार्थ है. @!
अर्थ बहिरंग है, काम अन्तरंग! जो अन्त: करण मे ही रहता है. बाहर नहीं.! मनोरुप होने से इसकी गति उच्छृङ्खल है! अनुभूति के संस्कार, दूर की वस्तुओं के संबन्ध मे मनोराज्य, प्राप्ति के प्रति ममता और अभिमान, भोग में आत्मविस्मृति, ये सब काम पुरूषार्थ के सहचर हैं. यह सब होने पर भी कामपूर्ति मे सुख है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता! अभिरूचि के अनुसार भोग प्राप्त होने पर सुख होता है! तो क्या इसको रूचि पर छोड़ देना चाहिए? चाहे जिस वस्तु और व्यक्ति पर स्वत्व स्थापित कर. लें, उपभोग कर लें, क्या ऎसा अपने या समाज हित मे है? ऎसी स्थिति तो पशुत्व. हो जायेगी.! इसलिये बहिरंग अर्थ और अन्तरंग काम दोनो के नियन्त्रण के लिए जीवन मे धर्म की आवश्यकता है! धर्म का निवास बुद्धि मे है,! उपनिषद का वचन है - विज्ञान ही यज्ञ का विस्तारक है, अर्थ संग्रह और भोग -प्रवृत्ति का नियन्त्रण करने हेतु अन्तर्यामी परमेश्वर की ही एक शक्ति बुद्धि मे अवतीर्ण होती है! वह बुद्धिस्थ होकर ही उचित अनुचित, ग्राह्य -त्याज्य., कर्तव्य -अकर्तव्य को इंगित करता रहता है! धर्म मे. स्थिरता है ,,प्रतिष्ठा है, विश्वास है, आत्मबल है और प्रज्ञा की अपराधीनता है.! विषय वासना का आक्रमण होने पर भी प्रज्ञा हारती, नहीं, धर्म के बल पर प्रतिष्ठित रहती है! लक्ष्य की ओर जीवन को धर्म ही आगे बढ़ाता है! पथभ्रष्ट होने से बचाता है! वह कल्याण मूलक है निर्वाण का सोपान है! @
धर्म उच्छृखल अर्थ तृष्णा को. संयत करता है, भोगलिप्सा को नियमित करता है !इस प्रकार दुराचरण के आन्तरिक निमित्त को कुण्ठित कर देता है.! धर्म के दो काम बाद - स्वच्छन्द. प्रवृत्ति का अवरोध और निवृत्ति की परिपुष्टि ! अवरोध से अर्थ - काम पर, नियन्त्रण होता है और,निवृत्ति की परिपुष्टि से मोक्ष पुरूषार्थ की प्राप्ति मे सहायता मिलती है.! इस प्रकार धर्म पराधीनता के बन्धन को काटता है और मुक्ति का मार्ग उन्मुख करता है! चतुर्थ पुरूषार्थ मोक्ष का निवास आत्मा मे है ,वह आत्मरूप ही है! अतएव निवृत्ति की परिपुष्टि के बिना उसकी उपलब्धि नही होती! धर्म चाहे कोई भी अंग हो वह दुख प्रद संसार के लिये किया न किसी अंश का निवर्तक होता है! जो किसी दोष का निवर्तक नही है. वह धर्म नही है !!@@@@@
Saturday, 29 October 2016
संसार के पदार्थ इन्द्रयों द्वारा ग्रहण ...
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