Thursday, 27 October 2016

आत्मा

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समस्त भूत प्राणियोँ के अंदर शक्तिरुप से रहनेवाला वह आत्मा एक ही है । वही सबका नियन्ता है , वह एक ही अनेक रुप मे दिखायी देता है । जो धीर पुरुष इस आत्मा को जानते है , उनको ही ..तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् .,, नित्य सुख प्राप्त होता है, दूसरो को नही ।
नित्यो नित्यानां .. कठ॰ 2 । 2 ।13 जो नित्यो का नित्य है , चेतनो का चेतन है , एक ही अनेको की कामनाएँ पूर्ण करता है उस शरीरस्थ आत्मा को जो जान लेता है उसे ही नित्य शान्ति प्राप्त होती है ।
  "जो पुरुष इस शरीर नाश के पूर्व ही आत्मा को जान लेता है वही मुक्त होता है" नही तो - सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।। इन जन्म मरण शील  लोको मे उसे फिर जन्म ग्रहण करना पडता है । मनुष्य की सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती है और मन की मनिलता को त्याग कर अत्यन्त विशुद्ध बन जाता है और तब - अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते । कठो॰2।3 ।14
मरणशील मनुष्य अमृत बनकर यहीँ पर ब्रह्म को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द मे मग्न हो जाता है । तब उसके हृदय की मै और मेरे की समस्त ग्रन्थियाँ टूट जाती है और वह अमृत बन जाता है ।[  अधिक जानने हेतु कठोपनिषद का अध्ययन करने की आवश्यकता है ]

जब तक किसी मरने वाले रोगी जीव की वाणी का मन मे , मन का प्राण मे , प्राण का तेज मे , तेज का ब्रह्म मे , लय नही हो जाता है तभी तक वह सभी को पहचानता है किन्तु जब उसकी वाणी का मन मे , मन का प्राण मे , प्राण का तेज मे , तेज का ब्रह्म मे लय हो जाता है तब वह किसी को पहचानता नही , यही सूक्ष्म भाव आत्मा है , वह सत् है , वही आत्मा है , वह आत्मा तू ही है । (छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर )

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