Thursday, 27 October 2016

सन्त ।

संत
        

संत कौन है ? संत एक विशाल वृक्ष है जिसकी छाया में तुम भूल गए जगत के समस्त विषय विकार। जिसका जीवन केवल भगवत् सेवा हेतु है। समस्त सृष्टि को अपने प्रभु का स्वरूप् देखने वाले और समस्त जड़ चेतन में उन्हीं का अंश देखने वाले को ही सन्त कहेंगे।
 
   संत वो है जिसे तुम छु लिए तो तुम बदल गए। तुम पहले से ही रहे। तुम लौटे हो तो कुछ भर कर लौटे हो। एक नई ऊर्जा एक नई तरंग एक लेकर। तुम खाली हाथ नहीं लौटे तुम भर कर लौटे । तुम एक सुगन्ध से भरकर लौटे हो। तुम किसी संत को छुए हो तो तुम रूपांतरित हुए हो। तुम्हारा यही रूपांतरण तुम्हें ईश्वर की और उन्मुख करता है । तुम स्वयम् को ईश्वर के और नज़दीक पाते हो।

  संत के मिलने और देखने में भी बहुत अंतर है । तुम संत के सन्मुख हुए उनकी दृष्टि तुम पर पड़ते ही खींच लेती है । उनकी कृपा का एक भी कण तुमको छू जावे तो जीवन की धारा ही बदल जावे।
 
     वास्तव में संत अमूल्य है वो एक ऐसी पारसमणी हैं जो लोहे को छूने पर स्वर्ण नहीं करेंगी संत जिस पर कृपा दृष्टि कर दें वो वो इस पारसमणी के छूने से पारस ही हो गया है। जिस प्रकार ईश्वर के गुण अनन्त हैं उनका वर्णन वाणी द्वारा नहीं हो सकता उसी प्रकार एक सच्चा सन्त और उनका संतत्व भी वाणी का विषय नहीं है। इस वृक्ष की छाया में ही इसकी शीतलता अनुभव होती है। धन्य धन्य है ये भारत भूमि जहां ईश्वर स्वयम् संतो के रूप में विराजमान हैं। सभी संतों के चरणारविन्द में नमन।

           (संत कृपा से)

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