गोवर्द्धन लीला ¤¤****
¤¤****¤¤****
गो का अर्थ है ज्ञान और भक्ति । ज्ञान और भक्ति को बृद्धिगत करने वाली लीला ही गोवर्धन लीला है । ज्ञान और भक्ति के बढ़ने से देहाध्यास नष्ट होता है जीव को रासलीला मेँ प्रवेश मिलता है ।।
ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने हेतु क्या जाय ? घर छोड़ना पड़ेगा। गोप गोपियोँ ने घर छोड़कर गिरिराज पर वास किया था । हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग - द्वेष , अहंभाव - तिरस्कार , वासना आदि हमेँ घेरे रहते हैँ। घर मेँ विषमता होती है और पाप भी , भोग भूमि मेँ भक्ति कैसे बढ़ जायेगी । सात्विक भूमि मे ही भक्ति बढ़ सकती है ।
गृहस्थ का घर विविध वासनाओँ के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ होता है । ऐसा वातावरण भक्ति मेँ बाधक है ऐसे वातावरण मेँ रहकर न तो भक्ति बढ़ाई जा सकती है और न ज्ञान । अतः एकाध मास किसी नीरव पवित्र स्थल पर जाकर , किसी पवित्र नदी के तट पर वास करके भक्ति और ज्ञान की आराधना श्रेयस्कर है ।
प्रवृत्ति छोड़ना तो अशक्य है किन्तु उसे कम करके निवृत्ति बढ़ायी जा सकती है ।
गो का अर्थ इन्द्रिय भी है । इन्द्रियोँ का संवर्धन त्याग से होता है , भोग से नहीँ । भोग से इन्द्रियाँ क्षीण होती हैँ । भोगमार्ग से हटाकर उन्हेँ भक्तिमार्ग मे लेँ जाना चाहिए । किन्तु उस समय इन्द्रादि देव वासना की बरसात कर देते हैँ । मनुष्य की भक्ति उनसे देखी नहीँ जाती । प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्ति की ओर बढ़ते समय विषय वासना की बरसात बाधा करने आ जाती है । इन्द्रियोँ का देव इन्द्र प्रभु भजन करने जा रहे जीव को सताता है । वह सोचता है कि उसके सिर पर पाँव रख कर उसको कुचल कर जीव आगे बढ़ जायेगा ।
अतः ध्यान , सत्कर्म , भक्ति आदि मेँ जीव की अपेक्षा देव अधिक बाधक हैँ । जीव सतत् ध्यान करे तो स्वर्ग के देवोँ से भी श्रेष्ठ हो जाता है । इसलिए जब भी इन्द्र भक्तिमार्ग मेँ विघ्न डाले तब गोवर्धन नाथ का आश्रय लेना चाहिए ।
गोवर्धन लीला मेँ पूज्य और पूजक एक हो जाते हैँ । जब तक पूज्य एवं पूजक एक न होँ तब तक आनन्द नहीँ आता । पूजा करने वाले श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर आरोहण किया यह तो अद्वैत का प्रथम सोपान है , गोवर्धन लीला ज्ञान और भक्ति को बढ़ाती है। जब ईश्वर के व्यापक स्वरुप का अनुभव हो पाता है , तभी ज्ञान और भक्ति बढ़ती है । ईश्वर जगत मेँ व्याप्त है और सारा जगत ईश्वर मेँ समाहित है ।
वासना वेग को हटाने के लिए श्रीकृष्ण का आश्रय लेना चाहिए।
भगवान ने हाथ की सबसे छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था यह उँगली सत्वगुण का प्रतीक है । इन्द्रियो की वासना वर्षा के समय सत्वगुण का आश्रय लेना चाहिए । दुःख मे विपत्ति मेँ मात्र प्रभू का आश्रय लेना चाहिए ।
भक्ताभिलाषी चरितानुसारी दुग्धादि चौर्येण यशोविसारी ।
कुमारतानन्दित घोषनारी मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
वृन्दावने गोधनवृन्दचारा मम प्रभूः श्री गिरिराजधारी ।।
Sunday, 30 October 2016
गौवर्धन लीला तात्विक पक्ष
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 1
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना'
प्रेम भगवान का साक्षात स्वरूप ही है। जिसे विशुद्ध सच्चे प्रेम की प्राप्ति हो गयी, उसे भगवान मिल गये- यह मानना चाहिये। प्रेम न हो तो रूखे-सूखे भगवान भाव जगत की वस्तु रहें ही नहीं।
वास्तव में प्रभु रस रूप हैं। श्रुतियों में भी परम पुरुष की रस रूपता का वर्णन मिलता है- 'रसौ वै स:'।[1] प्रेम का निजी रूप रस स्वरूप परमात्मा ही है। इसलिये जैसे परमात्मा सर्वव्यापक है, वैसे ही प्रेम तत्त्व (आनंदरस) भी सर्वत्र व्याप्त है। हर एक जंतु में तथा हर एक परमाणु में आनंद अथवा रस स्वरूप प्रेम की व्याप्ति है। संसार में बिना प्रेम या आनंद रस के एक-दूसरे से मिलना नहीं हो सकता। स्त्री, पुत्र, मित्र, पिता, भ्राता, पुत्रवधु तथा पशु-पक्षी आदि से भी प्रीति या स्नेह इस प्रेम रस की व्याप्ति के कारण ही है।
कहते हैं कि गुड़ के सम्बंध से नीरस बेसन में मिठास आ जाती है। इसी प्रकार 'स्व' के सम्बंध से अर्थात अपनेपन के सम्बंध से संसार की वस्तुओं में भी प्रीति होती है। संसार की जिस वस्तु में जितना अपनापन होगा, वह वस्तु उतनी ही प्यारी लगेगी। उस में राग होना स्वभाविक है। संसार की वस्तुओं में जहाँ राग है वहाँ द्वेष भी है। जहाँ द्वेष है वहाँ राग है- ये द्वंद्व हैं। द्वंद्व अकेला नहीं रहता। राग्-द्वेष ये दोनों साथ रहते हैं, इसलिये इसका नाम द्वंद्व है, पर एक बात बड़ी विलक्षण है, वह है- रस(प्रेम)-साधना की। रस-साधना का प्रारम्भ भगवान में अनुराग को लेकर ही होता है। एकमात्र भगवान में अनन्य राग होने पर अन्यान्य वस्तुओं में राग का स्वभाविक ही अभाव हो जाता है। उन वस्तुओं में से राग निकल जाने के कारण उनमें कहीं द्वेष भी नहीं रहता। कारण ये राग-द्वेष साथ-साथ ही तो रहते हैं। प्रेमीजन द्वन्द्वों से अपने लिये अपना कोई सम्पर्क नहीं रखकर उन द्वंद्वों के द्वारा अपने प्रियतम को सुख पहुँचाते हैं और प्रियतम को सुख पहुँचाने के जो भी साधन हैं, उनमें से कोई-सा साधन भी त्याज्य नहीं है तथा कोई भी वस्तु हेय नहीं। कारण उन वस्तुओं में कहीं आसक्ति रहती नहीं जो मन को खींच ले, इसलिये रस की साधना में कहीं पर कड़वापन नहीं है। उसका आरम्भ भी होता है माधुर्य को लेकर, भगवान में राग को लेकर। राग बड़ा मीठा होता है, राग का स्वभाव ही मधुरता है और मधुरता आती है अपनेपन से। जहाँ अपनत्व नहीं वहाँ प्रेम नहीं। क्रमशः ...
सुरभि की उत्पत्ति
गाय की उत्पत्ति के बिषय में एक बार महर्षि नारद ने भगवन नारायण से प्रश्न किया तो भगवान नारायण ने बताया की हे नारद ! गौमाता का प्राकट्य भगवान श्रीकृष्ण के वाम भाग से हुआ है! उन्होंने बताया कि एक समय की बात है भगवान श्रीकृष्ण राधा गोपियों से घिरे हुए पुण्य बृंदाबन में गए, और थके होने से वे एकांत में बैठ गए।
उसी समय उनके मन में दूध पीने की इच्छा जागृत हुई, तो उन्होंने अपने बाम भाग से लीला पूर्वक ''सुरभि गौ '' को प्रकट किया । उस गौ के साथ बछड़ा भी था और सुरभि के थनो में दूध भरा था! उसके बछड़े का नाम ''मनोरथ ''था! उस सुरभि गौ को सामने देख कर श्रीदामा जी ने एक नूतन पात्र पर उसका दूध दूहा! वह दूध जन्म और मृत्यु को दूर करने वाला एक दूसरा अमृत ही था !स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उस स्वादिस्ट दूध को पिया!
भगवान नारायण ने आगे देवर्षि नारद जी को बताया कि श्री दामा जी के हाथ से वह दूध का पात्र गिर कर फूट गया और दूध धरती पर फ़ैल गया! गिरते ही यह दूध सरोवर के रूप में परणित हो गया!
जो गोलोक में ''छीर सरोवर '' के नाम से प्रसिद्द है! भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से उसी समय अकस्मात असंख्य कामधेनु गौएँ प्रकट हो गई !जितनी वो गायें थी उतने ही गोपी भी उस ''सुरभि '' गाय के रोमकूप से निकल आये! फिर उन गउवों से बहुत सी संताने हुई! इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी से प्रकट सुरभि देवी से गउवों का प्राकट्य कहा जाता है! उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने देवी ''सुरभि '' की पूजा की और इस प्रकार त्रिलोकी में उस देवी सुरभि की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया !
पुराणो में गाय की पूजा से प्राप्त प्रतिफल का आख्यान है - जो गौशाला में स्थित गॉवों की प्रदछिणा करता है ,उसने मानों सम्पूर्ण चराचर विश्व की प्रदछिणा कर ली ! गायों की सींग का जल परम पवित्र है, वह सम्पूर्ण पापों का शमन करता है ,साथ ही गायों के शरीर को खुजलाना -शहलाना भी सभी दोष पापों का शमन करता है! गायों को ग्राश देने वाला स्वर्ग लोक में पूर्ण प्रतिष्ठा पता है ! जो ब्यक्ति लगातार एक वर्ष तक भोजन करने से पूर्व गाय को ग्राश खिलता है वह ज्ञानी बन जाता है! गउवों के लिए जो धूप और ठण्ड से बचाने वाले गौशाला का निर्माण करता है वह अपने सात कुल का उद्धार कर लेता है !
श्री नाथ स्वरूप भावना
गोवर्धन विशेष - तृषित
|| श्रीनाथजी स्वरूप भावना ||
Shrinathji Swarup Bhavna
श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् स्वरूप है। आप अपना वाम (बायाँ) श्रीहस्त ऊपर उठाकर अपने भक्तों को अपने पास बुला रहे है। मानों आप श्री कह रहे है। - ''मेरे परम प्रिय! हजारों वर्षो से तुम मुझसे बिछुड़ गये हों। मुझे तुम्हारे बिना सुहाता नहीं है। आओ मेरे निकट आओं और लीला का रस लो। ''प्रभु वाम अंग पुष्टि रूप है। वाम श्रीहस्त उठाकर भक्तों को पुकारने का तात्पर्य है कि प्रभु अपने पुष्टि भक्तों की पात्रता, योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं करते और न उनसे भगवत्प्राप्ति के शास्त्रों में कहे गये साधनों की अपेक्षा ही करते है। वे तो निःसाधन जनो पर कृपा कर उन्हे टेर रहे है। श्रीहस्त ऊँचा उठाकर यह भी संकेत कर रहे है कि जिस लील-रस का पान करने के लिए वे भक्तों को आमंत्रित कर रहे है, वह सांसारिक विषयों के लौकिक आनन्द और ब्रह्मानन्द से ऊपर उठाकर भक्त को भजनानन्द में मग्न करना चाहते है।परम प्रभु श्रीनाथजी का स्वरूप दिव्य सौन्दर्य का भंडार और माधुर्य की निधि है। मधुराधिपती श्रीनाथजी का सब कुछ मधुर ही मधुर है। अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य से भक्तों को वे ऐसा आकर्षित कर लेते हैं कि भक्त प्रपंच को भूलकर देह-गेह-संबंधीजन-जगत् सभी को भुलाकर प्रभु में ही रम जाता है, उन्ही में पूरी तरह निरूद्ध हो जाता है। यही तो हैं प्रभु का भक्तों के मन को अपनी मुट्ठी बाँधना। वास्तव में प्रभु अपने भक्तों के मन को मुट्ठी में केद नहीं करते वे तो प्रभु-प्रेम से भरे भक्त-मन रूपी बहुमूल्य रत्नों को अपनी मुट्ठी में सहेज कर रखते है। इसी कारण श्रीनाथजी दक्षिण (दाहिने) श्रीहस्त की मुट्ठी बाँधकर अपनी कटि पर रखकर निश्चिन्त खडे़ है। दाहिना श्रीहस्त प्रभु की अनुकूलता का द्योतक है। यह प्रभु की चातुरी श्रीनाथजी के स्वरूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। प्रभु श्रीनाथजी नृत्य की मुद्रा में खडे है। यह आत्मस्वरूप गोपियों के साथ प्रभु के आत्मरमण की, रासलीला की भावनीय मुद्रा है। रासरस ही परम रस है, परम फल है। प्रभु भक्तों को वही देना चाहते है।
पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी के स्वरूप का वर्णन 'अणुभाष्य -प्रकाश-रश्मि' में किया गया हैं-
'उक्षिप्तहस्तपुरूषो भक्तमाकारयत्युत'
दक्षिणेन करेणासौ मुष्ठीकृत्य मनांसिनः ।
वाम कर समुद्धृत्य निहनुते पश्य चातुरीम्॥
इसी भाव का शब्दांकन एक पद में सुन्दर ढंग से किया हैः-
देक्ष्यो री मै श्याम स्वरूप।
वाम भुजा ऊँचे कर गिरिधर,
दक्षिण कर कटि धरत अनूप।
मुष्टिका बाँध अंगुष्ट दिखावत,
सन्मुख दृष्टि सुहाई।
चरण कमल युगल सम धरके,
कुंज द्वार मन लाई।
अतिरहस्य निकुंज की लीला,
हृदय स्मरण कीजै।
'द्वारकेश' मन-वचन-अगोचर,
चरण-कमल चित दीजै॥
श्रीनाथजी के मस्तक पर जूडा है, मानों श्री स्वामिनीजी ने प्रभु के केश सँवार कर जूडें के रूप में बाँध दिये है। कर्ण और नासिका में माता यशोदा के द्वारा कर्ण-छेदन-संस्कार के समय करवाये गये छेद हैं। आप श्रीकंठ में एक पतली सी माला 'कंठसिरी' धारण किए हुए है। कटि पर प्रभु ने 'तनिया' (छोटा वस्त्र) धारण कर रखा है। घुटने से नीचे तक लटकने वाली 'तनमाला' भी प्रभु ने धारण कर रखी है। आपके श्रीहस्त में कड़े है, जिन्हे मानों श्रीस्वामिनीजी ने प्रेमपूर्वक पहनाया है। निकुंजनायक श्री नाथजी का यह स्वरूप किशोरावस्था का है। प्रभु श्री कृष्ण मूलतः श्यामवर्ण है। श्रृंगार रस का वर्ण श्याम ही है। प्रभु श्रीनाथजी तो श्रृंगार रस, परम प्रेम रूप है। वही मानों उनके स्वरूप में उमडा पड़ रहा है। अतः आपश्री का श्यामवर्ण होना स्वभाविक है किन्तु श्रीनाथजी के स्वरूप में एक विशेषता यह है कि उनके स्वरूप में भक्तों के प्रति जो अनुराग उमड़ता है इसलिए उनकी श्यामता मे अनुराग की लालिमा भी झलकती है। इसी कारण श्रीनाथजी का स्वरूप लालिमायुक्त श्यामवर्ण का है। प्रभु की दृष्टि सम्मुख और किचिंत नीचे की ओर है क्योंकि वे शरणागत भक्तो पर स्नेहमयी कृपापूर्ण दृष्टि डाल रहे है। प्रभु श्रीनाथजी की यह अनुग्रहयुक्त दृष्टि ही तो पुष्टिभक्तों का सर्वस्व है।
तीनों योगों का तुलनात्मक अध्ययन
|| तीनों योगों का तुलनात्मक अध्ययन ||
क्रम संख्या ज्ञानयोग | कर्मयोग | भक्तियोग |
[ १ ] आध्यात्मिक साधना | भौतिक साधना | आस्तिक साधना |
[ २ ] जानने की शक्ति | करने की शक्ति | मानने की शक्ति |
[ ३ ] विवेक की मुख्यता | क्रिया की मुख्यता | भाव [ श्रधा ] की मुख्यता |
[ ४ ] स्वरूप को जानना | सेवा करना | भगवान को मानना |
[ ५ ] स्वरूपपरायणता | कर्तव्यपरायणता | भगवतपरायणता |
[ ६ ] स्व - आश्रय | धर्म [ कर्तव्य ] का आश्रय | भगवद - आश्रय |
[ ७ ] अहंता का त्याग | कामना का त्याग | ममता का त्याग |
[ ८ ] अहंता को मिटाना | अहंता को शुद्ध करना | अहंता को बदलना |
[९ ] अपने लिए उपयोगी | संसार के लिए उपयोगी | भगवान के लिए उपयोगी |
[१० ] 'अक्षर ' की प्रधानता | ' क्षर ' की प्रधानता | ' पुरुषोत्तम ' की प्रधानता |
[११ ] ज्ञातज्ञातव्यता | कृतकृत्यता | प्राप्तप्राप्तव्यता |
[१२ ] अखंड रस | शांत रस | अनंत रस |
[१३ ] तात्विक संबंध | नित्य संबंध | आत्मीय संबंध |
[१४ ] परमात्मा से एकता | परमात्मा से समीपता | परमात्मा से अभिन्नता |
[१५ ] बोध की प्राप्ति | योग की प्राप्ति | प्रेम की प्राप्ति |
[ १६ ] स्वाधीनता | उदारता | आत्मीयता |
[१७ ] स्वरूप में स्थिति | जड का आकर्षण मिटता है | भगवान में आकर्षण होता है |
[१८ ] कर्तृत्व का त्याग | भोकत्र्तव का त्याग | ममत्व का त्याग |
[१९ ] आत्मसुख | संसार का सुख | भगवान का सुख |
[२० ] कुछ भी न करना | संसार के लिए करना |भगवान के लिए करना |
[२१ ] प्रकृति के अर्पण करना | संसार के अर्पण करना | भगवान के अर्पण करना |
[२२ ] विरक्ति | अनासक्ति | अनुरक्ति |
[२३ ] देहाभिमान बाधक है | कामना बाधक है | भगवद - विमुखता बाधक है |
[२४ ] कर्म भस्म हो जाते हैं | कर्म अकर्म हो जाते हैं | कर्म दिव्य हो जाते हैं |
Saturday, 29 October 2016
बुद्धि की जड़ तभी दृढ़ हो सकती है ...
बुद्धि की जड़ तभी दृढ़ हो सकती है जब चित्त मेँ सत्य के लिए निर्बाध प्रेम हो !
व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायण बनाने तथा दूसरोँ के साथ सद्आचरण की दिशा मेँ प्रेरित करने के लिए आवश्यक है कि उसमेँ धर्मबुद्धि का विकास किया जाय , परन्तु विवेक एवं सदाचरण पर आधारित धर्मबुद्धि का विकास तभी सम्भव है , जब हमारे चित्त मे सत्य के प्रति प्रेम का भाव स्थायी रुप से विद्यमान रहे । सभी शास्त्र इस प्रेम को उत्पन्न कर सकते हैँ । निर्भीक वातावरण तथा शोधपूरक एवं आलोचनात्मक बुद्धि के आधार पर सत्य की निरन्तर खोज की प्रवृत्ति , इसी प्रकार से धर्मबुद्धि का विकास करती है।
संसार के पदार्थ इन्द्रयों द्वारा ग्रहण ...
संसार के पदार्थ इन्द्रयों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं.! उनकी प्राप्ति अर्थ -पुरूषार्थ के नाम से जानी जाती है.! वे अपने शरीर और मन से बाहर रहते है! उनका संयोग श्रमसाध्य हैऔर वियोग ,ै
नैसर्गिक । उनकी प्राप्ति मे पराधीनता है चिन्तन में तन्मयता होने से जड़ता है अप्राप्त होने परदुख है प्राप्त होनेपर भी विनाश का भयहै । अर्थ के मिलने की कल्पना
या उसके मिलन की अनुभूति मे.सुख है! सुख एक मानसिक अनुभूति है! बाह्य पदार्थों में ,मानसिक अनुभूति के. लिए निमित्त होने की कल्पना की जा.सकती है !.बाह्य पदार्थ , स्थान, काल, अवस्था, या स्वगत परिवर्तन के कारण, कभी सुख देते हैं, कभी दुख! अत: कामना पूर्ति होंगे पर ही अर्थ पुरूषार्थ होता है! प्रतिकूलता मे वह दुख प्रद हो जाता है! अर्थ मुख्य पुरूषार्थ नहीं है, काम पुरूषार्थ का अङ्ग होने से गौण पुरूषार्थ है. @!
अर्थ बहिरंग है, काम अन्तरंग! जो अन्त: करण मे ही रहता है. बाहर नहीं.! मनोरुप होने से इसकी गति उच्छृङ्खल है! अनुभूति के संस्कार, दूर की वस्तुओं के संबन्ध मे मनोराज्य, प्राप्ति के प्रति ममता और अभिमान, भोग में आत्मविस्मृति, ये सब काम पुरूषार्थ के सहचर हैं. यह सब होने पर भी कामपूर्ति मे सुख है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता! अभिरूचि के अनुसार भोग प्राप्त होने पर सुख होता है! तो क्या इसको रूचि पर छोड़ देना चाहिए? चाहे जिस वस्तु और व्यक्ति पर स्वत्व स्थापित कर. लें, उपभोग कर लें, क्या ऎसा अपने या समाज हित मे है? ऎसी स्थिति तो पशुत्व. हो जायेगी.! इसलिये बहिरंग अर्थ और अन्तरंग काम दोनो के नियन्त्रण के लिए जीवन मे धर्म की आवश्यकता है! धर्म का निवास बुद्धि मे है,! उपनिषद का वचन है - विज्ञान ही यज्ञ का विस्तारक है, अर्थ संग्रह और भोग -प्रवृत्ति का नियन्त्रण करने हेतु अन्तर्यामी परमेश्वर की ही एक शक्ति बुद्धि मे अवतीर्ण होती है! वह बुद्धिस्थ होकर ही उचित अनुचित, ग्राह्य -त्याज्य., कर्तव्य -अकर्तव्य को इंगित करता रहता है! धर्म मे. स्थिरता है ,,प्रतिष्ठा है, विश्वास है, आत्मबल है और प्रज्ञा की अपराधीनता है.! विषय वासना का आक्रमण होने पर भी प्रज्ञा हारती, नहीं, धर्म के बल पर प्रतिष्ठित रहती है! लक्ष्य की ओर जीवन को धर्म ही आगे बढ़ाता है! पथभ्रष्ट होने से बचाता है! वह कल्याण मूलक है निर्वाण का सोपान है! @
धर्म उच्छृखल अर्थ तृष्णा को. संयत करता है, भोगलिप्सा को नियमित करता है !इस प्रकार दुराचरण के आन्तरिक निमित्त को कुण्ठित कर देता है.! धर्म के दो काम बाद - स्वच्छन्द. प्रवृत्ति का अवरोध और निवृत्ति की परिपुष्टि ! अवरोध से अर्थ - काम पर, नियन्त्रण होता है और,निवृत्ति की परिपुष्टि से मोक्ष पुरूषार्थ की प्राप्ति मे सहायता मिलती है.! इस प्रकार धर्म पराधीनता के बन्धन को काटता है और मुक्ति का मार्ग उन्मुख करता है! चतुर्थ पुरूषार्थ मोक्ष का निवास आत्मा मे है ,वह आत्मरूप ही है! अतएव निवृत्ति की परिपुष्टि के बिना उसकी उपलब्धि नही होती! धर्म चाहे कोई भी अंग हो वह दुख प्रद संसार के लिये किया न किसी अंश का निवर्तक होता है! जो किसी दोष का निवर्तक नही है. वह धर्म नही है !!@@@@@
Thursday, 27 October 2016
भूमि गौ का क्रय विक्रय
पूर्व समय में भूमि ,गौ आदि का क्रय विक्रय नही होता था । यह सब पाप है । दोष है । दान और सेवा हो सकती थी । खरीदने बेचने से दिव्य अधिष्ठात्री शक्ति के प्रति वस्तु भावना आ जाती है । वस्तु के भाव से ही लाभ - हानि की भावना बनती है , पूजित वस्तु मानने पर श्रद्धा विकसित होती है ।
यह बात इसलिये कही कि भूमि के प्रति भी ईश्वर की शक्ति की भावना रहे । वह व्यापार से नष्ट हुई । हम लोग भगवान वेंकटेश संग भू शक्ति को पूजते है , और मन्दिर के बाहर यह भू शक्ति हमें वस्तु नजर आती है ।
युगल भाव से यह भू देवी ही श्री वृन्दावन रूप है । यह भू देवी चेतन है , चेतन भूमि पर सत् चित् आनन्द का आवाहन होता है , भले वह चेतन हृदय हो , अथवा धरा । अतः पहले भू शक्ति प्रकट होती है फिर ईश्वर दृश्य होते है । यही भू शक्ति ही गौ रूप भी जगत कल्याणार्थ हमारे संग है । अतः गौ सेवा समस्त भू मण्डल की सेवा है । केवल पृथ्वी नही , समस्त भू मण्डल , जहाँ तक भू अर्थात् सत्ता है । गौ सेवा एक ब्रह्माण्ड नही समूचे व्यापक कोटि जगत की सेवा तुल्य है । और यें ही गौ लक्ष्मी स्वरूपा , लीला शक्ति में गो भी एक गोपी है जिन संग भगवान ने उनका संग कर उन्हें सुख दिया और स्वयं सुखी हुये । भगवान के संग की गौ में सभी भाव होते है , वात्सल्य से माधुर्य तक सभी । अतः यथा भाव भगवान संग हुए , जिनका माधुर्य भाव उन हेतु बछड़े हो गए । जिनका वात्सल्य उनका भी बछड़े रूप वात्सल्य रस में रहे ।
आज भी गौ सभी भावों में स्वयं रहती ही नही , अपितु भाव प्रदायिनी भी है । गौ द्वारा लाभ का बहुत वर्णन हम सब सुनते है , परन्तु गौ जगत के सुख ही नही , गोपी प्रेम , श्री किशोरी चरण सेवा तक प्रदान कर सकती है । सेवा की भावना निःस्वार्थ हो अथवा भगवत् प्रेम का स्वार्थ हो। -- सत्यजीत तृषित ।
आत्मा
> > >> > आत्मा <<<<<
समस्त भूत प्राणियोँ के अंदर शक्तिरुप से रहनेवाला वह आत्मा एक ही है । वही सबका नियन्ता है , वह एक ही अनेक रुप मे दिखायी देता है । जो धीर पुरुष इस आत्मा को जानते है , उनको ही ..तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् .,, नित्य सुख प्राप्त होता है, दूसरो को नही ।
नित्यो नित्यानां .. कठ॰ 2 । 2 ।13 जो नित्यो का नित्य है , चेतनो का चेतन है , एक ही अनेको की कामनाएँ पूर्ण करता है उस शरीरस्थ आत्मा को जो जान लेता है उसे ही नित्य शान्ति प्राप्त होती है ।
"जो पुरुष इस शरीर नाश के पूर्व ही आत्मा को जान लेता है वही मुक्त होता है" नही तो - सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।। इन जन्म मरण शील लोको मे उसे फिर जन्म ग्रहण करना पडता है । मनुष्य की सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती है और मन की मनिलता को त्याग कर अत्यन्त विशुद्ध बन जाता है और तब - अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते । कठो॰2।3 ।14
मरणशील मनुष्य अमृत बनकर यहीँ पर ब्रह्म को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द मे मग्न हो जाता है । तब उसके हृदय की मै और मेरे की समस्त ग्रन्थियाँ टूट जाती है और वह अमृत बन जाता है ।[ अधिक जानने हेतु कठोपनिषद का अध्ययन करने की आवश्यकता है ]
जब तक किसी मरने वाले रोगी जीव की वाणी का मन मे , मन का प्राण मे , प्राण का तेज मे , तेज का ब्रह्म मे , लय नही हो जाता है तभी तक वह सभी को पहचानता है किन्तु जब उसकी वाणी का मन मे , मन का प्राण मे , प्राण का तेज मे , तेज का ब्रह्म मे लय हो जाता है तब वह किसी को पहचानता नही , यही सूक्ष्म भाव आत्मा है , वह सत् है , वही आत्मा है , वह आत्मा तू ही है । (छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर )