भगवत् भक्त कौन हो सकता है ?
इस हेतु एक सहज सूत्र वरन् कैसे कहा जाएं कि कौन भगवत् भक्त हो सकता है ...
जो पतित और दोषयुक्त प्राणियों को तिरस्कृत दृष्टि से देखता हो , उसमें तो अब भी भेद है । वह माया को सत्य जान प्रति जीव का आदर नहीं कर सकने से सर्व रूप ईश्वर को नहीं मानता । अर्थात् पतित को पतित और दोषी को दोषी जो मान व्यवहार करें वह भगवत् भक्त नहीं , और इस सूत्र को अगर जगत में देखें तो वर्तमान धर्म महोत्सवों में स्व को भक्त सिद्ध करने वाले हम सब में दशांश भी शेष नहीं रहेगें । दोष दृष्टि का ही त्याग न हुआ तो भगवत् भावना विकसित कैसे होगी ? और यह समत्व को भी कहता है , संस्कारवान और धार्मिक में आदर तो स्वभाविक है , वास्तविक आदर की स्थिरता तो तब प्रकट होगी जब पुण्यात्मा में नहीं पापात्मा में भी वैसा ही आदर हो ।
ऐसा क्यों हो ? यह तो सहज नहीं , देखिये जब करुणामय भगवान ने अपना जल , वायु , आकाश आदि सब का अधिकार दे रखा हो तब क्या वह हमारे तुच्छ प्रेम के भी योग्य नहीं । क्या भगवान ने पापात्माओं को अपनी सत्ता से निष्कासित किया , क्या जीवन रूपी कृपा से वांछित किया ? कुछ भी तो नहीं छीना उन्होंने , उनकी हवा - धुप - भोजन आदि मिलना क्या उनका प्रेम नहीं , अतः जिससे यह पता हो कि यह भगवान के प्रिय है वह उनसे अप्रेम नहीं कर सकते , और जिनका भी भगवान में प्रेम है उनमेँ स्वभाविक आदर रहे जिनका वह भगवान का हुआ न । भगवान तो सबके है , सब उनके नहीं हो पाते ... कोई माने न माने , जाने न जाने है तो सब उनके ही प्रत्येक जल की बूँद कभी सिंधु की थी ।
जब भगवान किसी से घृणा न करें और हम करें तब भगवत् सम्बन्ध हुआ ही कहाँ ? सम्बन्ध में तो सम्बंधी को जो प्रिय है उनमें स्वतः प्रेम होता है और भगवान का प्रेम सबमें समान है भले ही उसे न माना गया हो , उसका अनादर कर जीवन को विकृत कर लिया हो पर भगवान का प्रेम तो है ही , अपितु भगवान जब दुष्ट का संहार भी करते है तो यह केवल आवश्यक है अतः भीतर उनकी करुणा कम नही होती उसे अपने निज रूप से निज धाम में ही परम् पद देते है । न कि कर्म अनुरूप नरकादि वास , भगवत् साक्ष्य के परिणाम अनुरूप भगवत् धाम ही प्राप्त होता है । राम के हृदय में रावण से आंतरिक विद्रोह भी हो तो क्यों साकेत वास रावण को मिलें जो दिव्यात्माओं को भी दुर्लभ है , यहाँ जो बैरी रहा वहां उन्हें अपने आवास में नित्य संगी बनाना अर्थात् यह करुणा ही उनकी दुष्टता को विलीन करना आवश्यक पर उस दुष्ट की भी चेतना को शुद्ध कर स्वधाम में लें जाना यह भगवत् करुणा जो कि इसलिये हुई क्योंकि दुष्ट की दुष्टता का अंत भी भगवान को करते हुये असहजता ही होती है , क्योंकि चित्र खराब हो या सुंदर है तो उसी चित्रकार का । अतः यह भेद जिनमें न हो वह भगवत् भक्त हो सकता है । सत्यजीत तृषित ।
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