शिवतत्व 2
भगवान का कहना है कि समस्त भूतों में जितनी भी मूर्तियाँ उत्पन्न होती है, उन सबकी महद् (प्रकृति) योनि (माता) है और बीज प्रदान करने-वाला पिता मैं हूँ। ‘‘पिताऽहमस्य जगतः’’ - मैं ही समस्त जगत् का पिता उत्पादक- हूँ।
‘‘मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारति।।’’
अर्थात प्रकृतिरूप योनि में जब मैं गर्भाधान करता हूँ, तब उससे समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है।
इस तरह ब्रह्माण्डोत्पादक ब्रह्मा भी परमेश्वर ही है, अतएव- ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसवि-शान्ति’’ इस श्रुति से जो ब्रह्म का लक्षण कहा गया है, उससे विश्व के उत्पादक, पालक एवं संहारक को परमेश्वर समझना चाहिये। यदि तीनो पृथक्-पृथक् हों तब तो कोई भी परमेश्वर नहीं सिद्ध हो सकेगा। क्योंकि निरतिशय ऐश्वर्य और सार्वज्ञ-गुण-सम्पन्न को परमेश्वर कहा जाता है। यदि यह तीनों ही सर्वशक्तिसम्पन्न परमेश्वर हैं, तो यह प्रश्न होगा कि यह तीनों मिलकर सलाह से कार्य करते हैं या स्वतन्त्रता से अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार? यदि सलाह से ही करते हैं यह माना जाय, तबतो इनमें परमेश्वर कोई भी न हुआ। किन्तु, इन तीनों की पर्षद या पंचायत ही परमेश्वर है, क्योंकि अकेले कोई भी कोई कार्य करने में स्वतन्त्र नहीं है। यदि तीनो की इच्छा समान ही होती है और तीनों की इच्छानुसार ही उनकी शक्तियाँ कार्य में प्रवृत होती है तब भी तीन का मानना ही व्यर्थ है। फिर तो एक से भी वह सब कार्य सम्पन्न ही हो सकता है।
यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार किया जाय अर्थात् स्वतनत्रता से भी तीनों कार्य कर सकते हैं, तब भी इनमें कोई भी परमेश्वर नहीं सिद्ध होगा, क्योंकि स्वतन्त्रता से यदि इच्छा उत्पन्न होगी, तो संभव है कि जिस समय एक को जगत्पालन की रुचि हुई, उसी समय दूसरे को संहार की रुचि उत्पन्न हो। अब यहाँ जिसकी इच्छा सफल होगी, उसी का निरंकुश ऐश्वर्य समझा जायगा। जिसका मनोरथ भग्न हुआ, उसकी ईश्वरता औपचारिक ही रहेगी। एक विषय में विरुद्ध दो प्रकार की इच्छाओं का सफल होना असंभव ही है। इस तरह अनेक ईश्वर का होना किसी के भी मत में कथमपि संभव नहीं, अतः एकेश्वरवाद ही सबको मानना पड़ता है। इसीलिये महानुभावों ने एक ही में अवस्था-भेद से उत्पादकत्व, पालकत्व और संहारकत्व माना है।
‘‘निःश्वसितमस्य वेदा वीक्षितमेतस्य पंचभूतानि।
स्मितमेतस्य चराचरमस्य च सुप्तं महाप्रलयः।।’’
भगवान के निःश्वास से ही वेदों का प्रादुर्भाव हो जाता है। वीक्षण (देखने) से आकाशादि अपंचीकृत पंच महाभूत की सृष्टि होती है। स्मित (मन्दहास, मुस्कुराहट) से भौतिक अनन्तब्रह्मसाण्ड बन जाते हैं और सुप्ति से ही निखिल ब्रह्माण्ड का प्रलय हो जाता है। क्रमशः ...
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