M.D Sharma ji --
एक प्रश्न कई दिनो से बैचेन कर रहा है कि भगवान कृष्ण ने गीता का ग्यान अर्जुन को ही क्यों दिया गोपियो को क्यों नहीं ?
गोपियों से भगवान लें सकते है , दे नहीं सकते , वहाँ भगवान का प्रेम पात्र खुला है , जैसे शिव का पात्र अन्नपूर्णा के आगे , भगवान गोपियों को कुछ नहीं दे सकते सिवाय विशेष रस , विशेष योग , वियोग के ।
अर्जुन के कर्मपाश सम्भवतः शेष हो अतः वहाँ सारथि होने का अवसर पाकर अर्जुन की अनन्य भक्ति के लिये कुछ कर सकें ।
गोपियों का तत्व ही भगवत् रस तक है , वह अवस्था महामुनियों में गहन तप और भगवत् प्रेमियों में युगों की प्यास का प्रतिफल है , भगवत् तत्व जितना प्रेम किसी तत्व में नहीं । समुद्र से ही जल की वर्षा सर्वत्र हुई है , अर्थात् जीव का प्रेम जो कि उसका मूल तत्व है , संसार में वहीँ प्रेम आसक्ति रूप से जीव को बाँधता है और भगवान संग वहीँ अद्वितीय रस से सराबोर कर देता है । प्रेम ही वह रस्सी और नक्शा है जो भगवान ने जीव को इसलिये दी कि वह लौट सकें उस भूलें पथ और अपने मूल स्रोत में । भगवान को वापिस जीव चाहिये ही ना होता वह उसे प्रेम नहीं देते , प्रेम नक्शा है पुनः लौटने का जीव उसे उल्टा पढ़ कर आसक्त हो संसार में भटकता है , और जब जिस पल उसे सीधा पढ़ कर भगवतोन्मुखी होता है तो लौटने लगता है , उसकी युगों की चेतना समेटने लगती है , वह वहीँ तत्व होने लगता है जहाँ से छूटा था , क्योंकि जीव की चेतना बहुत गहरे तक बिखरी थी अतः सम्पूर्ण चेतना नहीं सिमटेगी तब तक लौट नहीं सकेगा । कहने का अर्थ प्रेम ही भगवान है , भगवान ने ही प्रेम रूप में जीव का संग निभाया । फिर भी गोपियों का प्रेम भगवत् प्रेम से भी विशेष है , वहाँ प्रेम तत्व अपने पूर्ण रस में है । शेष स्थल पर प्रेम जीव के लिये रसदाता होता है , गोपिभाव में वहीँ प्रेम भगवान के लिये रसदाता है , अर्थात रसभुत सार तत्व परम् परात्पर रस तत्व को भी जो रस दे वह ही तो गोपी है ।
अर्जुन भगवान से रस ग्रहण करता है और भगवान गोपियों से रस ग्रहण करते है । और गोपियों में यह रस प्रेम की आह्लाद वृति श्री किशोरी जु के रस-अंग-संग की छाया का विकास ही है । मूल रस स्रोत आह्लादिनी शक्ति है जिस शक्ति से परमब्रह्म में रस का विकास और विस्तार हुआ है । संक्षेप में इतना ही ... शेष भगवत् कृपा से - सत्यजीत तृषित ।
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