प्रेमतत्त्व 2
जैसे प्रकाश की अन्यत्र सातिशयता और व्यभिचारिता होने पर भी सूर्य में उसका व्यभिचार या सातिशयता सम्भव नहीं है, वैसे ही अन्यत्र प्रेम का व्यभिचार और सातिशयता देखी जाती है, परन्तु भगवान में व्यभिचार और सातिशयता नहीं है। पुत्र, कलत्रादिकों में कभी प्रेम, कभी बैर भी हो जाता है, कभी प्रेम की कमी, कभी अधिकता हो जाती है, परन्तु भगवान में वह सदा होता है और सर्वदा निरतिशय होता है, क्योंकि जैसे सूर्य प्रकाश के उद्गम-स्थान या प्रकाशस्वरूप ही हैं, वैसे ही भगवान ही प्रेम के उद्गम-स्थान किंवा प्रेमस्वरूप ही हैं। कहा जाता है कि भगवान और उनमें प्रेम प्रत्यक्ष नहीं है, फिर भगवान में अव्यभिचारी और निरतिशय प्रेम या उन्हें प्रेमस्वरूप कैसे माना जाय? परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भगवान सर्वप्रकाशक, अखण्ड बोध रूप से, प्रत्यगात्मा रूप से प्रसिद्ध हैं। अतएव उनमें प्रेम भी प्रसिद्ध है। केवल अनिर्वचनीय आवरण मिटाने के लिये ही कुछ प्रयत्नों की अपेक्षा है।
विज्ञान से सारी वस्तुओं का व्यवहार होता है। सम्पूर्ण वस्तु, सम्पूर्ण व्यवहार बोध से ही प्रकाशित होता है। फिर बोध में क्या सन्देह? “जगत् प्रकाश्य, प्रकाशक रामू” जैसे दर्पणदर्शन के पश्चात् तदन्तर्गत प्रकाशित होती हैं-“तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।” जैसे तरंग व्यामोह से ही कह सकती है कि “जल कहाँ है? जो कुछ है, मैं ही हूँ” वैसे ही जीव व्यामोह से ही कह सकता है कि “भगवान कहाँ? जो कुछ है मैं ही हूँ।” जैसे तरंग के भीतर, बाहर, मध्य में, किं बहुना तरंग का अस्तित्व ही जल पर निर्भर हैं, वैसे ही सम्पूर्ण जगत् में, विशेषतः जीव में, उसके भीतर, बाहर, मध्य में सर्वत्र भगवान ही हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण विश्व या जीव भगवान की सत्ता से ही सत्ता-वाले हैं, उनका पृथक् अस्तित्व ही नहीं है।
प्राणी को अपने प्राणों में, सुख में, अपनी आत्मा में स्वाभाविक प्रेम होता है, भगवान तो प्राणों के प्राण, सुख के सुख और जीवों के भी जीवन हैं। फिर उनमें प्रेम स्वाभाविक क्यों न हो? इसीलिये तो महर्षि वाल्मीकि कहते हैं-“लोके न हि स विद्येत यो न राममनुव्रतः।” अर्थात् लोक में कोई भी जन्तु या कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है, जो राम का भक्त न हो।
वशिष्ट कहते हैं-“प्राण प्राण के, जीव के जिय तुम तजि जिनहिं सुहात गृह, तात तिनहिं विधि बाम।” अर्थात् हे तात! राघवेन्द्र रामभद्र! तुम्हीं तो प्राणों के प्राण, जीवों के जीवन और आनन्द के भी आनन्द हो। प्राण से या अपान से प्राणी नहीं जीता, किन्तु प्राणी में प्राणन शक्ति देने वाला प्राण का भी प्राण भगवान ही सबको जिलाता है। फिर तुमको छोड़कर जगत् किसे अच्छा लगे? इस दृष्टि से रावणादि भी राम के भक्त ही हैं। भला अपनी सत्ता का कौन विरोधी होगा?
नास्तिक भी अपनी और अपने सिद्धान्त की सत्ता का बाध या अपलाप नहीं चाहता या करता। हर एक व्यक्ति का निश्चय है कि और कुछ हो या नहीं, रहे या न रहे, मैं तो हूँ ही, मैं तो रहूँ हो। जैसे जल के बिना तरंग क्षणभर भी टिक ही नहीं सकती, वैसे ही सत्ता के बिना सम्पूर्ण पदार्थ असत् हो जाते हैं। सत्, चित्, आनन्द रसस्वरूप भगवान के बिना सब निःस्फूर्ति, नीरस, निरानन्द, किं बहुना असत् हो जाते हैं। उनके योग से ही-आध्यात्मिक सम्बन्ध से ही-स्फूर्तिमत्ता, सरसता, सानन्दता और अस्तित्व सिद्ध होता है। अतः उनका अमंगलमय वियोग किस सह्य होगा? जैसे गुड़ के सम्बन्ध से नीरस बेसन में मिठास आती है, वैसे ही ‘स्व’ के सम्बन्ध से-अपनेपन के सम्बन्ध से-वस्तुओं में प्रीति होती है। अपनेपन के बिना कट्टर वैष्णवों को भगवान शिव में और शैवों को विष्णु में भी प्रेम नहीं होता।
अनन्त ब्रह्माण्डनायक भगवान के ही जिस रूप में अपनापन, अपना उपास्यभाव, होता है, उसी में प्रेम होता है। जिसमें उपास्यबुद्धि, इष्टबुद्धि नहीं, जिसमें अपनापन नहीं, उसमें प्रेम भी नहीं। अपनापन होने से अपने क्षेत्र, वृक्ष की बाग के काँटों में भी प्रेम होता है, उनके नष्ट होने में कष्ट होता है। जिस अपनेपन के बिना ब्रह्म भी नीरस, जिस अपनेपन के सम्बन्ध से कण्टकादि में भी पे्रम, साक्षात् उस अपने में, “स्व” में प्राणी का कितना प्रेम हो सकता है? इसीलिये भगवान प्राण के प्राण, जीव के जीवन, आनन्द के आनन्द, प्रत्यक्ष स्वात्मा है, अतएव प्रेम या रसस्वरूप ही है। जो वस्तु जितनी अप्रत्यक्ष, दूर और अपने से भिन्न हैं, उसमें उतनी ही प्रेम को कमी होती है। क्षेत्र, मित्र, पुत्र, कलत्र आदि में दूरस्थ, अप्रत्यक्ष तत्वों की अपेक्षा अधिक प्रेम होता है।
देह विरुद्ध होने से उन सबका ही त्याग किया जाता है, क्योंकि उनकी अपेक्षा देह सन्निहित एवं प्रत्यक्ष है। देह से भी इन्द्रियाँ, प्राण अन्तरंग है, अतः उनमें प्रेम अधिक होता है। मन उनसे भी समीप है, अतः उसके प्रतिकूल या उसे दुःखदायी मालूम पड़ने पर देहादि का भी त्याग किया जाता है।
बुद्धि, अहमर्थ का भी निरोध आत्महित के लिये किया जाता है। “यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह, बुद्धिश्च न विचेष्टते’ इत्यादि से मनोनाश, वासना-क्षय के लिये प्रयत्न प्रसिद्ध ही है। इस दृष्टि से सर्वान्तरंग, सर्वसन्निहित, परम प्रत्यक्ष, प्रत्यगात्मस्वरूप ही भगवान हैं। आत्मा में मुख्य प्रेम और वही प्रेमस्वरूप भी है, उनसे भिन्न में प्रेम की कमी स्पष्ट है। आत्मा के लिये ही सब कुछ होता है, देवता में प्रीति भी आत्मा-कल्याण के लिये ही होती है, आत्मा-प्रतिकूल देवता की उपेक्षा ही होती है।
यदि भगवान प्रत्यगात्मस्वरूप नहीं, तब तो भगवान ‘शेष’ (अंग) हो जायेंगे, भगवान के लिये आत्मा नहीं, किन्तु भगवान आत्मा के लिये समझे जायेंगे, अतः भगवान परोक्ष होने से अस्वप्रकाश समझे जायेंगे, भगवान अनात्मा होने से बहिरंग और शेष या अंग समझे जायेंगे, यह सब अनर्थ है, क्योंकि सिद्धान्ततः वस्तुगत्या भगवान ही सर्वान्तरंग, सर्वान्तरात्मा हैं, वे ही सर्वशेषी हैं, सब कुछ उनके लिये, वे किसी के लिये नहीं। भगवान ही प्रत्यगात्मा होने से स्वप्रकाश और वे ही शेषी हैं, वे ही निरतिशय, निरूपाधिक परप्रेम के आस्पद हैं। इसीलिये तो जैसे सैन्धवखिल्य (सेंधानमक का टुकड़ा) अपने आपको अपने उद्गम-स्थान समुद्र में समर्पण कर समुद्ररूप हो जाता है, वैसे ही औपाधिक चैतन्यरूप जीवात्मा अपने उद्गम-स्थान परप्रेमास्पद भगवान में आत्मसमर्पण करके भगवत्स्वरूप हो जाता है।
जैसे घटाकाश घट और घटाकाश सबको ही महाकाश में समर्पण कर देता है। -“त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पितम्” (जब आकाश से ही वायु आदि-क्रम से घट बना, उसी से घटाकाश की प्रतीति हुई, घट पृथिव्यादि में लय क्रमेण आकाश हो गया, तब घटाकाश सुतरां आकाश हो गया, यही सच्चा आत्मसमर्पण है), वैसे ही जीवात्मा भगवान से प्रादुर्भूत अपना सर्वस्व और अपने आपको भगवान में समर्पण करके सर्वदा के लिये सर्वशेषी, सर्वान्तरंग, सर्वप्रेमास्पद, सर्वान्तरात्मस्वरूप हो जाता है।
अपने मिथ्या, काल्पनिक भाव का सर्वदा के लिये बाध कर, पारमार्थिक रूप को प्राप्त कर लेता है। इस तरह औपाधिक प्रेम सापेक्ष, सातिशय होने पर भी निरुपाधिक प्रेम भेद-निरपेक्ष, स्वप्रकाश, सर्वान्तरात्मा भगवान् का स्वरूप ही है और वह स्वतःसिद्ध है। केवल उसके प्राकटय के लिये ही प्रयत्न की अपेक्षा होती है। जैसे ब्रह्माकार वृत्ति की कोमलता, दृढ़ता से नित्यसिद्ध परमात्मस्वरूप-ज्ञान में भी कोमलता और दृढ़ता का व्यवहार होता है, वैसे ही है।
प्रेम में भी कोमलता, दृढ़ता से नित्य सिद्ध परमात्मस्वरूप-ज्ञान में भी कोमलता और दृढ़ता का व्यवहार होता है। प्रेम में भी कोमलता, दृढ़ता और उत्पत्ति का उपचार ही है। आमाम्र (कच्चा आम) पक्वाम्र का हेतु समझा जाता है, वैसे ही साधनावस्था का प्रेम साध्यावस्था के प्रेम का साधन माना जाता है। उसमें रक्षा की भी बड़ी अपेक्षा समझी जाती है।
भावुकों ने कहा है कि जैसे दीप बुझ जाता है, वैसे प्रेम के बुझ जाने का भी भय रहता है। जैसा कि किसी की उक्ति है-
“प्रेमाद्वयी रसिकयोरपि दीप एव हृद्वेश्म भासयति निश्चलमेव भाति।
द्वारादयं वदनतस्तु बहिष्कृतश्चेन्निर्वाति शीघ्रमथवा लघुतामुपैति।।”
अर्थात दोनों रसिकों के हृदय में रहने वाला प्रेम एक दीप है, वही हृदय-भवन का प्रकाशन करता है और निश्चल होकर स्वयं देदीप्यमान होता है। यदि वह मुखरूप द्वार से बाहर किया गया, तो या तो बुझ जाता है अथवा उसमें लघुता आ जाती है।
वैसे प्रेमतत्व निष्कारण बतलाया जाता है-
“आविर्भावदिने न येन गणितो हेतुस्तनीयानपि,
क्षीयेताऽपि न चापराधविधिना नत्या न यो वर्द्धते।
पीयूषप्रतिवेदिनस्त्रिजगती दुःखद्रुहः साम्प्रतम्,
प्रेम्णस्तस्य गुरोः किमद्य करवै वाङ्निष्ठता लाघवम्।।”
अर्थात प्रेमदवे ने अपने प्रादुर्भाव के दिन किसी सूक्ष्मतम हेतु की भी अपेक्षा नहीं की, किसी भी अपराध के कारण उनका हृास नहीं होता और बहुत नमस्कार से उनकी वृद्धि भी नहीं होती।
पीयूष के प्रतिस्पर्धी, त्रिजगती-दुःख के द्रोही, परम गुरु प्रेम देवता को वाग्गोचर करके लघु कैसे बनाया जाय? यद्यपि लोक में प्रेम त्रिदल होता है-एक आश्रय, दूसरा विषय और तीसरा प्रेम, तथापि अन्तरंग-स्थिति में तीनों एक ही वस्तु हैं, एक ही में औपाधिक त्रैविध्य की कल्पना होती है, जैसे जल और तरंग में वास्तविक भेद न होने पर भी काल्पनिक भेद को लेकर व्यवहार होता है-
“गिरा अर्थ जल-बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बन्दौं सीताराम-पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न।।”
श्री भगवान् की आह्लादिनी शक्तिरूपा श्री जनकनन्दिनी तो इतनी अन्तरंग हैं, जैसे अमृत में माधुर्य। परमानन्द सुधासिन्धु भगवान् में माधुर्य सार सर्वस्व हो उनकी आह्लादिनी शक्ति है। उन्हीं का प्रेम वास्तविक प्रेम है।
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