प्रभुकृपा
प्रभुकृपा के बिना प्रभु की दुस्तरा माया को तरना अत्यन्त असम्भव है। यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण प्राणी सर्वान्तरात्मा, सर्वाधिष्ठान भगवान् के अंश ही हैं। जैसे जल से तरंग, अग्नि से विस्फुलिंग (चिनगारियाँ), महाकाश से घटाकाश, उदंचनाकाश आदि उद्गत (उत्पन्न) होते हैं, वैसे ही सम्पूर्ण चेतन वर्ग की उत्पत्ति भगवान् से होती है। वस्तुतः अत्यन्त निरुपाधिक तत्व में वास्तविक अंशांशिभाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि निरवयव, निरंश में अवयव एवं अंश की भावना सर्वथा असंभव है, तथापि जैसे अविकृत कौन्तेय (कर्ण) में भ्रम से ही राधासुत होने की भ्रान्ति हो गयी, वैसे ही प्रत्यक्चैतन्याभिन्न, स्वप्रकाश चिद्रूप में ही भ्रम से जीवभाव भासित होता है। जैसे मायावी अपनी चमत्कारपूर्ण माया द्वारा निर्विकार रूप से स्थिर रहकर ही आकाश में कच्चे सूत्र की कुखरी (बण्डल) फेंककर शस्त्रास्त्र सुसज्जित वीर वेष में सूत्र के सहारे ऊपर चढ़ता है।
चढ़ते-चढ़ते अदृश्य हो जाता है और फिर दैत्यों से युद्ध करता है, युद्ध करते-करते उसके अंग-प्रत्यंग शिर आदि अवयव पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, उसकी पत्नी उसे लेकर चितारोहरण करके पति की सहगामिनी हो जाती है, यह सब घटना प्रत्यक्ष दिखायी देने के पश्चात् वह उसी तागे के सहारे फिर आकाश से उतरता हुआ दिखायी देता है, फिर भी वास्तविक मायावी अपनी माया से लोगों की दृष्टि से ओझल होकर जहाँ का तहाँ ही विराजमान रहता है, वैसे ही प्रत्यक् चिदात्मा भगवान् निर्विकार, कूटस्थ, एकरस रूप से सर्वदा स्वरूपस्थ होने पर भी समष्टि-व्यष्टि, स्थूल-सूक्ष्म, कारण जगत्, जाग्रत्‚ स्वप्न‚ सुषुप्ति अवस्था आदि प्रपंच फैलाकर उन पर विश्व–तैजस–प्राज्ञ‚ विराट-हिरण्यगर्भ-अव्याकृतरूप में अनुभूयमान होता है, अनेक व्यवहारों में तल्लीन, तज्जन्य शोक-मोहादि उपद्रवों में फँसा हुआ दिखायी देता है, परन्तु फिर भी उसके स्वरूप में किंचित् भी विकार या हलचल नहीं होती। प्रपंच एवं प्रपंचरूप स्वरूप से पृथक्, असंग, कूटस्थ स्वरूप सर्वदा एकरस ही रहता है।
इसी देह में अन्तर्मुख होकर देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहमर्थ आदि अतत् (अनात्मा) का अपोहन करते हुए यदि ढूँढ़े, तो उसके उपलब्ध होने में कठिनाई नहीं, परन्तु जैसे कोई घर में खोयी हुई वस्तु को बन में ढूँढ़े, वैसे ही बहिर्मुख प्राणी आन्तर वस्तु को-भीतर की खोयी वस्तु को-बाहर ढूँढ़ता है। विचार करने वर सर्व-भास्य दृश्य के भासक निर्विकार दृक्स्वरूप भानात्मक भासक के उपलम्भ में कार्यपरम्परा को परम कारण में और परम कारण को भी कार्यकारणातीत तत्व में विलीन या बाधित कर देने पर अशेष विशेषातीत वस्तु को पा लेने में कठिनाई नहीं है, तथापि भगवत्कृपा के बिना मिथ्या विश्व से अभिनिवेश नहीं छूटता-
“वदन्ति चैतत् कवयः स्म नश्वरं पश्यन्ति चाध्यात्मविदो विपश्चितः।
तथापि मुह्यन्ति तवाजमायया सुविस्मितं कृत्यमजं नतोऽस्मि तम्।।”
अर्थात क्रान्तदर्शी लोग विश्व को विनश्वर बतलाते हैं, अध्यात्मविद् विद्वान् विश्व की विनश्वरता का अनुभव भी करते हैं, तथापि आपकी माया से मोहित हो जाते हैं, ऐसे विस्मयजनक कृत्यवाले अज अव्ययात्मा आपको नमस्कार है। इस श्वान, शृगाल, गृध्र, काकादि पिशिगशियों के भक्ष्य, अस्थि मांस चर्ममय पंजर, मूत्र-पुरीष-भाण्डागार, मायामय क्षणभंगुर, बुद्बुदोपम देह से उन्हीं लोगों की अहंता-ममता छूटती है और वे ही लोग दुस्तरा गुणमयी, माया को तर सकते हैं, जिन्होंने निष्कपटभाव से सर्वात्मना भगवान् के श्रीचरणों का सहारा लेकर उनकी दयादृष्टि को प्राप्त कर लिया है-
“येषां स एव भगवान् दययेदनन्तः सर्वात्मनाश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम्।
ते दुस्तरामिति तरन्ति च देवमायां नैषां ममाहमिति धीः श्व`गालभक्ष्ये।।”
अन्यथा अविवेक, अज्ञान से प्रत्यक्ष सिद्ध करतलस्थित आमलक के समान अत्यन्त अपरोक्ष-सर्वात्मभाव भी परोक्ष या असत्कल्प हो जाता है और फिर प्राणी आध्यात्मिकता, आधिदैविकता को भूलकर केवल आधिभौतिक वैषयिक भोग-विलासों के किंकर बनकर आसक्ति, असन्तोष, विद्वेष आदि आसुर भावों से ग्रस्त होकर परस्पर एक दूसरे के संहारक बन जाते हैं। इसीलिये सन्तों ने सर्वदा ही भगवत्कृपा की प्रतीक्षा को मुख्य माना है, अपने और विश्व के कल्याण के लिये प्रभु में चित्त को-निष्काम मति को-जोड़ना ही मुख्य पुरुषार्थ माना है। सम्पूर्ण प्राप्तव्य तत्वों की प्राप्ति इतने ही से सम्पन्न हो जाती है। भगवान् के श्रीचरणों में अहैतुकी मतिवाले नैष्ठिक भक्त सम्पूर्ण विश्व को, सम्पूर्ण प्राणियों केा आत्मवत् भगवत्स्वरूप ही देखते हैं। वे खलों का भी अहित न चाहकर हित ही चाहते हैं। उनके स्वार्थ-परमार्थ में अन्तर नहीं रह जाता। जब प्राणी आत्मसम्बन्धी पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, कलत्र, मित्र, क्षेत्र, वित्त आदि अत्यन्त अनात्मा को भी प्रेमारपद बनाकर उनका हित चाहता है, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण आदि में अतिशय प्रेम करता है, तब फिर जब सम्पूर्ण जगत एवं उसके प्राणियों को परमात्मस्वरूप निजात्म रूपं ही समझ लेगा, तब उसका विश्व सृहृद् होना उचित ही है। श्रीप्रह्लादजी कहते हैं कि हे अधोक्षज! विश्व का कल्याण हो, खलों के मन में भी प्रसाद हो, उनकी भी उग्रता मिटे, प्राणी एक दूसरे का कल्याण चाहने लगे, मन अशास्त्रीय, अभद्र वस्तुओं का चिन्तन छोड़कर भद्र चिन्तन में निरत हों, हम सबकी अहैतुकी मति आपमें प्रतिष्ठित हो-
“स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खलः प्रसीदतां ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथो धिया।
मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी।।”
क्रमशः ... ...
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