Monday, 4 July 2016

प्रेमतत्व भाग 1

प्रेमतत्त्व

प्रेमतत्त्व को रसिक लोग मूकरसास्वादनवत् कहते हैं। कोई तो आन्तर मधुर वेदना को ही ‘प्रेम’ कहते हैं। कोई स्नेहात्मक अन्तःकरण की वृत्ति को ही प्रेम कहते हैं। यद्यपि वधू आदि में ‘राग’, यागादि में ‘श्रद्धा’, गुरु आदि में ‘भक्ति’, सुखादि की इच्छा, ये सभी प्रेम के ही रूप हैं, तथापि सुखमात्र का अनुवर्तन करने-वाली अन्तःकरण की सात्त्विकी वृत्ति ही प्रेम है। यह प्राप्त, अप्राप्त और नष्ट में भी रहती है। इच्छा नष्ट और प्राप्त में नहीं होती।

प्रेम-रसज्ञ लोग रसस्वरूप परमात्मा को ही प्रेम कहते हैं। इसीलिये द्रवीभूत अन्तःकरण पर अभिव्यक्त रसस्वरूप परमात्मा ही प्रेम के रूप में प्रकट होता है। अतएव आचार्यों ने कहा है-

“भगवानृ परमानन्दस्वरूपःस्वयमेव हि।
मनोगतस्तदाकाररसतामेति पुष्कलाम्।।”

अस्पृष्ट दुःख निरुपम सुखसंवित्-स्वरूप परमात्मा ही प्रेम है। यह भी कहा गया है-

“निरुपमसुखसंविद्रूपमस्पृष्टदुःखं तमहमखिलतुष्टयै शास्त्रदृष्टया व्यनज्मि।”

प्रेमियों का कहना है कि चित लाक्षा(लाख) के समान कठोर द्रव्य है। वह तापक द्रव्य के योग से कोमल या द्रवीभूत होता है। जैसे द्रवीभूत लाक्षा में निःक्षिप्त हिंगल, हरिद्रा आदि रंग स्थायीभाव को प्राप्त होता है, वैसे ही द्रवीभूत अन्तःकरण पर अभिव्यक्त भगवान ही ‘भक्ति’ कहे जाते हैं। भगवान के गुणगणश्रवण से चरित्रनायक पूर्णतम प्रभु का स्वरूप प्रकट होता है। पुनश्च उनके प्रति स्नेहादि का प्रादुर्भाव होता है। स्नेहादि से चित्त में द्रवता होती है। स्नेहास्पद पदार्थ के दर्शन से उसमें संस्कार उत्पन्न होता है, अतएव पुनः-पुनः उसका स्मरण होता है। उपेक्षणीय वस्तु के संस्कार नहीं होते, इसका कारण यही है कि राग के आस्पद या द्वेष के आस्पद पदार्थ को ग्रहण करता हुआ चित्त रागादि से द्रवीभूत हुआ है, इसीलिये उसके संस्कार हो जाते हैं। उपेक्षणीय तत्व के ग्रहण-समय में चित्त द्रवीभूत नहीं होता, क्योंकि वह तापक भाव नहीं है।
प्रेमी कहते हैं कि भगवान् के उत्कट स्नेह से चित्त को इतना द्रुत करे कि वह गंगाजल के समान निर्मल, कोमल तथा द्रवीभूत हो जाय। फिर उसमें भगवान् का स्थायी रूप से प्राकटय होता है-
“मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये।
मनोगतिरविच्छिन्ना तथा गंगाम्भसोऽम्बुधौ।।”
अर्थात् भगवान् के गुणों के श्रवण से भगवान् में द्रवीभूत चित्त की वृत्तियों का ऐसा प्रवाह चलता है, जैसे-कोमल, निर्मल, द्रवीभूत गंगाजल का प्रवाह समुद्र की ओर चलता है। जिस समय द्रवीभूत चित्त में पूर्णतम पुरुषोत्तम प्रभु का प्राकटय होता है, उस समय ही स्थिर भक्ति कही जाती है।

जैसे लाक्षा के कठोर रहने पर उसमे रंग स्थिर नहीं होता, लाख की टिकिया पर मुहर का अक्षर अंकित करने के लिये भी अग्नि के सम्बन्ध से उसे कुछ कोमल किया जाता है, क्योंकि कठोर लाख पर मुहर के अक्षर अंकित नहीं होते, वैसे ही कठोर, अद्रुत चित्त पर भगवान् का स्वरूप, चरित्र, गुण तथा अन्यान्य सदुपदेश अंकित नहीं होता। परन्तु गंगाजल के समान कोमल, द्रवीभूत अन्तःकरण में भगवान् का प्राकटय होने से फिर भगवान् भी निकलने में समर्थ नहीं होते। जैसे लाक्षा के साथ एकदम मिला हुआ रंग उसमें से निकलने में समर्थ नहीं होता, लाख चाहे तो भी रंग से वियुक्त नहीं हो सकती, वैसे ही यदि भगवान् चाहें, तो भी भक्त के द्रवीभूत चित्त से निकल नहीं सकते।

भक्त भी यदि चाहे, तो भी वह भगवान् से वियुक्त नहीं हो सकता, भगवान् को अपने अन्तःकरण से निकाला नहीं जा सकता।
“विसृजति हृदयं न यस्य साक्षात् हरिरवशाभिहतोऽप्यघौघनाशः।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधान उक्तः।।”

अर्थात जिसके हृदय की प्रणय-रशना से बँधे हुए भगवान् अपने को न छुड़ा सकें, वही प्रधान भक्त है।

कितने स्थलों में भक्त भगवान से कहते हैं कि यदि आप हमारे हृदय से निकल जायें, तो हम देखें आपकी सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायकता। कहीं-कहीं भक्त भी हृदय से भगवान को निकालना चाहते हैं, भगवान में दोषानुसन्धान करते हैं, परन्तु असफल होते हैं-

“प्रत्याहृदत्य मुनिः क्षणं विषयतो यस्मिन् मनोधित्सति,
वालाऽसौ विषयेषु धित्सति मनः प्रत्याहरन्ती मनः।
यस्यस्फूर्तिलवाय हन्त हृदये योगी समुत्कण्ठते,
मुग्धेयं किल पश्य तस्य हृदयान्निष्क्रान्तिमाकाङ्क्षति।।”

अतएव कुछ लोग द्रवता को ही प्रेम कहते हैं।
यद्यपि द्रवता की अपेक्षा अवश्य है, तथापि प्रेम का स्वयं स्वरूप द्रवता नहीं है, प्रेम का निजी रूप तो रसस्वरूप परमात्मा ही है। अतएव आचार्यों ने उसे निरूपम सुखसंविद्रूप बतलाया है। जिस तरह सच्चिदानन्द ब्रह्म विश्व का कारण है, अतएव उसके सदेश, चिदेश की सर्वत्र अनुवृत्ति दिखाई देती है। ‘घटःसन्’, ‘पट.सन्’ इत्यादि रूप से सद्विशेष घटादि प्रपंच में सत् की व्याप्ति है। वैसे ही “आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि” के अनुसार आनन्द रस से भी सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है, अतएव सर्वत्र उसकी अनुवृति या व्याप्ति होनी चाहिये। इसीलिये हर एक जन्तु में, हर एक परमाणु में आनन्द, रस या रसस्वरूपभूत प्रेम की भी व्याप्ति है। बिना प्रेम या रस के एक दूसरे से मिलना नहीं हो सकता। पुत्र, कलत्र, मित्र आदि का मिलन भी रस या स्नेह से है।

पशु-पक्षियों में, पिता-माता, पुत्र, पुत्रवधू में प्रीति, स्नेह होता है। किं बहुना एक परमाणु का दूसरे परमाणु से मिलना भी बिना स्नेह के नहीं हो सकता। इस तरह प्रेम तत्व आनन्द या रसस्वरूप होने से विश्व का कारण है, इसलिये उसकी व्याप्ति है। वह सर्वत्र और सबके पास है। उसका दुरुपयोग करने से अर्थात् केवल सांसारिक वस्तुओं में ही प्रेम करने से, दुःख होता है। भगवान में उसका सम्बन्ध जोड़ते ही सारा विश्व आनन्दमय, मंगलमाय हो जाता है। इसीलिये प्रेमियों ने चाहा है कि संसार से प्रेम हटकर भगवान में ही हो जाय-“नाते नेह जगत् के सब रे बटुरि होंहु इक ठाईं। यह बिनती रघुबीर गुसाई।”

जैसे किसी के पास कोई दिव्यशक्तिसम्पन्न क्षेत्र हो, परन्तु वह उसमें दौर्गन्ध्य-विष-कण्टकादिपूर्ण विष-वृक्ष को लगाकर दौर्गन्ध, विष, कण्टकादि से दुःख पाता है, यदि हिम्मत बाँधकर सावधानी से वृक्ष को काटकर सौन्दर्य, माधुर्य, सौरस्य, सौगन्ध्यपूर्ण आम्र फल या कल्पवृक्ष को लगाये, तो अवश्य सुखी हो जाय। ठीक वैसे ही प्रेम को संसार के साथ जोड़कर, प्रेम में लौकिक भावों को जोड़कर, प्राणी दुःखी होता है। प्रेम के साथ भगवान् का सम्बन्ध जोड़ते ही सर्वत्र आनन्द ही आनन्द हो जाता है। जैसे कोई कल्याणमयी, करुणामयी पुत्रवत्सला अम्बा अपने शिशु को कहीं भेजती हुई उसे ऐसे पाथेय का अवश्य प्रदान करती है, जिसके सहारे वह पुनः अपनी अम्बा के पास आ जाय, यदि ऐसा न ध्यान रखे, तो उसे “करुणामयी” नहीं कहा जा सकेगा।

वैसे ही अनन्त ब्रह्माण्ड जननी कृष्णाभिधाना माँ ने भी जीवों को प्रेम तत्त्व साथ में ही दे रखा है। उसे भूल जाने से या उसका दुरुपयोग करने से जीव दुःख पाता है। परन्तु उसको याद कर उसका सदुपयोग करते ही अर्थात् गुरुजनों, शास्त्रों एवं भगवान् में प्रेम का उपयोग करने से जीव कृतकृत्य होकर अपनी कृष्णाभिधाना माँ के अंक (गोद) में जा पहुँचता है, सर्वदा के लिये कृतकृत्य हो जाता है। कहा जा सकता है कि यदि रस, प्रेम और भगवान् एक हैं और नित्य सिद्ध ही है, तो भगवान् में प्रेम को ‘प्रेम’ और अन्य प्रेमास्पद में विषय-विषयीभाव-कल्पना की क्या अपेक्षा है? इससे तो मालूम पड़ता है कि प्रेम के लिये भेदभाव की ही अपेक्षा है। बिना दो के प्रेम नहीं होता, अतएव प्रेम और भगवान् भी दो वस्तु होनी चाहिये।

परन्तु गम्भीरता से विवेचन करें, तो मालूम होगा कि आरम्भकाल में औपाधिक प्रेम के लिये अवश्य ही दो की अपेक्षा किंवा अभिव्यक्ति के लिये साधन की अपेक्षा है, परन्तु स्वभावतः प्रेम अभेद में या अत्यन्त सन्निहित प्रत्यगात्मा में ही होता है और वह स्वतः सिद्ध भी है। जैसे स्वप्रकाश ब्रह्म के प्राकटयार्थ भी महावाक्यजन्य परब्रह्माकाराकारित वृत्ति की अपेक्षा होती है, वैसे ही भगवत्स्वरूप, स्वतः सिद्ध प्रेम के भी प्राकटय के लिये भगवदाकाराकारित स्निग्ध मानसी वृत्ति अपेक्षित है। उस प्राकटय के लिये ही सद्धर्म, सत्कर्म आदि साधनों की अपेक्षा है। प्राकटय-भेद से ही उसके अणु, मध्यम, महत् एवं परममहत्परिमाण-भेद से अनेक भेद भी होते हैं। साधनकाल में ही भेदभाव की अपेक्षा होती है। अज्ञान के कारण ही भगवान् में प्रेम ने होकर विश्व में हेाता है। या यों समझिये कि नीरस, निःसार संसार में रसस्वरूप भगवान् के सम्बन्ध से ही सरसता की प्रतीति होती है, अतः सरसत्वेन प्रतीयमान विश्व में प्रेम होता है।

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