श्री करपात्री जी महाराज श्री द्वारा वर्णित शिव तत्व पर हम समय समय पर आंशिक बात करेंगे ।
गुरुतत्व और शिव तत्व में गहन एकता है , जैसे नारायण का शेष रूप होना , गुण रूप होना । हरि के स्व शक्ति संग विलास न होने पर हर तत्व रहता है , ई कार रूपी शक्ति के विसर्ग से वह ही शिव है । या कहे हर में ईश्वरी का प्रादुर्भाव हो रस-विलासमय होना हरि होगा । अतः आज का दिन शुभ है , गुरू - हरि - और शिव में अभिन्नता जान आज से प्रारम्भ कर रहा हूँ यह लेख , जब - जब समय उपलब्ध हुआ और सम्भव हुआ वैसे ही अगली कड़ी प्रेक्षित करने के भाव से ... सत्यजीत तृषित ।
श्री शिवतत्व
शिव वही तत्व है जो समस्त प्राणियों के विश्राम का स्थान है। ‘शीड् स्वप्ने’ धातु से ‘शिव’ शब्द की सिद्धि है। ‘शेरते प्राणिनो यत्र स शिवः’’- अनन्त पाप-तापों से उद्विग्न होकर विश्राम के लिये प्राणी जहाँ श्यन करें, बस उसी सर्वाधिष्ठान, सर्वाश्रय को शिव कहा जाता है। वैसे तो-
‘‘शान्तं शिवं चतुर्थमद्वैत मन्यन्ते।’’
इत्यादि श्रुतियों के अनुसार जाग्रत, स्वप्न, सुपुप्ति तीनो अवस्थासे रहित, सर्वदृश्यविवर्जित, स्वप्रकाश, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म ही शिवतत्व है, फिर भी वही परमतत्व अपनी दिव्यशक्यिों से युक्त होकर अनन्तब्रह्माण्डों का उतपादन, पालन एवं संहार करते हुए ब्रह्मा, विष्णु शिव आदि संज्ञाओं को धारण करते हैं। यद्यपि कहीं ब्रह्मा जीव भी कहा जाता है, ‘‘सोऽविभेत् एकाकी न रेमे जाया से स्यादथ कर्म कुर्वीय’’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार भय, अरमण आदि युक्त होने से हिरण्यगर्भ एव विराट् को जीव ही कहा गया है, तथापि वह एक-एक ब्रह्माण्ड के उत्पादक मुख्य ब्रह्मादि के साथ तादात्म्यभिमानी जीव ब्रह्मा कहा जाता है। वास्तव में तो जैसे किसान ही क्षेत्र में बीज को वोकर अंकरादि रूप में उत्पादक होता है, वही सिंचनादि द्वारा पालक और अन्त में वही काटने वाला होता है, वैसे ही एक ही अनन्त-अचिन्त्य-शक्तिसम्पन्न भगवान विश्व के उत्पादक , पालक और संहारक होते हैं।
‘‘सर्वभूतेषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।।’’
भगवान का कहना है कि समस्त भूतों में जितनी भी मूर्तियाँ उत्पन्न होती है, उन सबकी महद् (प्रकृति) योनि (माता) है और बीज प्रदान करने-वाला पिता मैं हूँ। ‘‘पिताऽहमस्य जगतः’’ - मैं ही समस्त जगत् का पिता उत्पादक- हूँ। क्रमश ...
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